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नरेंद्र मोदी फिर बने भारत के प्रधानमंत्री, दूसरी बार ली पद की शपथ

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नरेंद्र मोदी ने आज राष्ट्रपति भवन में फिर से एक बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें पद और गोपनियता की शपथ दिलाई. इस दौरान पीएम नरेंद्र के साथ कई सांसदों ने भी मंत्री पद और गोपनियता की शपथ ग्रहण की.

शपथ ग्रहण में पीएम नरेंद्र मोदी के कहे गए शब्द…

‘मैं नरेंद्र दामोदर मोदी ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा. मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा. मैं संघ के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा.

‘मैं नरेंद्र दामोदर मोदी अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूँ कि जो विषय संघ के मंत्री के रूप में मेरे विचार के लिए लाया जाएगा अथवा मुझे ज्ञात होगा, उसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को, तब के सिवाय जबकि ऐसे मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन के लिए ऐसा करना अपेक्षित हो, मैं प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संसूचित या प्रकट नहीं करूंगा.’

हरियाणा: जाट और नॉन जाट पर टिकी प्रदेश की राजनीति

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लोकसभा चुनाव में मिली भारी जीत के बाद बीजेपी के हौंसले सातवें आसमान पर हैं. उनका अगला टार्गेट साल के अंत में होने वाले हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव है. यह भी सूचना है कि चुनाव आयोग इन राज्यों के साथ जम्मु-कश्मीर में भी विधानसभा के चुनाव करवा सकता है.

लोकसभा चुनाव में इन सभी राज्यों में बीजेपी ने विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया है. लेकिन आने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी के साथ अन्य दलों की इन राज्यों में क्या संभावना है, आगे इसी पर विस्तृत चर्चा करेंगे…

जहां चौपाल के चूल्हों पर राजनीति की रोटियां सेकी जाती है और हुक्कों की गुड़गुड़ाहट पर उम्मीदवारों की तकदीर का फैसला होता है. हम उसी हरियाणा की बात कर रहे हैं. हरियाणा में साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं. प्रदेश की सत्ता बीजेपी के मनोहर लाल खट्टर के हाथों में है. इस विधानसभा चुनाव में खट्टर की असली परीक्षा होने वाली है.

खट्टर सरकार के कार्यकाल के दौरान कई बार ऐसे मौके आए जब प्रदेश के हालात उनकी पकड़ से बाहर हो गए. चाहे 2016 का उग्र जाट आंदोलन हो या गुरमीत राम रहीम को सजा मिलने के बाद बिगड़े हालात, जिन्होंने खट्टर की किरकिरी कराई. कई बार उनको मुख्यमंत्री पद से हटाने की खबरें नेशनल मीडिया की सुर्खियां बनी. हालांकि हर बार इन खबरों को औंधे मुंह गिरना पड़ा क्योंकि खट्टर पर पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह का हाथ था.

खट्टर ने पहले जींद के उपचुनाव और उसके बाद लोकसभा चुनाव में स्वयं के नेतृत्व को साबित किया है. पार्टी ने उनके नेतृत्व में प्रदेश की सभी 10 सीटों पर जीत दिलाई. बीजेपी ने इन चुनावों में कांग्रेस के मजबूत किले रोहतक को भी ढहा दिया. रोहतक से बीजेपी के अरविंद शर्मा ने कांग्रेस नेता और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र दीपेन्द्र हुड्डा को मात दी. वहीं भूपेन्द्र हुड्डा खुद भी सोनीपत लोकसभा से रमेश कौशिक से चुनाव हार बैठे.

लोकसभा चुनाव में मिली भारी कामयाबी के बाद बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में 70 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है. लक्ष्य के लिए रखी गई सीटों का यहां आंकड़ा ही इस बात की तस्दीक कर रहा है कि बीजेपी इस समय प्रदेश में जबरदस्त आत्मविश्वास से लबरेज है. उसकी इस आत्मविश्वास की वजह प्रदेश में जाट आंदोलन के बाद बना जाट और गैर जाट माहौल है.

इस समय हरियाणा के लोग दो धड़ों में बंटे हुए हैं. एक धड़ा जाट समुदाय का है जो पूर्ण रुप से खट्टर सरकार के खिलाफ है. इसके उलट पूरा हरियाणा मनोहर लाल खट्टर के पक्ष में लामबंद है. लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव भी अगर जाट और नॉन जाट में बंट गया तो यहां बीजेपी के ‘मिशन 70’ के साकार होने की पूर्ण संभावना होगी.

वहीं कांग्रेस हरियाणा में अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. पहले तो 2014 में उसके हाथ से हरियाणा की सत्ता फिसल गई. हार भी इतनी बुरी हुई कि सत्ता में रही कांग्रेस प्रदेश में तीसरे दर्जे की पार्टी बन गई. पांच साल गुजरने के बाद भी कांग्रेस की हालात आज भी खस्ताहाल है.

प्रदेश कांग्रेस वर्तमान में गहरी गुटबाजी में उलझी हुई है. पार्टी के नेता पार्टी को जिताने के लिए नहीं, दूसरे धड़े के नेताओं को हराने में मेहनत करते दिख रहे हैं. हरियाणा कांग्रेस के नेताओं का समय केवल एक-दूसरे को कमजोर करने में ही गुजरता है न कि पार्टी को मजबूत करने में. लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद पार्टी प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर का जाना तय है. उनको सिरसा लोकसभा क्षेत्र से बीजेपी उम्मीदवार सुनीता दुग्गल से करारी हार का सामना करना पड़ा था. पार्टी के कई नेता समय-समय पर उनके खिलाफ नाराजगी जता चुके हैं. तंवर के स्थान पर पार्टी हरियाणा में किसी जाट चेहरे को अध्यक्ष बना सकती है.

कांग्रेस की विधानसभा चुनाव की आखिरी आस यही है कि किसी भी प्रकार से चुनाव जाट और नॉन जाट के मुद्दे पर न हो. अगर यह मुद्दा विधानसभा चुनाव में चल गया तो कांग्रेस का प्रदेश में सूपड़ा साफ होना तय है.

प्रदेश की सियासत में अहम हिस्सेदारी रखने वाली ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) वर्तमान में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. पार्टी में टूट के बाद पार्टी के हालात बहुत बुरे हैं. हाल में हुए लोकसभा चुनाव में उसके सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई. पार्टी के युवा चेहरे दुष्यंत चौटाला के पार्टी छोड़ने के बाद इनेलो के हालत बहुत खराब हो गए हैं. आने वाले विधानसभा चुनाव यह भी तय कर देंगे कि हरियाणा में इनेलो का अस्तित्व रहेगा या वो एक अध्याय बन कर रह जाएगी.

इनेलो का साथ छोड़कर नई पार्टी बनाने वाले दुष्यंत चौटाला की भी सियासी परीक्षा इन विधानसभा चुनाव में होने जा रही है. उनके लिए ये चुनाव ‘करो या मरो’ की स्थिति वाले होंगे. क्योंकि इस बार जजपा को लोकसभा चुनाव में कोई खास कामयाबी नहीं मिली है. खुद दुष्यंत को हिसार लोकसभा क्षेत्र में बीजेपी के बृजेंद्र सिंह से हार का सामना करना पड़ा. वहीं पार्टी के अन्य प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई. जजपा-आप का गठबंधन भी प्रदेश में पार्टी के प्रदर्शन को नहीं सुधार पाया. आने वाले समय में यह गठबंधन कितना लंबा चलेगा, इस पर भी सबकी निगाहें हैं.

हरियाणा की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को अगर बारिकी से देखा जाए तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि बीजेपी अन्य दलों की तुलना में काफी आगे दिख रही है. विपक्षी दलों की उम्मीद तो सिर्फ इसी बात पर टिकी है कि चुनाव में जाट और नॉन जाट मुद्दा न बन जाए.

पूर्व आईएएस और साइकिल से संसद जाने वाले मेघवाल फिर बने मंत्री

बीकानेर सांसद अर्जुन राम मेघवाल इस बार भी मोदी सरकार की कैबिनेट में शामिल किए जा रहे हैं. बीकानेर से ही ताल्लुक रखने वाले बीजेपी सांसद अर्जुन राम मेघवाल जमीन से जुड़े हुए नेता हैं. अर्जुन मेघवाल की बोली में बीकानेरी मिठास और पहनावे में राजस्थान की झलक दिखती है. मेघवाल पिछली बार पगड़ी बांध साइकिल पर सवार होकर शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचे थे. मेघवाल को जैसे ही मंत्री पद के लिए फोन आया घर-परिवार सहित पूरे बीकानेर में खुशी का माहौल हो गया है.

आईएएस की नौकरी छोड़ आए थे सियासत में
राजनीति में शामिल होने के लिए अर्जुन मेघवाल ने भारतीय प्रशासनिक सेवा से वीआरएस लिया था. इसके बाद लोकसभा चुनाव 2009 में बीकानेर लोकसभा सीट से वे पहली बार बीजेपी की टिकट पर सांसद चुने गए. 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें 16वीं लोकसभा के लिए बीकानेर सीट से फिर जीत मिली. अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान वे लोकसभा में बीजेपी के मुख्य सचेतक रहे.

लोकसभा के अध्यक्ष ने भी अर्जुन राम मेघवाल को लोक समिति के अध्यक्ष के रूप में नामित किया. मेघवाल को साल 2016 में वित्त राज्य मंत्री बनाया गया था, जिसके बाद जल संसाधन राज्य मंत्री के रूप में भी उनका कार्यकाल रहा. अर्जुन मेघवाल लगातार तीसरी बार बीकानेर से सांसद चुने गए हैं. मेघवाल के संघ से भी अच्छे रिश्ते रहे हैं. हालांकि वसुंधरा राजे से उनका 36 का आंकड़ा है.

और भी हैं मेघवाल से जुड़े कईं किस्से
बीकानेर सांसद अर्जुन राम मेघवाल का बचपन संघर्षशील रहा. जिले के किशमीदेसर गांव के एक पारंपरिक बुनकर परिवार में जन्मे मेघवाल की शादी मात्र 13 साल की उम्र में पानादेवी से हो गई थी. पिता के साथ बुनकर के रूप में काम करते हुए भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी. बीकानेर के राजकीय डूंगर कॉलेज से उन्होंने बीए की डिग्री पाई और उसी संस्थान से एलएलबी और स्नातकोत्तर डिग्री भी हासिल की.

पढ़ाई पूरी करने के बाद अर्जुन राम मेघवाल ने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी शुरू की. उन्हें भारत डाक एवं तार विभाग में टेलीफोन ऑपरेटर का पद मिला. इस दौरान उन्होंने टेलीफोन ट्रैफिक एसोसिएशन का चुनाव लड़ा, जिसमें वे महासचिव चुने गए. टेलीफोन ऑपरेटर के रूप में काम करते हुए मेघवाल ने दूसरे प्रयास में राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास कर ली.

2013 के सर्वश्रेष्ठ सांसद साईकिल से गए थे संसद
अर्जुन राम मेघवाल अभी पहली मोदी सरकार में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प के साथ-साथ संसदीय मामलों के मंत्रालय में केंद्रीय राज्य मंत्री थे. उन्हें वर्ष 2013 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार भी मिल चुका है. लोकसभा चुनाव 2019 में बीकानेर सीट पर बीजेपी के अर्जुन राम मेघवाल ने अपने मौसेरे भाई कांग्रेस प्रत्याशी मदन गोपाल मेघवाल को 264081 मतों से मात दी है.

मेघवाल उस समय चर्चा में आए जब वे बीजेपी के मुख्य सचेतक थे और उन्हें कुछ गिने-चुने सांसदों में शामिल किया गया, जो साइकिल से संसद जाना पसंद करते हैं. शपथ ग्रहण समारोह में राष्ट्रपति भवन भी अर्जुन राम मेघवाल साइकिल से ही पहुंचे थे. साथ ही मेघवाल को राजस्थान के बीकानेर में रॉबर्ट वाड्रा के कथित अवैध भूमि सौदे को प्रकाश में लाने पर भी सम्मान मिल चुका है.

मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शिरकत नहीं करेंगे गहलोत

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बंगाल सीएम ममता बनर्जी और छत्तीसगढ़ सीएम भूपेश बघेल के बाद राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत ने भी नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण में जाने से मना कर दिया है. इतना ही नहीं, गहलोत ने ट्वीट करके बीजेपी पर जमकर निशाना भी साधा है. गहलोत ने ट्वीट करके लिखा कि विपक्ष की सरकारों को अस्थिर करने का प्रयास किया जा रहा है. कर्नाटक, मध्यप्रदेश और बंगाल की सरकार को अस्थिर करने के प्रयास किए जा रहे हैं.

हालांकि गहलोत ने मोदी को दूसरी बार पीएम बनने पर शुभकामनाएं दी हैं. बता दें, नरेंद्र मोदी आज शाम सात बजे दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे. मोदी ने सोनिया और राहुल गांधी सहित तमाम मुख्यमंत्रियों को न्यौता दिया है.

मोदी दूसरी बार होंगे पीएम, राजस्थान में फिर नहीं खुला खाता
प्रदेश की लोकसभा की सभी 25 की 25 सीटें इस बार लगातार दूसरी दफा बीजेपी के खाते में गई हैं. करीब पांच माह पहले प्रदेश में सत्ता में आई कांग्रेस यहां अपना खाता भी नहीं खोल पाई. वहीं कांग्रेस में करारी हार को लेकर उठापटक का दौर जारी है. हार से व्यथित राज्य सरकार के कृषि मंत्री लालचंद कटारिया इस्तीफा दे चुके हैं. हार को लेकर कांग्रेस की प्रदेश कार्यकारिणी ने बुधवार को बैठक भी की थी. दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी लगातार दूसरी बार पीएम पद की शपथ ले रहे हैं.

कांग्रेस में कौन होगा संसदीय दल का नेता?

17वीं लोकसभा में संसद में कांग्रेस किसके नेतृत्व में बीजेपी सरकार पर हमला बोलेगी, इसको लेकर कयासों का दौर शुरु हो गया है. यानि इस बार कांग्रेस संसदीय दल का नेता कौन होगा, इसको लेकर अब कईं नामों पर अटकलें शुरु हो गई हैं. हालांकि राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की जिद्द के चलते इस मसले पर पार्टी में अभी बिल्कुल भी चर्चा नहीं हुई है. सामने आ रहा है कि राहुल गांधी खुद संसदीय दल के नेता बन सकते हैं.

अगर राहुल संसदीय दल के नेता बनते हैं तो फिर दूसरे नामों पर विचार करना ही बेमानी होगा. लेकिन अगर राहुल गांधी संसदीय दल का नेता नहीं बनते है तो फिर कांग्रेस के सामने यह सवाल होगा कि 17वीं लोकसभा में आखिर सदन में यह जिम्मेदारी उठाएगा कौन. क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया, भूपेंद्र सिंह हु्ड्डा, शीला दीक्षित और मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे दिग्गज़ नेता चुनाव हार गए हैं. ऐसे में कांग्रेस के पास अनुभव के मामले में यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, मनीष तिवारी और शशि थरूर जैसे ही नेता बचे हैं जो चुनाव जीत कर आए हैं.

इनके पास अनुभव के साथ-साथ सरकार से भी अच्छे संबंध हैं. हालांकि सोनिया गांधी की सेहत खराब रहती है. ऐसे में वो किसी भी सूरत में संसदीय दल की नेता नहीं बनेंगी. ऐसे में मनीष तिवाड़ी, शशि थरुर और गौरव गोगोई जैसे सांसद संसदीय दल के नेता बन सकते हैं.

शशि थरुर, मनीष तिवाड़ी और गौरव गोगोई ही क्यों

मोदी की सुनामी में कांग्रेस के सारे दिग्गज़ नेता उड़ गए. राहुल गांधी के बाद मनीष तिवाड़ी और शशि थरुर ही कांग्रेस के पास दो मजबूत विकल्प दिख रहे हैं. कांग्रेस के केरल से सबसे अधिक सांसद जीतकर आए हैं. वाकपटु थरूर अंग्रेजी के साथ हिन्दी भी बोल लेते हैं. केंद्रीय राज्यमंत्री रह चुके थरूर को वैश्विक कूटनीति का भी व्यापक अनुभव है. वे लगातार तीसरी बार तिरूअनंतपुरम से लोकसभा के सदस्य चुने गए हैं.

पंजाब से भी कांग्रेस को अच्छी सीटें मिली हैं और मनीष तिवाड़ी पंजाब से सांसद बनकर आए हैं. तिवाड़ी दूसरी दफा एमपी बने हैं और पहले केन्द्र में मंत्री भी रह चुके हैं. तिवाड़ी पार्टी में मीडिया की जिम्मेदारी भी संभाल चुके हैं. तिवाड़ी संंसदीय कार्यप्रणाली संचालन से भी भली-भांति परिचित हैं. इन दोनों के अलावा असम के पूर्व सीएम तरुण गोगोई के बेटे और दूसरी बार सांसद बने गौरव गोगोई के अलावा बंगाल से जीतकर आए अधीर रंजन चौधरी के नाम भी चर्चाओं में हैं.

नेता प्रतिपक्ष के लिए 55 सीट जरूरी

देश में लोकसभा की 543 सीट हैं. नेता प्रतिपक्ष के लिए 55 सीट जरूरी है. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पास 51 सीट है. नियमानुसार लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा प्राप्त करने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को अकेले कम से कम 10 फीसदी सीटें जीतनी होती है.

लोकसभा में कुल 543 सीटों के लिए सीधा चुनाव होता है और 2 एंग्लो-इंडियन समुदाय के लोगों को राष्ट्रपति चुनते हैं. मतलब 545 सीटों वाली लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा प्राप्त करने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को कम से कम 55 सीटें जीतनी जरूरी होंगी. 2014 में भी कांग्रेस को मात्र 44 सीटें प्राप्त हुई थीं. उस समय भी पार्टी को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिला था.

हालांकि, कांग्रेस लोकसभा में सबसे बड़ा विपक्षी दल था. इसलिए केंद्र की एनडीए सरकार कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे को सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता के रूप में सदन की जरूरी बैठकों में बुलाती रही है. मल्लिकार्जुन खड़गे ये कहते हुए इन अहम बैठकों का विरोध करते रहे कि जब तक उन्हें नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं दिया जाता, वह इस तरह की बैठकों में शामिल नहीं होंगे.

क्या भ्रष्टाचार का केंद्र बन चुके सांसद फंड पर रोक लगाएंगे नरेंद्र मोदी?

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बंपर बहुमत हासिल करने के बाद एनडीए के सांसदों को सदाचरण की सलाह दी. यह बहुत अच्छी पहल है. पर क्या सांसद क्षेत्र विकास निधि के रहते इस तरह की कोई भी नसीहत कभी कारगर हो पाएगी? दरअसल, अधिकतर सांसदों की छवि को खराब करने में इस फंड का बड़ा योगदान है. आम लोग भी यह जानते हैं कि सांसद फंड में कैसी लूट होती है. इससे होने वाले काम कितने घटिया होते हैं. कुछ ही सतर्क सांसद हैं जो गुणवत्ता पर ध्यान रख पाते हैं, क्योंकि वे ‘नजराना’ नहीं लेते. पर अपवादों से तो देश नहीं चलता.

सांसद फंड के उपयोग में लगातार जारी भ्रष्टाचार का प्रतिकूल असर प्रशासन की स्वच्छता पर भी पड़ रहा है. इस फंड के दुरुपयोग व बदनामी के डर से कुछ राज्यसभा सदस्य आमतौर पर अपना पूरा फंड किसी विश्वविद्यालय या फिर प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान को दे देते हैं. वहां किसी तरह के भ्रष्टाचार की गुंजाइश बहुत ही कम होती है. रहती भी है, तो भी उससे संबंधित सांसद का कुछ लेना-देना नहीं होता.

सांसद फंड के अधिकतर मामलों में कमीशन और रिश्वत की दर तय है. आम चर्चा है कि बिहार में तो 40 प्रतिशत राशि संबंधित सरकारी ऑफिस ही ले लेता है. बाकी में भी बंदरबांट होती है. अपवादों की बात और है. इसीलिए सांसद फंड से निर्मित संरचनाएं सबसे कम टिकाऊ होती हैं. सबके अपने-अपने ठेकेदार हैं. वे उनके राजनीतिक कार्यकर्ता की भी भूमिका निभाते हैं. वे अधिकतर मामलों में तपे-तपाए कार्यकर्ताओं को ‘बेदखल’ कर देते हैं.

यह फंड राजनीति में वंशवाद को आगे बढ़ाने में भी काफी मददगार है. वंशवादियों के लिए फंड के ठेकेदार ही कार्यकर्ता हैं. यदा—कदा राजनीतिक कार्यकर्ता तो पार्टी का टिकट लेकर प्रत्याशी हो जाते हैं. इसलिए कई सांसद ऐसा कोई ‘खतरा’ उपस्थित होने ही नहीं देते. पटना हाईकोर्ट ने 2003 में कहा था कि सांसद-विधायक कोटे का ठेका अपने रिश्तेदारों को दिया जाता है. 2001 में सीएजी ने अपनी जांच में इस फंड में गड़बड़ी को पकड़ा था. विधायक निधि की कमीशनखोरी के आरोप में 2014 में बिहार के एक विधायक के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया था.

चिंताजनक स्थिति यह है कि इस फंड के भ्रष्टाचार में नए-नए सेवा में आए अधिकतर आईएएस अफसर भी शामिल हो जाते हैं. उन्हें पदस्थापन के उसी स्तर पर ऐसी लत लग जाती है जो सेवाकाल के आखिर तक बनी रहती है. हालांकि अफसरों में भी अपवाद है. यानी सांसद फंड देश के ‘स्टील फ्रेम’ प्रशासन और उच्च स्तर की राजनीति में भ्रष्टाचार के रावण की नाभि का अमृत कुंड बन चुका है.

खुद प्रधानमंत्री मोदी 2014 से ही समय-समय पर प्रशासन के भ्रष्टाचार पर चिंता प्रकट करते रहे हैं. उन्हें चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के इस बड़े स्रोत पर भी गौर करें. ऐसी ही कई बातों पर विचार करने के बाद वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग ने 2011 में ही इस सांसद फंड को समाप्त करने की सिफारिश की थी. उससे पहले भी कई महत्वपूर्ण राजनीतिक व गैर राजनीतिक हस्तियों ने इसे खत्म करने की सिफारिश की थी.

यहां तक कि 2007 में लालू प्रसाद ने भी कहा था कि ‘सांसद-विधायक फंड समाप्त कर देना चाहिए. सांसद-विधायक फंड की ठेकेदारी के झगड़े के कारण ही हमारी सत्ता छिन गई.’ 2005 में सांसद फंड से रिश्वत लेने के आरोप में एक राज्यसभा सदस्य की सदस्यता भी जा चुकी है. खैर वे स्टिंग आपरेशन में पकड़े गए थे. सब तो स्टिंग में पकड़े नहीं जाते. इस देश की राजनीति स्टिंग के बाद ही कार्रवाई करने को मजबूर होती है, ऐसे नहीं. जबकि सबको सब बात का पता है.

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्रित्वकाल में भाजपा के 40 सांसद उनसे इस गंभीर मुद्दे पर मिले थे. उन्होंने आग्रह किया कि आप सांसद फंड बंद कर दीजिए, क्योंकि इसके कारण भाजपा के अनेक तपे-तपाए कार्यकर्ता अब सांसद फंड के ठेकेदार बन रहे हैं. नतीजतन उनकी आंखों में अब सेवा भाव नहीं बल्कि वाणिज्यिक भाव देखे जा रहे हैं. इस बात से वाजपेयी जी भी चिंतित हो उठे. उन्होंने इस विवादास्पद फंड को बंद करने पर विचार शुरू कर दिया.

इस बीच बीजेपी के ही कुछ फंड समर्थक सांसदों को इसकी भनक लग गई. दिल्ली के तब के एक चर्चित सांसद के नेतृत्व में करीब सौ सांसद प्रधानमंत्री से मिले. उन्होंने इसकी राशि बढ़ाने की गुजारिश की. वाजपेयी उनके दबाव में आ गए. यह राशि 2003 में एक करोड़ रुपये सालाना से दो करोड़ रुपए कर दी गई. जब अटल सरकार इस फंड की राशि बढ़ा रही थी तो राज्य सभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मनमोहन सिंह ने उसका सख्त विरोध करते हुए सरकार से कहा था कि ‘यदि आप चीजों को इस तरह होने दीजिएगा तो जनता नेताओं और लोकतंत्र में विश्वास खो देगी.’

यह बात अलग है कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद 2011 में सांसद फंड को बढ़ाकर पांच करोड़ कर दिया. इस तरह फंड प्रेमी सांसदों की इच्छाएं बढ़ती चली गईं. कुछ साल पहले कांग्रेस सांसद और संसद की लोक लेखा समिति के अध्यक्ष केवी थाॅमस ने कहा कि ‘सांसद निधि 5 करोड़ से बढ़ाकर 50 करोड़ रुपये कर देने से सांसद आदर्श ग्राम योजना को कार्यान्वित करने में सुविधा होगी.’

नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद भी कुछ अपवादों को छोड़कर आमतौर पर सरकारी और राजनीतिक भ्रष्टाचार में कोई खास कमी नहीं आई. सर्वोच्च राजनीतिक कार्यपालिका के स्तर पर भले अंतर आया हो. यह अच्छी बात हुई कि नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में इस फंड में कोई वृद्धि नहीं की है जबकि 50 करोड़ रुपये की मांग लगभग सर्वदलीय है. लगता है कि प्रधानमंत्री इस फंड में व्याप्त अनियमितताओं से मोटा-मोटी परिचित हैं.

सांसद फंड की शुरुआत भी विवादास्पद स्थिति में 1993 में हुई थी. तब पीवी नरसिंह राव की सरकार अल्पमत में थी. क्या यह संयोग है कि जब-जब सरकारें अल्पमत में थीं या मिलीजुली थीं तभी फंड मिला और बढ़ा. बहुमत वाली मोदी सरकार ने बढ़ाने से इनकार कर दिया. राव सरकार ने इस फंड की शुरुआत जानबूझकर उस समय की जब उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह विदेश यात्रा पर थे.

फंड की शुरूआत की जल्दीबाजी देखिए. संयुक्त संसदीय समिति की अंतरिम रिपोर्ट 23 दिसंबर 1993 को 3 बजकर 43 मिनट पर संसद में पेश की गई. उसमें यह सिफरिश थी कि प्रत्येक सांसद को हर साल एक करोड़ रुपये का कोष दिया जाए ताकि उससे वे अपने क्षेत्र का विकास कर सके. सरकार ने उसी दिन पांच बजकर 50 मिनट पर उस रपट को स्वीकार कर लेने की सदन में घोषणा कर दी. लगता है कि वित्त मंत्री के स्वदेश लौट आने से पहले जल्दी-जल्दी यह काम कर लेना था.

1996 में मनमोहन सिंह ने कहा भी था कि यदि मैं दिल्ली में होता तो उस फंड को शुरू ही नहीं होने देता. पर इस फंड को लेकर सर्वदलीय दबाव की पराकाष्ठा देखिए. जब मनमोहन सिंह खुद प्रधानमंत्री बने तो कुछ साल तक तो उन्होंने प्रतिरोध किया, लेकिन अंततः उन्होंने फंड को बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये सालाना कर दिया. इस फंड के प्रति अधिकतर सांसदों के भारी आग्रह के कारण प्रधान मंत्रियों को लगातार दबाव में आना पड़ा.

मगर मौजूदा सरकार तो अल्पमत में नहीं है. वह फंड समाप्त करने का साहसिक कदम उठा सकती है. यह प्रशासनिक सुधार का हिस्सा होगा. अभी तो मोदी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं. कोई एमपी उनके इस कदम का विरोध करने की हिम्मत भी नहीं कर पाएगा. यदि प्रशासन व राजनीति में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े स्रोत पर हमला करना हो तो प्रधानमंत्री इस फंड को यथाशीघ्र समाप्त करें. उसी तेजी से जिस तेजी से 1993 में इसकी स्वीकृति दी गई थी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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अब न्यूज चैनल्स पर नहीं दिखेंगे कांग्रेस प्रवक्ता, पार्टी ने जारी किया ये फरमान

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लोकसभा चुनाव में शर्मनाक व करारी हार के बाद चिंतन व मंथन में जुटी कांग्रेस अब नए सिरे से संगठन को प्लान करने में लगी है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफे की इच्छा व कई प्रदेशाध्यक्ष द्वारा इस्तीफे भेजे जाने की कसमकश के बीच पार्टी ने एक और कड़ा फैसला किया है, जो कांग्रेस संगठन में किसी बड़े बदलाव की सुगबुगाहट है. पार्टी के इस फैसले के अनुसार अब अगले एक महीने तक कोई भी पार्टी प्रवक्ता किसी न्यूज चैनल्स की बहस या प्रोग्राम में हिस्सा नहीं लेगा, राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इसके लिए न्यूज चैनल्स को भी किसी प्रवक्ता को नहीं बुलाने के लिए कहा है.

कांग्रेस पार्टी इन दिनों बुरे दिनों से गुजर रही है. लगातार दूसरी बार की शिकस्त के बाद पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी पद छोड़ने पर अड़े और कई नेताओं से हार को लेकर नाराजगी जता चुके हैं. हालांकि दिग्गज कांग्रेसी नेताओं द्वारा उनको मनाने की भी कोशिश हुई है. इसी बीच पार्टी ने मीडिया से दूरी बनाने का फैसला किया है. जिसके अनुसार अब अगले एक महीने तक को भी पार्टी प्रवक्ता न्यूज चैनल्स की किसी डिबेट में शामिल नहीं होगा. इससे संबधित जानकारी को राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने अपने ट्विटर हैंडल से शेयर करते हुए न्यूज चैनल्स को भी किसी प्रवक्ता को बुलाने से परहेज को कहा है.

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने अपने ट्वीट में न्यूज चैनल्स को कहा है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने फैसला लिया है कि वह एक महीने तक टीवी डिबेट के लिए पार्टी के प्रवक्ता को नहीं भेजेगी. सभी न्यूज चैनल /संपादकों से अनुरोध है कि वह कांग्रेस के प्रतिनिधियों को अपने शो में शामिल न करें. बता दें कि हाल ही में सपा ने न्यूज चैनल्स पर पार्टी का पक्ष रखने वाले पैनलिस्ट को हटा लिया था. अब कांग्रेस ने भी यही शुरुआत की है.

बता दें कि लोकसभा चुनाव में हार के बाद 25 मई को आयोजित हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में कई नेताओं ने इस बात को प्रमुखता से उठाया था कि पार्टी प्रवक्ताओं को न्यूज चैनल्स पर होने वाली डिबेट में न जाने दिया जाए. इसे पार्टी ने गंभीरता से लेते हुए यह निर्णय लिया है. वहीं सूत्रों की मानें तो कांग्रेस नरेंद्र मोदी की नई सरकार पर शुरुआती एक महीने तक किसी भी टीका-टिप्पणी और आलोचना से बचना चाहती है और इसे ही ध्यान में रखकर पार्टी ने यह सख्ताई लागू की है.

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कांग्रेस को अमित शाह जैसे अध्यक्ष के साथ ‘मार्गदर्शक मंडल’ की जरूरत: नटवर सिंह

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लगातार दूसरी बार करारी हार का सामना करने वाली कांग्रेस में अब चिंतन-मंथन के साथ संगठन में बदलाव की कमी महसूस की जा रही है. कई प्रदेशाध्यक्ष के इस्तीफे भेजने के बीच कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के भी पद छोड़ने की बात फिलहाल सुर्खियों में है. हांलाकि पार्टी के बड़े नेता उन्हें अध्यक्ष पद पर ही बने रहने के लिए मनाने में लगे हैं लेकिन राहुल अपनी बात पर अड़े हैं. इसी बीच कभी गांधी परिवार के खासे करीबी रहे नटवर सिंह ने कांग्रेस को लेकर अपनी बेबाक राय दी है. उन्होंने अमित शाह के नेतृत्व की तारिफ करते हुए कांग्रेस में उनके जैसे अध्यक्ष की जरूरत की बात कही है.

एक न्यूज चैनल को दिए साक्षात्कार में दिग्गज राजनेता नटवर सिंह ने कांग्रेस में मची खलबली पर अपनी राय दी है. दिग्गज कांग्रेसी नेता व पूर्व विदेश मंत्री ने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार पर कहा है कि पार्टी को अमित शाह जैसे अध्यक्ष की सख्त आवश्यकता है. उन्होंने इस दौरान शाह की जमकर तारिफ भी की और कहा कि उनके अटूट मैनेजमेंट व मैकेनिज्म ने बीजेपी को बड़ी जीत दिलाई. साथ ही उन्होंने कांग्रेस की हार को लेकर आला नेताओं को निशाने पर लिया है.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफे को लेकर भी सिंह ने कहा कि फिलहाल पार्टी इस स्थिति में नहीं है कि कोई राहुल की जगह ले सके. उन्होंने यह भी कहा कि राहुल को इस्तीफे की जिद छोड़ देनी चाहिए. उनका कहना है कि जब राहुल गांधी ने प्रियंका गांधी के नाम को भी मना करने के साथ गांधी परिवार को अध्यक्ष पद से दूर रखने की बात कही है तो फिर दूसरा अध्यक्ष के लिए अभी के हालात ठीक नहीं है. नटवर सिंह ने बातचीत के दौरान जल्द ही नए अध्यक्ष पर भी फैसला होने के संकेत दिए हैं.

वहीं हार के बाद हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों पर की गई टिप्पणी पर भी अपनी बात कही है. उन्होंने कहा है कि जब राहुल ने कुछ बड़े नेताओं को सीधे नाम लेकर अपने बेटों को टिकट दिलाने की बात कह दी थी तो वे मुख्यमंत्री अब तक पद पर क्यों बने हुए हैं. उन्हें अब तक इस्तीफा दे देना चाहिए था. वहीं उन्होंने यह भी कहा कि 50 की उम्र से अधिक के नेताओं को कांग्रेस वर्किंग कमेटी में से रिटायरमेंट देने की जरूरत है.

वहीं कांग्रेक की लोकसभा चुनाव लड़ने की रणनीति को लेकर भी नटवर सिंह ने सवाल उठाते हुए कहा कि पार्टी को यूपी व दिल्ली में गठबंधन करना चाहिए था. उनका कहना है कि गठबंधन के बाद कम से कम पार्टी का वोट प्रतिशत तो अच्छा रहता. वहीं उन्होंने कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी को चुनाव मैदान में उतारने की टाइमिंग को गलत बताया और कहा कि प्रियंका तीन महीने में क्या कर सकती थी, उन्हें दो साल पहले ही कांग्रेस में ले आना चाहिए था. उन्होंने कहा कि वे मानते हैं कि लोकतंत्र में एक पुख्ता कांग्रेस की दरकार है.

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