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जेडीएस-कांग्रेस में फिर ‘तू तू मैं मैं’ कांग्रेस नेता ने जेडीएस अध्यक्ष को कहा ‘कुत्ता’

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कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भी दोनों पार्टियों के नेताओं में जुबानी जंग कम नहीं हुई है. बीच-बीच में दोनों पार्टियों में शब्दों की जंग जारी रहती है जबकि जेडीएस नेता और मुख्यमंत्री कुमारस्वामी पार्टी में कुछ भी गलत न होने का बार-बार दम भरते हैं. आज जो बयानबाजी हुई, उसके बाद फिर से लगने लगा है कि दोनों दलों के गठबंधन के हालात सामान्य नहीं हैं. आज कर्नाटक जेडीएस के अध्यक्ष विश्वनाथ ने प्रदेश के पूर्व सीएम और कांग्रेस नेता सिद्धारमैया पर जमकर प्रहार किए. विश्वनाथ ने कहा, ‘सिद्धारमैया पांच साल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. वो इसी की शेखी बघारते फिरते है. अगर उनका कार्यकाल इतना ही शानदार था तो कांग्रेस की सीटें 125 से घटकर 79 पर क्यों रह गई.’

जेडीएस नेता की इस बयानबाजी के बाद कांग्रेस नेता भी पूर्व सीएम के समर्थन में उतर आए. विश्वनाथ के इस बयान के बाद कांग्रेस विधायक एसटी सोमशेखर ने सिद्धारमैया का बचाव करते हुए कहा, ‘अगर 100 लोग सिद्धारमैया की तारीफ करते हैं तो यह उनके दिमाग में नहीं घुसता. अगर 100 लोग उनकी आलोचना करते हैं तो उन्हें फर्क नहीं पड़ता. वह (सिद्धारमैया) हाथी हैं और कुत्ते हाथी को देखकर भौंकने लग जाते है.’

इससे पहले जेडीएस अध्यक्ष विश्वनाथ पर हमला बोलते हुए सिद्धारमैया ने कहा था, ‘विश्वनाथ के बयानों से जलन की बू आती है. इस मामले में मैं कॉर्डिनेशन कमिटी के सामने अपनी बात कहूंगा. पहले जीटी देवगौड़ा ने कहा, अब विश्वनाथ ने. पता नहीं आगे कौन कहेगा. मैं जेडीएस से मांग करुंगा कि वो अपने नेताओं को संयमित भाषा का इस्तेमाल करने को कहे.’

इस दरार का फायदा उठाते हुए कर्नाटक की उडुपी सीट से बीजेपी सांसद शोभा करांदलाजे ने विश्वनाथ का समर्थन किया है. उन्होंने कहा, ‘जो भी विश्वनाथ ने बोला, वह सही है. सिद्धारमैया नाकाम मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने कोई काम नहीं किया. वह सत्ता में आने के लिए समाज और धर्म का विभाजन करना चाहते हैं.’ शोभा ने लोकसभा में कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पर भी हमला बोला. उन्होंने कहा, ‘खड़गे कुंठित हैं. वह कलबुर्गी लोकसभा सीट नहीं जीत जाएगा. डॉ जाधव उन्हें शिकस्त देंगे. कांग्रेस उपचुनाव भी नहीं जीत रही है.’

बता दें, कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस की साझा सरकार है. कर्नाटक की 224 सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी के 104, कांग्रेस के 77, जेडीएस के 37, बसपा का एक, एक निर्दलीय, केपीजेपी का एक विधायक और एक स्पीकर है. जेडीएस के कुमारस्वामी मुख्यमंत्री है. हाल ही में कर्नाटक बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष बीएस येदियुरप्पा ने दावा किया है कि गठबंधन (जेडीएस और कांग्रेस) के 20 विधायक उनके संपर्क में हैं. उसके बाद दोनों दलों के बीच छुपी हुई रार फिर से सामने आ गई है.

पंजाब: बदले सियासी माहौल के बाद दिलचस्प होंगे चुनावी नतीजे

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देश में लोकसभा चुनाव अपने अंतिम पड़ाव पर है. 19 मई को आखिरी दौर की 59 सीटों पर वोट डाले जाएंगे. इसी चरण में पंजाब की सभी 13 सीटों पर एक चरण में मतदान होंगे. पंजाब में सत्ता परिवर्तन के बाद अकाली-बीजेपी गठबंधन के लिए यह चुनाव बहुत मुश्किल दिख रहा है. विधानसभा चुनावों के बाद राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदल गए हैं. 2014 लोकसभा चुनाव के समय प्रदेश की कमान अकाली-बीजेपी गठबंधन के पास थी. तो चुनावी नतीजे भी गठबंधन के पक्ष में रहे थे. उस समय अकाली-बीजेपी गठबंधन ने 13 में से 6 सीटों पर जीत हासिल की थी. कांग्रेस के हाथ तीन सीट लगीं जबकि चार सीटों पर आम आदमी पार्टी ने कब्जा जमाया था.

लेकिन अब स्थिति बिलकुल उलट है. 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने यहां के राजनीतिक हालातों को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. जो पार्टी 10 साल से पंजाब की सत्ता पर काबिज थी, चुनावी नतीजे के बाद तीसरे स्थान पर खिसक गयी. उसकी हैसियत मुख्य विपक्षी दल बनने तक की नहीं रही. चुनाव के यह नतीजें अकालियों के लिए पैरों तले जमीन खिसकने जैसे थे. अकाली दल-बीजेपी गठबंधन को विधानसभा चुनाव में सिर्फ 18 सीटें मिली. बीजेपी के हालात तो अकाली दल से खराब थे. उनके हिस्से केवल तीन सीटें आईं.

पंजाब की सियासत में आम आदमी पार्टी का उदय हर किसी के लिए चौकाने वाला रहा क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में इस पार्टी के खाते में केवल चार सीटें आईं और सभी सीटें पंजाब में थीं. चुनाव के ये नतीजे खुद आम आदमी पार्टी के लिए भी अचंभित करने वाले रहे थे. इसकी वजह रही- देश की राजधानी दिल्ली जहां पार्टी का उदय हुआ, वहां भी उसे कोई सीट हासिल नहीं हुई थी.

पंजाब में लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद आम आदमी पार्टी को विधानसभा चुनाव में राज्य की सत्ता हाथ लगने की उम्मीदें थी लेकिन नतीजे अकाली दल और आप पार्टी दोनों के लिए निराशाजनक रहे. कांग्रेस ने 10 साल के बाद प्रदेश की सियासत में दमदार वापसी की. कैप्टन अमरिंदर ने न केवल ‘आप’ के पक्ष में बह रही हवा को अपने पक्ष में किया बल्कि चुनाव प्रचार में अकाली-बीजेपी सरकार पर जमकर हमले किये.

बता दें, विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश कांग्रेस की कमान प्रताप सिंह बाजवा के हाथ में थी. बाजवा संगठन को सही तरीके से संभाल नहीं पा रहे थे. बाजवा की निष्क्रियता की वजह से ही आम आदमी पार्टी को पंजाब में पैर पसारने का मौका मिला. लेकिन चुनाव से ऐन वक्त पहले राहुल गांधी प्रदेश की मांग को भांप गए और कैप्टन अमरिंदर सिंह को सीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया. यही कांग्रेस के लिए मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ. कैप्टन को उम्मीदवार घोषित करते ही प्रदेशभर की आबो-हवा कांग्रेस के पक्ष में हो गई. पार्टी ने 77 सीटों पर जीत हासिल की. दूसरे नंबर पर रही आम आदमी पार्टी से कांग्रेस को 57 सीटें अधिक मिली. ये नतीजें कैप्टन ने कांग्रेस को उस समय दिए जब पार्टी हर राज्य में बूरी तरह हार रही थी.

आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में 20 सीटें तो हासिल कर ली लेकिन चुनाव के बाद पार्टी में नेतृत्व को लेकर उपजी कलह के कारण एक के बाद एक नेताओं ने पार्टी को अलविदा कह दिया. पार्टी के चार में से तीन सांसदों ने अलग-अलग समय पर नाराजगी के चलते पार्टी छोड़ दी. आप पार्टी को लोकसभा चुनाव से पहले बड़ा झटका सुखपाल सिंह खैरा ने दिया. सुखपाल सिंह खैरा विधानसभा में विपक्ष के नेता थे. उनका पार्टी छोड़ना पंजाब में पार्टी के लिए बड़ा नुकसान है. चुनाव को करीब से देखने पर यह साफ पता चलता है कि आम आदमी पार्टी इस बार सिर्फ संगरुर संसदीय सीट पर ही मुकाबले में दिखाई दे रही है. यहां से वर्तमान सांसद भगवंत मान चुनावी मैदान में है.

वर्तमान लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति फिर से मजबूत दिख रही है. चुनाव में अकाली-बीजेपी गठबंधन के साथ आम आदमी पार्टी कहीं मुकाबले में नहीं दिख रही. इसकी वजह कैप्टन अमरिंदर सिंह की बेदाग छवि और पिछली सरकारों के दौरान अकालियों के कारनामें हैं. पंजाब में कांग्रेस की ​मजबूत स्थिति को देखते हुए राहुल गांधी ने भी कैप्टन अमरिंदर सिंह को फ्री हैंड ​दे रखा है. वर्तमान लोकसभा के नतीजे पंजाब में किसके पक्ष में जाएंगे, अभी तक इसके केवल कयास ही लगाए जा सकते हैं. वास्तविकता 23 मई को सभी के सामने आ जाएगी लेकिन एक बात जरूर है कि इस बार के चुनावी नतीजे दिलचस्प जरूर होंगे.

लोकसभा चुनाव: सहयोगी दल हांकेंगे बीजेपी का रथ लेकिन उनकी भी हालत खराब

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लोकसभा चुनाव अपने अंतिम दौर में आ पहुंचा है और विश्लेषकों ने चुनावी परिणाम का आकलन लगाना शुरु कर दिया है. अगर किसी तथ्य पर सभी चुनावी विश्लेषक एकमत हैं तो वह है ‘इस बार बीजेपी को चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा’. अभी तक चुनावी रुझान भी इसी ओर इशारा करते हैं. इस तथ्य को बीजेपी नेता राम माधव और सुब्रमण्यम स्वामी भी स्वीकार कर चुके हैं. स्वामी ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा था कि इस बार बीजेपी को केवल 220 सीटों पर ही कामयाबी मिलेगी. वहीं बीजेपी महासचिव राम माधव ने कहा था कि अगर इस बार पार्टी 271 सीटें जीत पाती तो बहुत अच्छा होगा.

अगर बीजेपी यह मान चुकी है कि उसे बहुमत नहीं मिलेगा तो उसे सत्ता में वापसी के लिए सहयोगी घटक दलों की दरकार होगी. लेकिन इस बार बीजेपी के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके सहयोगियों की खुद की हालत अपने ही राज्यों में काफी खराब दिख रही है.

बीजेपी को उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद महागठबंधन से पहले ही भारी नुकसान होने की संभावना है. अगर सहयोगी घटक दलों ने भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो बीजेपी के लिए चुनाव के बाद सरकार बनाना लोहे के चने चबाना जैसा होगा. 2014 के चुनाव में कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसे ही हालात रहे थे जहां कांग्रेस खुद तो बुरी तरह हारी ही थी, सहयोगी दलों को भी करारी हार का सामना करना पड़ा था. यहां उन दलों का जिक्र कर रहे हैं जो एनडीए के सहयोगी दल हैं लेकिन उनके हालात खुद के राज्यों में दयनीय हैं…

लोजपा
बीजेपी बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी और जदयू के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. बिहार की 40 सीटों में से बीजेपी 17, जदयू 17 और लोजपा छह सीटों पर चुनावी दंगल में हैं. बीजेपी के लिए यहां परेशानी यह है कि इस बार लोजपा की स्थिति 2014 जैसी नहीं दिख रही और न ही दलित वोटों पर उनकी पकड़ पहले वाली बची है. 2014 के लोकसभा चुनाव में लोजपा ने पांच सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन इस बार बिहार के दलितों में रामविलास पासवान को लेकर गहरी नाराजगी है जिसका नुकसान बीजेपी को उठाना पड़ सकता है.

रामविलास पासवान ने इस बार तीन टिकट तो अपने ही परिवार के सदस्यों को गिफ्ट में बांटी हैं. अब हालात यह हैं कि जदयू और बीजेपी को दलित वोट दिलाना तो दूर, पासवान लोजपा के उम्मीदवारों तक को समाज के वोट नहीं दिला पा रहे हैं. जमुई से उनके बेटे चिराग पासवान, हाजीपुर से पशुपति कुमार पारस, समस्तीपुर से रामचंद्र पासवान चुनाव लड़ रहे है.

जदयू
जनता दल यूनाइटेड ने 2014 के चुनाव में बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित करने के बाद एनडीए से नाता तोड़ लिया था. जेडीयू 2014 में अकेले चुनाव मैदान में थी और 2015 का विधानसभा चुनाव राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और लालु यादव के पुत्र तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री के पद पर विराजमान हुए. हालांकि यह शासकीय ड्रामा ज्यादा समय नहीं ठहर सका और नीतीश कुमार ने पाला बदलकर अपने पुराने सहयोगी बीजेपी के साथ मिलकर फिर से सरकार बना ली.

अब जदयू लोकसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़ रही है. पाला बदलने से बिहार की जनता में नीतीश कुमार के प्रति नाराजगी पहले से ही देखने को मिल रही है. वहीं राजद ने उपर बिहार के जनादेश का अपमान करने का आरोप लगाया है. तेजस्वी उनको हर रैली में पलटुराम कहकर घेर रहे है.

अकाली दल
पंजाब की सियासत में अकाली दल का प्रभाव शुरुआत से रहा है लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में उनके हालात बदतर हो गए. अकाली दल को 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की 56 सीटों पर जीत हासिल हुई थी लेकिन 2017 में पार्टी केवल 15 सीटों पर सिमट गई. यहां तक की अकाली दल इस बार मुख्य विपक्षी दल भी नहीं बन पाया. यहां आम आदमी पार्टी ने 21 सीटें हासिल की थी इसलिए ‘आप’ विपक्ष में बैठने का हकदार बनी. पंजाब में बीजेपी की सियासत केवल अकाली दल के पीछे रही है. अगर अकाली दल के यहां हालात इतने दयनीय हैं तो बीजेपी के लिए वहां कोई भी संभावना तलाशना बेमानी होगा.

एआईडीएमके
2014 के चुनाव में एआईडीएमके ने तमिलनाडु की 37 सीटों पर कब्जा किया था लेकिन तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता के निधन के बाद पार्टी की स्थिति वैसी नहीं रही. जयललिता के निधन के बाद सीएम पद के लिए पार्टी के भीतर संघर्ष हुआ. समझौते के तौर पर पलनीसामी को मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पेनरीसेल्वम को उपमुख्यमंत्री बनाया गया. बीजेपी ने तमिलनाडु में एआईडीएमके और पीएमके से गठबंधन किया है.

यहां से बीजेपी पांच, पीएमके सात और शेष सीटों पर एआईडीएमके चुनाव लड़ेगी. लेकिन चुनावी सर्वेक्षण में डीएमके को भारी जीत मिल रही है. ऐसे में डीएमके नेता एमके. स्टालिन की लोकप्रियता के आगे मोदी का जादू फेल होता दिखाई दे रहा है.

शिवसेना
बीजेपी और शिवसेना ने 2014 का लोकसभा चुनाव साथ लड़ा था. विधानसभा चुनाव में शिवसेना और बीजेपी की मध्य सीट बंटवारे को लेकर हुई तकरार के बाद दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. बीजेपी ने प्रदेश में सरकार बनाई लेकिन सरकार में शिवसेना की हिस्सेदारी नहीं रही. उसके बाद से 2019 तक शिवसेना ने कई बार बीजेपी पर उपर जमकर शब्दों के हमले किए.

कुछ समय पहले तक ऐसा लगने लगा था कि लोकसभा चुनाव भी शिवसेना और बीजेपी अलग-अलग ही लड़ेंगी लेकिन चुनाव से ऐन वक्त पहले अमित शाह के के कहने पर शिवसेना गठबंधन में चुनाव लड़ने को तैयार हुई. हालांकि यहां बीजेपी-शिवसेना गठबंधन काफी मजबूत है लेकिन कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन उसे टक्कर दे रहा है.

मायावती का पीएम पर हमला, कहा- मोदी के कर्म ही गाली खाने लायक हैं

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देश में लोकसभा चुनाव अंतिम चरण में है. 19 मई को आठ राज्यों की 59 सीटों पर मतदान के साथ इस सियासी दंगल का अंत हो जाएगा. मतदान के आखिरी चरण में नेता चुनाव प्रचार और जुबानी हमलों में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं. इसी कड़ी में आज बसपा सुप्रमो मायावती ने गोरखपुर में गठबंधन की साझा रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जमकर हमला बोला. मायावती ने कहा कि मोदी हर सभा में कह रहे है कि उन्हें गालियां पड़ रही है लेकिन ये तो स्वाभाविक है कि जो गाली खाने का काम करता है, उसे ही गालियां ही पड़ती है.

बसपा प्रमुख ने आगे कहा कि मोदी खुद को हर चुनावी रैली में पिछड़ा बताते हैं लेकिन वो फर्जी पिछड़े हैं. उन्होंने बीते पांच सालों में पिछड़ों के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया. असली ओबीसी तो अखिलेश यादव है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो फर्जी ओबीसी हैं.

सभा में मौजूद भीड़ के बारे में मायावती ने कहा कि इस जनसैलाब से यह साफ पता चल रहा है कि नमो-नमो वाले जा रहे हैं और जय भीम वाले आ रहे हैं. रोजगार के मुद्दे पर बीजेपी सरकार को घेरते हुए मायावती ने कहा कि हम युवाओं को सरकारी नौकरी देंगे लेकिन मोदी की तरह दो करोड़ नौकरी का झूठा वायदा नहीं करेंगे.

उन्होंने कहा कि हमें अभी तक के चरणों की बढ़िया रिपोर्ट मिल रही है. इसकी वजह से बीजेपी घबराई हुई है. इनके ढीले, लटके और मुरझाए हुए चेहरे बता रहे हैं कि इनकी सरकार पूरी तरह से जा रही है. 23 मई को देश के अच्छे दिन और बीजेपी के बुरे दिन शुरु हो जाएंगे.

राजनीति के ‘मौसम विज्ञानी’ इस बार दो मोर्चों पर गच्चा खाते हुए क्यों दिख रहे हैं?

भारत की राजनीति में रामविलास पासवान ऐसे नेता हैं, जो हमेशा सत्ता के साथ रहते हैं. सरकार चाहे किसी की भी आए, पासवान कभी चुनाव से पहले तो कभी चुनाव के बाद सत्ता के सिरमौर बनने वाले दल के साथ हो लेते हैं. इसी वजह से कई नेता उन्हें राजनीति का ‘मौसम विज्ञानी’ कहते हैं. पासवान फिलहाल एनडीए का हिस्सा हैं और दावा कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे.

रामविलास पासवान का यह दावा कितना सही होगा यह तो यह चुनाव परिणाम आने के बाद पता चलेगा, लेकिन उनकी सियासत पर सबकी नजर है. आपको बता दें कि रामविलास पासवान बिहार की हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र से आठ बार सांसद चुने गए. जीत का यह आंकड़ा इस बात की तस्दीक करता है कि राजनीति में उनका कद कितना बड़ा है.

पासवान पहली बार भारतीय लोकदल के टिकट पर साल 1977 में चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. साल 1980 में वे जनता पार्टी के टिकट पर सांसद बने, लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद हुए चुनाव में उन्हें कांग्रेस के रामरात्न राम के सामने हार का सामना करना पड़ा. हालांकि 1989 के चुनाव में उन्होंने फिर से जीत हासिल की. इस चुनाव के साथ जीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वो 2004 तक जारी रहा.

इस दौरान रामविलास पासवान की दलीय निष्ठा बार—बार बदलती रही. वे एनडीए और यूपीए, दोनों सरकारों में रहे. पासवान अकेले तो बिहार में इतने ताकतवर नहीं हैं कि वे कुछ बड़ा कर सकें, लेकिन प्रदेश के दलित वर्ग पर उनकी अच्छी पकड़ मानी जाती है. पहले यूपीए और बाद में एनडीए में उनकी एंट्री की वजह भी यही थी.

2014 के चुनाव में पासवान की पार्टी लोजपा ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. पार्टी ने सात सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, जिनमें से छह ने फतह हासिल की. इनमें हाजीपुर से रामविलास पासवान खुद और जमुई से उनके पुत्र चिराग पासवान सांसद चुने गए. पासवान इस बार के चुनाव में एनडीए में शामिल हैं. इस बार उनकी पार्टी को छह सीटें मिली हैं.

इस बार रामविलास पासवान चुनावी मैदान में नहीं हैं. 1977 के बाद यह पहला मौका है जब वे लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उनकी परंपरागत हाजीपुर सीट से इस बार रामविलास पासवान के भाई और बिहार सरकार के मंत्री पशुपति कुमार पारस चुनाव लड़ रहे हैं. वहीं, जमुई से रामविलास के पुत्र चिराग एक बार फिर चुनावी मैदान में हैं.

राजनीति के जानकारों की मानें तो इस चुनाव में रामविलास पासवान की प्रतिष्ठा दांव पर है. बताया जा रहा है कि दलितों के बीच अब उनकी पहले जैसी पकड़ नहीं बची है. उनकी पार्टी के उम्मीदवार अपनी सीटों पर तो दलित वोट हासिल कर रहे हैं, लेकिन बीजेपी और जेडीयू के उम्मीदवारों के खाते में इसे ट्रांसफर नहीं करवा पा रहे. जानकारों की मुताबिक प्रदेश की कुछ सीटों को छोड़कर ज्यादातर पर दलित समाज पूरी तरह से महागठबंधन के पक्ष में लामबंद दिखाई दे रहा है.

यदि ऐसा होता है तो यह रामविलास पासवान के लिए किसी झटके से कम नहीं होगा, क्योंकि जिस दलित वोट बैंक की वजह से वे राष्ट्रीय दलों से गठबंधन और सरकार में मोलभाव कर पाते हैं यदि वो ही उनसे छिटक गया तो उनका राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव कम होना तय मानकर चलिए. लोजपा के कई नेता भी यह स्वीकार करते हैं कि मोदी सरकार के दौरान हुई दलित विरोधी घटनाओं का नुकसान उनकी पार्टी को भी हुआ है.

आपको बता दें कि बीते पांच साल में देश में दलित उत्पीड़न की कई घटनाएं हुईं. वह चाहे गुजरात के ऊना में दलित की पिटाई का मामला हो या रोहित वेमुला की आत्महत्या का मुद्दा. एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का मामला भी खूब उछला. ये सभी मामले मोदी सरकार के साथ—साथ रामविलास पासवान के लिए भी मुसीबत का सबब बने. कहा गया कि पासवान सरकार में शामिल थे, लेकिन उन्होंने बड़े मामलों पर चुप्पी साधे रखी.

आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव इन्हीं मुद्दों पर रामविलास पासवान को घेर रहे हैं. तेजस्वी हर जनसभा में कह रहे हैं कि बीजेपी के साथ रहकर रामविलास की सोच भी आरएसएस जैसी हो गई है. वे आरएसएस की तरह दलितों की बजाय सवर्णों के लिए काम करते है. आपको बता दें कि रामविलास पासवान ने सवर्ण वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देने की मांग की थी. इस पर तेजस्वी ने उन्हें सवर्ण समाज का नेता कहा था.

दरअसल, तेजस्वी ये भली-भांति जानते हैं कि अगर दलित वोट उनके पक्ष में एकमुश्त लामबंद होते हैं तो महागठबंधन के लिए बिहार में संभावना बढ़ेगी. तेजस्वी लोकसभा चुनाव को महागठबंधन की एक प्रयोगशाला के रूप में देख रहे हैं. वे इस चुनाव में सभी प्रकार के विकल्पों को अपनाकर देख रहे हैं. चाहे मुकेश साहनी की नई-नवेली विकासशील इंसान पार्टी को तीन लोकसभा की सीट गठबंधन में देने की बात हो या उपेंद्र कुशवाह की रालोसपा को गठबंधन में लेने की.

कांग्रेस को सिर्फ नौ लोकसभा सीटों पर ही लड़ने पर सहमत करना भी तेजस्वी की रणनीति का ही हिस्सा है. वहीं, रामविलास पासवान पर वंशवाद के भी जमकर आरोप लग रहे हैं. विपक्षी दलों का आरोप है कि प्रदेश में उनके परिवार के अलावा उन्हें कोई दलित नेता नहीं मिलता, जो चुनाव लड़ सके. गौरतलब है कि लोजपा के हिस्से में आई छह में से तीन सीटों पर तो उनके परिवार के सदस्य ही चुनाव लड़ रहे हैं.

जमुई से रामविलास के पुत्र चिराग पासवान, हाजीपुर से उनके भाई पशुपति कुमार पारस और समस्तीपुर से उनके दूसरे भाई रामचंद्र पासवान चुनाव लड़ रहे हैं. विपक्ष आरोप लगा रहा है कि पशुपति कुमार पारस तो वैसे ही बिहार सरकार में मंत्री हैं, तो उनके स्थान पर किसी दलित कार्यकर्ता को क्यों नहीं चुनाव लड़ाया गया. इन तीन सीटों के अलावा लोजपा ने नवादा से चंदन कुमार, खगड़िया से महमूद अली कैसर, वैशाली से मुगेंर की वर्तमान सांसद वीना देवी को प्रत्याशी बनाया है.

बताया जा रहा है कि इन वजहों से रामविलास पासवान के उपर से दलितों का भरोसा उठ रहा है और लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करके अपना रुख महागठबंधन की ओर कर रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि खुद उनके समाज के (पासवान) लोगों को भी यह लगने लगा है कि दलितों और पासवानों के नाम पर राजनीति करके रामविलास सिर्फ अपने परिवार के लोगों और कुछ अमीर लोगों को मजबूत बनाने में लगे हुए हैं. इनका दलित समाज से कोई सरोकार नहीं है. हालांकि रामविलास पासवान का जनाधार उनसे कितना खिसका है, इसका पता तो 23 मई को ही चल पाएगा.

अमित शाह की पश्चिम बंगाल रैली पर ‘दीदी’ का साया, नहीं मिली इजाजत

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देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा चुनाव के छह चरण पूरे हो गए हैं लेकिन नेताओं के तौर-तरीके और निशाने पहले से भी तेज हो चले हैं. इस समय सियासी गलियारों में बीजेपी और टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी की कैट फाइट खासी चर्चा में है. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पं.बंगाल में दीदी पर जमकर प्रहार किए थे और अब बारी ममता की है. आज बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की प्रदेश के परगना जिले के जाधवपुर में दोपहर 11:00 बजे रैली थी जिसकी इजाजत ममता बनर्जी ने नहीं दी. बताया जा रहा है कि उनके हेलिकॉप्टर को भी लैंडिंग की परमिशन नहीं मिली है जिसके चलते उनकी इस रैली को रद्द कर दिया गया है. हालांकि अमित शाह की आज होने वाली अन्य दो रैलियों को इजाजत मिल गई है लेकिन हेलिकॉप्टर लैंडिंग और रैली को इजाजत न मिलने का मुद्दा गरमा गया है.

इस जहर का घूंट बीजेपी पी नहीं पा रही है. अब बीजेपी चुनावों में तृणमूल कांग्रेस पर गुंडागर्दी करने का आरोप बीजेपी अब चुनाव आयोग से इस मामले की शिकायत करेगी. इससे पहले पीएम मोदी और अमित शाह के हमलों का जवाब देते हुए तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि मैं इंच-इंच का बदला लूंगी क्योंकि आपने मुझे और बंगाल को बदनाम किया है.

बीजेपी अध्यक्ष की अन्य दो जनसभाएं आज 12:30 बजे जाधवपुर और दोपहर 2:15 बजे बारासात में होनी है. लोकसभा के आखिरी चरण में पश्चिम बंगाल की 9 सीटों पर 19 मई को मतदान होना है. पं.बंगाल में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी का एक छत्र राज रहा है. पिछले लोकसभा चुनावों में बीजेपी यहां केवल दो सीटें सीट पाई थी. 34 टीएमसी, चार कांग्रेस और दो पर वाम दलों ने कब्जा जमाया था.

सिख दंगों की इस कहानी से अधिकतर लोग हैं बेखबर

सैम पित्रोदा के ‘हुआ तो हुआ’ वाले बयान ने देशभर में फिर से 1984 में हुए सिख दंगों की यादों को ताजा कर दिया. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद भड़के उन दंगों ने देश में एक बाद फिर से राजनीति में भूचाल सा ला दिया है. असल में उन दंगों के पीछे एक कहानी है जो अधिकतर लोगों को पता ही नहीं है. 1978 के एसजीपीसी चुनावों में कांग्रेस के नेता ज्ञानी जैल सिंह ने एक भस्मासुर को समर्थन दिया था. यह भस्मासुर कोई और नहीं बल्कि दल खालसा का चीफ जरनैल सिंह भिंडरांवाले था.

जरनैल सिंह भिंडरांवाले कोई देवता नहीं बल्कि उस वक्त भारत को तोड़कर अलग खालिस्तान की मांग कर रहा था. वैसे ही जैसे आज कश्मीर के अलगाववादी कर रहे हैं. 1971 के युद्ध के बाद उसकी अलग खालिस्तान की मांग को पाकिस्तान परोक्ष रूप से समर्थन दे रहा था. देश के भीतर अकाली दल उसके साथ खड़ी थी.

1982 में भिंडरावाले ने हरमंदिर साहिब स्थित सिखों की प्रतिष्ठित संस्था दमदमी टकसाल पर कब्जा कर लिया और अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया. अकाली दल के साथ उसका यह गठबंधन एक तरह से आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पर जनादेश की मांग था जहां अलग खालिस्तान का समर्थन किया गया था.

खैर, वह अपनी इस योजना में सफल नहीं हो सका. हरमंदिर साहब में सेना ने घुसकर भिंडरावाले को खत्म कर दिया. लेकिन भिंडरावाले तो भस्मासुर था और उसके रक्तबीज आज भी मौजूद हैं. इतने सालों बाद भी अलग खालिस्तान की मांग खत्म नहीं हुई है. आज भी सिखों का एक वर्ग ऐसा है जो भिंडरावाले को ‘संत’ मानता है. उस वक्त भिंडरावाले को खत्म करने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी.

दिल्ली में 1984 का सिख विरोधी दंगा इसी पृष्ठभूमि में हुआ था. आप कल्पना कर सकते हैं लोगों के मन-मानस में सिखों के प्रति कितना गुस्सा रहा होगा. अगर आज कश्मीर के अलगाववादियों के खिलाफ इतना गुस्सा है तो इससे कई गुना ज्यादा गुस्सा उस वक्त सिख अलगाववादियों के खिलाफ था. इसकी वजह रही कि सिखों से किसी को उम्मीद नहीं रही थी कि वो देश को तोड़ने की बात करेंगे.

इसी दबे हुए गुस्से को हवा दे दी इंदिरा गांधी की हत्या ने. दिल्ली में सिखों का कत्लेआम हुआ, ये बात सही है लेकिन इस परिस्थिति के लिए सिखों का एक वर्ग भी जिम्मेदार था. क्रिया प्रतिक्रिया का ये दौर करीब डेढ़ दशक तक चलता रहा. बाद के दिनों में एक सिख पुलिसवाले ने ही पंजाब से इस खालिस्तानी आतंकवाद को खत्म करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई, ये भी उतना ही सच है.

सिख दंगों का घोषित परिणाम ये हुआ कि देशभर में सिख अलगाववाद खत्म हो गया. वहीं अघोषित परिणाम ये हुआ कि चौरासी के चुनाव में राजीव गांधी को अभूतपूर्व बहुमत मिला. तीन चौथाई सीटें कांग्रेस को मिली. यह फायदा कुछ वैसा ही था जैसे 2002 के दंगों का फायदा आज तक मोदी को मिल रहा है. बात कड़वी है लेकिन सच्चाई यही है. अगर गुजरात का मुस्लिम विरोधी दंगा क्रिया की प्रतिक्रिया थी तो दिल्ली का सिख विरोधी दंगा भी क्रिया की प्रतिक्रिया ही थी. दोनों जगहों पर सामाजिक प्रतिक्रिया मुखर हुई जिसका राजनीतिक दलों ने अपने-अपने लाभ के मुताबिक समर्थन या विरोध किया.

खैर… वो इतिहास का ऐसा काला अध्याय है जिसके पन्ने पलटने से कुछ हासिल नहीं होगा. लेकिन आज राजनीतिक रूप से जो बीजेपी सिख दंगों के लिए कांग्रेस को दोषी करार दे रही है, उस वक्त कांग्रेस बीजेपी पर आरोप लगा रही थी कि वह देश के टुकड़े करने वालों का साथ दे रही है. कर्नाटक के शिमोगा की एक रैली में राजीव गांधी ने कहा था, ‘बीजेपी न जाने क्यों देश को तोड़ने की बात करने वालों का साथ दे रही है. फिर चाहे वह सीपीआईएम हो या अकाली दल.’

राजीव गांधी के इस बयान का उस वक्त कितना खतरनाक मतलब था, इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं जैसे कोई राजनीतिक दल आज कश्मीर में सैयद अली शाह गिलानी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतर जाए.

फिर एक बड़ी भूमिका में नजर आएंगेे गहलोत, आलाकमान ने सौंपी बड़ी जिम्मेदारी

इस बार का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए करो या मरो जैसा है. इसी के चलते सियासत के जादूगर और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनावी परिणाम आने से पहले कांग्रेस आलाकमान ने एक और अहम जिम्मेदारी दी है. राहुल गांधी ने खास टास्क देते हुए गहलोत को यूपीए के दलों और अन्य विपक्षी दलों से बातचीत करते हुए उन्हें साधने की जुगत में लगा दिया है. गहलोत के साथ कोषाध्यक्ष अहमद पटेल को भी इस काम में शामिल किया है. लिहाजा गहलोत ने दिल्ली में दो दिन डेरा डालते हुए इस रणनीति पर काम शुरु कर दिया है. हालांकि गहलोत अब जयपुर लौट आए हैं लेकिन फोन के जरिए लगातार अन्य दलों के प्रमुख नेताओं से संपर्क में बने हुए हैं.

दिल्ली में गहलोत ने अहमद पटेल से पहले हर राज्य के संभावित परिणाम पर मंत्रणा की. उसके बाद जोधपुर हाउस में कईं अन्य दलों के नेताओं से गुप्त मुलाकात भी की. बता दे कि कर्नाटक और गुजरात सहित कई राज्यों में गहलोत संकटमोचक की भूमिका में पार्टी के लिए उभरकर सामने आए थे, जिनकी बदौलत उन्हें फिर से राजस्थान का मुख्यमंत्री का दायित्व ​सौंपा गया.

केंद्र में कांग्रेस की संभावित सरकार बनाने के आधार में जुटे गहलोत
दिल्ली में अहमद पटेल से चर्चा करने के बाद चाणक्य गहलोत यूपीए सरकार बनाने के आंंकड़े पर काम में जुट गए हैं. गहलोत सहित कांग्रेस के कद्दावर नेताओं का मानना है कि बीजेपी इस बार केवल 200 सीटें ही जीत पाएगी. ऐसे में यूपीए के अन्य सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई जा सकती है. सहयोगी दलों की सीटें कम पड़ने पर गैर यूपीए-एनडीए दल या फिर एनडीए के साथ वाली पार्टियों को कैसे तोड़ा जाए, इस कार्य में सियासी जादूगर का अनुभव और सहयोग लिया जाए. अगर कांग्रेस की उम्मीदों के तहत बीजेपी की गाड़ी 200 सीटों पर अटक जाती है तो फिर गहलोत जैसे वरिष्ठ नेताओं का लंबा सियासी तजुर्बा और उनकी अन्य दलों से ट्यूनिंग यूपीए की सरकार बनानेे में मददगार साबित होगी.

अगर बीजेपी 225 सीटों का आंकड़ा पार करती है तो नरेंद्र मोदी को पीएम बनने से कैसा रोका जाए, इसमें जादूगर के दांवपेंच बेहद काम आ सकते हैं. गहलोत जैसे वरिष्ठ नेता ही अन्य दलों को बीजेपी के किसी अन्य नेता को पीएम प्रोजेक्ट के लिए आगे करने की शर्त के लिए तैयार करा सकते हैं.

गहलोत के साथ अन्य वरिष्ठ नेता भी देखेंगे काम
अशोक गहलोत के साथ कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं को भी ऐसी जिम्मेदारियां दी गई हैं. गहलोत के साथ अहमद पटेल, एआईसीसी महासचिव केसी वेणुगोपाल, पी.चिदंबरम, मुकुल वासनिक और गुलाम नबी आजाद आदि उन प्रमुख नेताओं की लिस्ट में शामिल हैं जो पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के निर्देश पर चुनावी गणित के आंकड़ों को देख रहे हैं. गहलोत ने दो दिन दिल्ली में नेताओं के साथ बंद कमरे में बैठक करते हुए गहनता से हर राज्य की लोकसभा सीटों के संभावित परिणाम को लेकर फीडबैक जुटाया है. वैसे भी गहलोत के राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं से अच्छे रिश्ते जगजाहिर हैं.

कर्नाटक-गुजरात में गहलोत ने दिखाया था जलवा
बताया जा रहा है कि कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद जेडीएस को देने का आईडिया अशोक गहलोत ने ही दिया था. इस पर आलाकमान ने उन्हें फ्री हैंड दे दिया. उसके बाद गहलोत ने कर्नाटक में कई दिनों तक डेरा डालते हुए कांग्रेस के समर्थन से जेडीएस की सरकार बना डाली. उससे पहले गुजरात के प्रभारी रहते हुए उन्होंने पीएम मोदी के गृहराज्य में मजबूती से विधानसभा चुनाव लड़ते हुए एक बार तो बीजेपी के छक्के छुड़ा दिए थे. यह गहलोत की रणनीति का ही कमाल था कि कांग्रेस 80 सीटों तक पहुंच गई. उसके बाद से गहलोत आलाकमान के लिए एक बार फिर आंखों का तारा बन गए.

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