सैम पित्रोदा के ‘हुआ तो हुआ’ वाले बयान ने देशभर में फिर से 1984 में हुए सिख दंगों की यादों को ताजा कर दिया. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद भड़के उन दंगों ने देश में एक बाद फिर से राजनीति में भूचाल सा ला दिया है. असल में उन दंगों के पीछे एक कहानी है जो अधिकतर लोगों को पता ही नहीं है. 1978 के एसजीपीसी चुनावों में कांग्रेस के नेता ज्ञानी जैल सिंह ने एक भस्मासुर को समर्थन दिया था. यह भस्मासुर कोई और नहीं बल्कि दल खालसा का चीफ जरनैल सिंह भिंडरांवाले था.

जरनैल सिंह भिंडरांवाले कोई देवता नहीं बल्कि उस वक्त भारत को तोड़कर अलग खालिस्तान की मांग कर रहा था. वैसे ही जैसे आज कश्मीर के अलगाववादी कर रहे हैं. 1971 के युद्ध के बाद उसकी अलग खालिस्तान की मांग को पाकिस्तान परोक्ष रूप से समर्थन दे रहा था. देश के भीतर अकाली दल उसके साथ खड़ी थी.

1982 में भिंडरावाले ने हरमंदिर साहिब स्थित सिखों की प्रतिष्ठित संस्था दमदमी टकसाल पर कब्जा कर लिया और अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया. अकाली दल के साथ उसका यह गठबंधन एक तरह से आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पर जनादेश की मांग था जहां अलग खालिस्तान का समर्थन किया गया था.

खैर, वह अपनी इस योजना में सफल नहीं हो सका. हरमंदिर साहब में सेना ने घुसकर भिंडरावाले को खत्म कर दिया. लेकिन भिंडरावाले तो भस्मासुर था और उसके रक्तबीज आज भी मौजूद हैं. इतने सालों बाद भी अलग खालिस्तान की मांग खत्म नहीं हुई है. आज भी सिखों का एक वर्ग ऐसा है जो भिंडरावाले को ‘संत’ मानता है. उस वक्त भिंडरावाले को खत्म करने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी.

दिल्ली में 1984 का सिख विरोधी दंगा इसी पृष्ठभूमि में हुआ था. आप कल्पना कर सकते हैं लोगों के मन-मानस में सिखों के प्रति कितना गुस्सा रहा होगा. अगर आज कश्मीर के अलगाववादियों के खिलाफ इतना गुस्सा है तो इससे कई गुना ज्यादा गुस्सा उस वक्त सिख अलगाववादियों के खिलाफ था. इसकी वजह रही कि सिखों से किसी को उम्मीद नहीं रही थी कि वो देश को तोड़ने की बात करेंगे.

इसी दबे हुए गुस्से को हवा दे दी इंदिरा गांधी की हत्या ने. दिल्ली में सिखों का कत्लेआम हुआ, ये बात सही है लेकिन इस परिस्थिति के लिए सिखों का एक वर्ग भी जिम्मेदार था. क्रिया प्रतिक्रिया का ये दौर करीब डेढ़ दशक तक चलता रहा. बाद के दिनों में एक सिख पुलिसवाले ने ही पंजाब से इस खालिस्तानी आतंकवाद को खत्म करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई, ये भी उतना ही सच है.

सिख दंगों का घोषित परिणाम ये हुआ कि देशभर में सिख अलगाववाद खत्म हो गया. वहीं अघोषित परिणाम ये हुआ कि चौरासी के चुनाव में राजीव गांधी को अभूतपूर्व बहुमत मिला. तीन चौथाई सीटें कांग्रेस को मिली. यह फायदा कुछ वैसा ही था जैसे 2002 के दंगों का फायदा आज तक मोदी को मिल रहा है. बात कड़वी है लेकिन सच्चाई यही है. अगर गुजरात का मुस्लिम विरोधी दंगा क्रिया की प्रतिक्रिया थी तो दिल्ली का सिख विरोधी दंगा भी क्रिया की प्रतिक्रिया ही थी. दोनों जगहों पर सामाजिक प्रतिक्रिया मुखर हुई जिसका राजनीतिक दलों ने अपने-अपने लाभ के मुताबिक समर्थन या विरोध किया.

खैर… वो इतिहास का ऐसा काला अध्याय है जिसके पन्ने पलटने से कुछ हासिल नहीं होगा. लेकिन आज राजनीतिक रूप से जो बीजेपी सिख दंगों के लिए कांग्रेस को दोषी करार दे रही है, उस वक्त कांग्रेस बीजेपी पर आरोप लगा रही थी कि वह देश के टुकड़े करने वालों का साथ दे रही है. कर्नाटक के शिमोगा की एक रैली में राजीव गांधी ने कहा था, ‘बीजेपी न जाने क्यों देश को तोड़ने की बात करने वालों का साथ दे रही है. फिर चाहे वह सीपीआईएम हो या अकाली दल.’

राजीव गांधी के इस बयान का उस वक्त कितना खतरनाक मतलब था, इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं जैसे कोई राजनीतिक दल आज कश्मीर में सैयद अली शाह गिलानी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतर जाए.

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