प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बंपर बहुमत हासिल करने के बाद एनडीए के सांसदों को सदाचरण की सलाह दी. यह बहुत अच्छी पहल है. पर क्या सांसद क्षेत्र विकास निधि के रहते इस तरह की कोई भी नसीहत कभी कारगर हो पाएगी? दरअसल, अधिकतर सांसदों की छवि को खराब करने में इस फंड का बड़ा योगदान है. आम लोग भी यह जानते हैं कि सांसद फंड में कैसी लूट होती है. इससे होने वाले काम कितने घटिया होते हैं. कुछ ही सतर्क सांसद हैं जो गुणवत्ता पर ध्यान रख पाते हैं, क्योंकि वे ‘नजराना’ नहीं लेते. पर अपवादों से तो देश नहीं चलता.
सांसद फंड के उपयोग में लगातार जारी भ्रष्टाचार का प्रतिकूल असर प्रशासन की स्वच्छता पर भी पड़ रहा है. इस फंड के दुरुपयोग व बदनामी के डर से कुछ राज्यसभा सदस्य आमतौर पर अपना पूरा फंड किसी विश्वविद्यालय या फिर प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान को दे देते हैं. वहां किसी तरह के भ्रष्टाचार की गुंजाइश बहुत ही कम होती है. रहती भी है, तो भी उससे संबंधित सांसद का कुछ लेना-देना नहीं होता.
सांसद फंड के अधिकतर मामलों में कमीशन और रिश्वत की दर तय है. आम चर्चा है कि बिहार में तो 40 प्रतिशत राशि संबंधित सरकारी ऑफिस ही ले लेता है. बाकी में भी बंदरबांट होती है. अपवादों की बात और है. इसीलिए सांसद फंड से निर्मित संरचनाएं सबसे कम टिकाऊ होती हैं. सबके अपने-अपने ठेकेदार हैं. वे उनके राजनीतिक कार्यकर्ता की भी भूमिका निभाते हैं. वे अधिकतर मामलों में तपे-तपाए कार्यकर्ताओं को ‘बेदखल’ कर देते हैं.
यह फंड राजनीति में वंशवाद को आगे बढ़ाने में भी काफी मददगार है. वंशवादियों के लिए फंड के ठेकेदार ही कार्यकर्ता हैं. यदा—कदा राजनीतिक कार्यकर्ता तो पार्टी का टिकट लेकर प्रत्याशी हो जाते हैं. इसलिए कई सांसद ऐसा कोई ‘खतरा’ उपस्थित होने ही नहीं देते. पटना हाईकोर्ट ने 2003 में कहा था कि सांसद-विधायक कोटे का ठेका अपने रिश्तेदारों को दिया जाता है. 2001 में सीएजी ने अपनी जांच में इस फंड में गड़बड़ी को पकड़ा था. विधायक निधि की कमीशनखोरी के आरोप में 2014 में बिहार के एक विधायक के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया था.
चिंताजनक स्थिति यह है कि इस फंड के भ्रष्टाचार में नए-नए सेवा में आए अधिकतर आईएएस अफसर भी शामिल हो जाते हैं. उन्हें पदस्थापन के उसी स्तर पर ऐसी लत लग जाती है जो सेवाकाल के आखिर तक बनी रहती है. हालांकि अफसरों में भी अपवाद है. यानी सांसद फंड देश के ‘स्टील फ्रेम’ प्रशासन और उच्च स्तर की राजनीति में भ्रष्टाचार के रावण की नाभि का अमृत कुंड बन चुका है.
खुद प्रधानमंत्री मोदी 2014 से ही समय-समय पर प्रशासन के भ्रष्टाचार पर चिंता प्रकट करते रहे हैं. उन्हें चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के इस बड़े स्रोत पर भी गौर करें. ऐसी ही कई बातों पर विचार करने के बाद वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग ने 2011 में ही इस सांसद फंड को समाप्त करने की सिफारिश की थी. उससे पहले भी कई महत्वपूर्ण राजनीतिक व गैर राजनीतिक हस्तियों ने इसे खत्म करने की सिफारिश की थी.
यहां तक कि 2007 में लालू प्रसाद ने भी कहा था कि ‘सांसद-विधायक फंड समाप्त कर देना चाहिए. सांसद-विधायक फंड की ठेकेदारी के झगड़े के कारण ही हमारी सत्ता छिन गई.’ 2005 में सांसद फंड से रिश्वत लेने के आरोप में एक राज्यसभा सदस्य की सदस्यता भी जा चुकी है. खैर वे स्टिंग आपरेशन में पकड़े गए थे. सब तो स्टिंग में पकड़े नहीं जाते. इस देश की राजनीति स्टिंग के बाद ही कार्रवाई करने को मजबूर होती है, ऐसे नहीं. जबकि सबको सब बात का पता है.
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्रित्वकाल में भाजपा के 40 सांसद उनसे इस गंभीर मुद्दे पर मिले थे. उन्होंने आग्रह किया कि आप सांसद फंड बंद कर दीजिए, क्योंकि इसके कारण भाजपा के अनेक तपे-तपाए कार्यकर्ता अब सांसद फंड के ठेकेदार बन रहे हैं. नतीजतन उनकी आंखों में अब सेवा भाव नहीं बल्कि वाणिज्यिक भाव देखे जा रहे हैं. इस बात से वाजपेयी जी भी चिंतित हो उठे. उन्होंने इस विवादास्पद फंड को बंद करने पर विचार शुरू कर दिया.
इस बीच बीजेपी के ही कुछ फंड समर्थक सांसदों को इसकी भनक लग गई. दिल्ली के तब के एक चर्चित सांसद के नेतृत्व में करीब सौ सांसद प्रधानमंत्री से मिले. उन्होंने इसकी राशि बढ़ाने की गुजारिश की. वाजपेयी उनके दबाव में आ गए. यह राशि 2003 में एक करोड़ रुपये सालाना से दो करोड़ रुपए कर दी गई. जब अटल सरकार इस फंड की राशि बढ़ा रही थी तो राज्य सभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मनमोहन सिंह ने उसका सख्त विरोध करते हुए सरकार से कहा था कि ‘यदि आप चीजों को इस तरह होने दीजिएगा तो जनता नेताओं और लोकतंत्र में विश्वास खो देगी.’
यह बात अलग है कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद 2011 में सांसद फंड को बढ़ाकर पांच करोड़ कर दिया. इस तरह फंड प्रेमी सांसदों की इच्छाएं बढ़ती चली गईं. कुछ साल पहले कांग्रेस सांसद और संसद की लोक लेखा समिति के अध्यक्ष केवी थाॅमस ने कहा कि ‘सांसद निधि 5 करोड़ से बढ़ाकर 50 करोड़ रुपये कर देने से सांसद आदर्श ग्राम योजना को कार्यान्वित करने में सुविधा होगी.’
नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद भी कुछ अपवादों को छोड़कर आमतौर पर सरकारी और राजनीतिक भ्रष्टाचार में कोई खास कमी नहीं आई. सर्वोच्च राजनीतिक कार्यपालिका के स्तर पर भले अंतर आया हो. यह अच्छी बात हुई कि नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में इस फंड में कोई वृद्धि नहीं की है जबकि 50 करोड़ रुपये की मांग लगभग सर्वदलीय है. लगता है कि प्रधानमंत्री इस फंड में व्याप्त अनियमितताओं से मोटा-मोटी परिचित हैं.
सांसद फंड की शुरुआत भी विवादास्पद स्थिति में 1993 में हुई थी. तब पीवी नरसिंह राव की सरकार अल्पमत में थी. क्या यह संयोग है कि जब-जब सरकारें अल्पमत में थीं या मिलीजुली थीं तभी फंड मिला और बढ़ा. बहुमत वाली मोदी सरकार ने बढ़ाने से इनकार कर दिया. राव सरकार ने इस फंड की शुरुआत जानबूझकर उस समय की जब उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह विदेश यात्रा पर थे.
फंड की शुरूआत की जल्दीबाजी देखिए. संयुक्त संसदीय समिति की अंतरिम रिपोर्ट 23 दिसंबर 1993 को 3 बजकर 43 मिनट पर संसद में पेश की गई. उसमें यह सिफरिश थी कि प्रत्येक सांसद को हर साल एक करोड़ रुपये का कोष दिया जाए ताकि उससे वे अपने क्षेत्र का विकास कर सके. सरकार ने उसी दिन पांच बजकर 50 मिनट पर उस रपट को स्वीकार कर लेने की सदन में घोषणा कर दी. लगता है कि वित्त मंत्री के स्वदेश लौट आने से पहले जल्दी-जल्दी यह काम कर लेना था.
1996 में मनमोहन सिंह ने कहा भी था कि यदि मैं दिल्ली में होता तो उस फंड को शुरू ही नहीं होने देता. पर इस फंड को लेकर सर्वदलीय दबाव की पराकाष्ठा देखिए. जब मनमोहन सिंह खुद प्रधानमंत्री बने तो कुछ साल तक तो उन्होंने प्रतिरोध किया, लेकिन अंततः उन्होंने फंड को बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये सालाना कर दिया. इस फंड के प्रति अधिकतर सांसदों के भारी आग्रह के कारण प्रधान मंत्रियों को लगातार दबाव में आना पड़ा.
मगर मौजूदा सरकार तो अल्पमत में नहीं है. वह फंड समाप्त करने का साहसिक कदम उठा सकती है. यह प्रशासनिक सुधार का हिस्सा होगा. अभी तो मोदी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं. कोई एमपी उनके इस कदम का विरोध करने की हिम्मत भी नहीं कर पाएगा. यदि प्रशासन व राजनीति में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े स्रोत पर हमला करना हो तो प्रधानमंत्री इस फंड को यथाशीघ्र समाप्त करें. उसी तेजी से जिस तेजी से 1993 में इसकी स्वीकृति दी गई थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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