राजस्थान में बीजेपी के अध्यक्ष मदन लाल सैनी का सोमवार शाम निधन हो गया. 76 साल के सैनी कई दिनों से बीमार थे. पिछले शुक्रवार को उन्हें इलाज के लिए दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स ले जाया गया था. उससे पहले जयपुर के एक निजी अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. जानकारी के मुताबिक उन्हें फेफड़ों में इंफेक्शन की शिकायत थी. सैनी के निधन के बाद बीजेपी के प्रदेशाध्यक्ष का पद खाली हो गया है. पार्टी नेतृत्व जल्द ही किसी नेता को राजस्थान में पार्टी का कप्तान बनाएगा.
वैसे तो मदन लाल सैनी के निधन से पहले ही सियासी गलियारों में यह चर्चा चल रही थी कि उनकी जगह किसी दूसरे नेता को राजस्थान में बीजेपी की कमान सौंपी जाएगी, लेकिन अब पार्टी के सामने इस बारे में फैसला लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है. सूत्रों के अनुसार 5 जुलाई को संसद में बजट पेश होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह राजस्थान में प्रदेशाध्यक्ष का नाम फाइनल करेंगे. यह जरूर तय माना जा रहा है कि नया प्रदेशाध्यक्ष संघ पृष्ठभूमि से होगा.
बीजेपी के जिन नेताओं का नाम प्रदेशाध्यक्ष के लिए चर्चा में है, उनमें सतीश पूनिया का नाम सबसे ऊपर माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने राजस्थान में बीजेपी की कमान सतीश पूनिया के हाथों में सौंपने के बारे में मन बना लिया है. पूनिया वर्तमान में आमेर से विधायक हैं और संगठन में उनके पास प्रदेश प्रवक्ता का जिम्मा है. पूनिया संघ पृष्ठभूमि से हैं और उन्हें संगठन में काम करने का लंबा अनुभव है. वे लगातार चार बार बीजेपी के प्रदेश महामंत्री रहे हैं.
पूनिया को लेकर बीजेपी के भीतर यहां तक चर्चा चल रही है कि मोदी-शाह ने उन्हें प्रदेशाध्यक्ष बनाने का फैसला मदन लाल सैनी के निधन से पहले ही ले लिया था. प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए सतीश पूनिया का नाम सोशल इंजीनियरिंग के तहत सामने आया है. पहले इस पद के लिए जयपुर ग्रामीण सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौड़ और उप नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ के नाम पर मंथन हो रहा था, लेकिन जोधपुर सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत के कैबिनेट मंत्री बनने के बाद ये दोनों रेस में पिछड़ गए. पार्टी नेतृत्व का मानना है कि शेखावत को कैबिनेट मंत्री बनाने के बाद किसी राजपूत नेता को प्रदेशाध्यक्ष बनाना सोशल इंजीनियरिंग के हिसाब से ठीक नहीं रहेगा.
कोटा सांसद ओम बिड़ला के लोकसभा अध्यक्ष और बीकानेर सांसद अर्जुन मेघवाल के राज्यमंत्री बनने के बाद सतीश पूनिया का नाम तेजी से उभरकर सामने आया. हालांकि पूनिया जिस जाट बिरादरी से आते हैं उसे भी मोदी के मंत्रिमंडल में जगह मिली है. बाड़मेर सांसद कैलाश चौधरी को राज्यमंत्री बनाया गया है, लेकिन प्रदेश में जाटों का बाहुल्य देखते हुए इसे पर्याप्त नहीं माना जा रहा है. आपको बता दें कि जाट संख्या के हिसाब से राजस्थान की सबसे बड़ी जाति है. इसका प्रदेश की 70 से 80 विधानसभा सीटों पर दबदबा है. यदि पूनिया को प्रदेशाध्यक्ष बनाया जाता है तो यह पहला मौका होगा जब कोई जाट नेता राजस्थान में बीजेपी की कमान संभालेगा.
हालांकि एक चर्चा यह भी है कि बीजेपी किसी जाट को प्रदेशाध्यक्ष बनाकर राजपूतों की नाराज नहीं करना चाहेगी. इस स्थिति में किसी ब्राह्मण नेता को मौका दिया जा सकता है. यदि इस दिशा में विचार होता है तो अरुण चतुर्वेदी का नाम सबसे ऊपर है. संघ पृष्ठभूमि से जुड़े चतुर्वेदी पहले भी प्रदेशाध्यक्ष रहे हैं. वे पूर्ववर्ती वसुंधरा सरकार में मंत्री भी रहे हैं. किसी ब्राह्मण नेता के प्रदेशाध्यक्ष बनने की संभावना इसलिए भी है, क्योंकि परंपरागत रूप से बीजेपी की समर्थक मानी जानी वाली इस जाति को मोदी के मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली है.
एक कयास यह भी लगाया जा रहा है कि पार्टी नेतृत्व किसी बड़ी जाति के नेता को प्रदेशाध्यक्ष बनाने की बजाय किसी अल्पसंख्यक जाति के नेता पर दांव खेल सकती है. इस स्थिति में वासुदेव देवनानी को मौका मिल सकता है. दलित चेहरे के रूप में मदन दिलावर का नाम भी चर्चा में है. देवनानी और दिलावर संघ पृष्ठभूमि के नेता हैं. दोनों वर्तमान में विधायक हैं और पूर्व में मंत्री रहे हैं. संभावना यह है कि मोदी और शाह इन नामों में से ही किसी एक नाम पर मुहर लगाएंगे, लेकिन आखिरी समय में कोई चौंकाने वाला नाम भी सामने आ सकता है. वैसे भी मोदी-शाह को लीक से हटकर फैसले लेने का शगल है.
यह जरूर तय है कि प्रदेशाध्यक्ष का फैसला मोदी-शाह ही करेंगे. आपको बता दें कि पिछले साल दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेशाध्यक्ष पद पर तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और पार्टी नेतृत्व के बीच जबरदस्त खींचतान देखने को मिली थी. पिछले साल अप्रेल में यह घटनाक्रम उस समय सामने आया जब दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उप चुनाव में बीजेपी की करारी हार हुई थी. इस हार की गाज वसुंधरा राजे के ‘यस मैन’ माने जाने वाले अशोक परनामी पर गिरी. उन्होंने अमित शाह के कहने पर 16 अप्रेल को प्रदेशाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.
अशोक परनामी के इस्तीफा देने के बाद यह माना जा रहा था कि एकाध दिन में राजस्थान में भाजपा को नया कप्तान मिल जाएगा. इसी बीच खबर सामने आई कि पार्टी नेतृत्व ने गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम तय कर दिया है. शेखावत का नाम सामने आते ही वसुंधरा खेमा सक्रिय हो गया. उन्होंने यह कहकर इस नाम का विरोध किया कि इससे जातिगत समीकरण गड़बड़ा जाएंगे. पार्टी के वरिष्ठ नेता देवी सिंह भाटी ने तो सार्वजनिक रूप से ही कह दिया कि गजेंद्र सिंह शेखावत की छवि शुरू से ही जाट विरोधी रही है. यदि उन्हें प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया तो जाट भाजपा को वोट नहीं देंगे.
पार्टी नेतृत्व को इस जातीय गणित को समझाने के लिए वसुंधरा सरकार के कई मंत्रियों ने दिल्ली तक परेड की. शुरूआत में तो अमित शाह ने वसुंधरा राजे के इस अप्रत्याशित रुख पर सख्त ऐतराज जताया. उन्होंने वसुंधरा के दूत बनकर दिल्ली आए कई मंत्रियों से मिलने तक से इनकार कर दिया. उन्होंने प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना, सह प्रभारी वी. सतीश व संगठन महामंत्री चंद्रशेखर के जरिये यह संदेश भिजवाया कि जब भैरों सिंह शेखावत से जाट नाराज नहीं हुए तो गजेंद्र सिंह शेखावत से क्यों होंगे, लेकिन वसुंधरा ने इस तर्क को तवज्जो नहीं दी.
मामले को सुलझाने के लिए अमित शाह ने वसुंधरा राजे को दिल्ली तलब किया. जब पहले दौर की बातचीत में कोई रास्ता नहीं निकला तो ओम माथुर ने मध्यस्ता की. चर्चा के मुताबिक वसुंधरा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने का समय मांगा था, लेकिन उन्होंने ओम माथुर से मिलने का संदेश भेज दिया. बैठकों के कई दौर चले मगर राजे के हठ की वजह से गजेंद्र सिंह शेखावत के नाम पर सहमति नहीं बन पाई जबकि दूसरे किसी नाम पर पार्टी नेतृत्व तैयार नहीं हुआ. चूंकि विधानसभा चुनाव में छह महीने से भी कम का समय बचा था इसलिए मोदी-शाह ने वसुंधरा के जिद के आगे समर्पण करते हुए गजेंद्र सिंह शेखावत के नाम को ‘कोल्ड स्टोरेज’ में डाल दिया और मदन लाल सैनी अध्यक्ष बने.
वसुंधरा की इस हठ से मोदी-शाह से खासे नाराज हुए थे. ये दोनों उस समय राजे के सामने इसलिए झुके, क्योंकि वे मुख्यमंत्री थीं और ज्यादातर विधायक उनके समर्थक थे. लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है. विधानसभा चुनाव में सत्ता से बेदखल होने के बाद वसुंधरा राजे बीजेपी में हाशिए पर है. उनके पास संगठन में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का ओहदा जरूर है मगर पार्टी में उनका रसूख कितना कम हो गया है इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव के समय उनकी नाराजगी की बावजूद बीजेपी ने हनुमान बेनीवाल की पार्टी से गठबंधन कर लिया और दीया कुमारी को राजसमंद से टिकट दे दिया.
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद भी राजे को किनारे करने का सिलसिला जारी है. उनसे अदावत रखने वाले नेताओं को चुन-चुनकर ताकतवर बनाया जा रहा है. जिन गजेंद्र सिंह शेखावत को वसुंधरा ने प्रदेशाध्यक्ष नहीं बनने दिया वे मोदी के मंत्रिमंडल में राजस्थान के इकलौते कैबिनेट मंत्री हैं. जिन ओम बिरला को कोटा से टिकट देने का राजे ने विरोध किया, वे लोकसभा के अध्यक्ष बन चुके हैं. इस स्थिति में यह लगता नहीं है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह प्रदेशाध्यक्ष के मामले में वसुंधरा राजे से कोई राय-मशविरा भी करेंगे. अब तो वही मुमकिन होगा जो मोदी-शाह चाहेंगे.