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क्या राज्यसभा से पास हो पाएगा तीन तलाक बिल

भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करने के बाद सदन के पहले सत्र की शुरुआत में ही मोदी सरकार ने तीन तलाक बिल को एक बार फिर पेश किया है. बिल पेश करने के समर्थन में 186 जबकि विरोध में 74 वोट पड़े. अब सरकार की इस बिल को लेकर असली परीक्षा राज्यसभा में होने वाली है. सोमवार को तीन तलाक विधेयक राज्यसभा में पेश किया जाएगा.

इस बिल को पहली बार मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में दिसंबर, 2017 में लोकसभा में पेश किया था. हालांकि तब भी यह निम्न सदन से तो पास हो गया था, लेकिन उच्च सदन में यह विधेयक पारित नहीं हो सका क्योंकि यहां बीजेपी और उसके सहयोगी दल अल्पमत में हैं. हालांकि सरकार ने लगातार दो अध्यादेशों लाकर इसे जारी रखा था.

सरकार की तरफ से तीन तलाक विधेयक के लिए पहला अध्यादेश सितंबर, 2018 में लाया गया था. दूसरा अध्यादेश फरवरी, 2019 में लाया गया था. अध्यादेश की वैधता 6 महीने की होती है. अतः इस अध्यादेश की अवधि भी जुलाई में समाप्त हो रही है. इसी वजह से सरकार ने इस सदन के पहले सत्र में ही पेश कर दिया. मोदी सरकार को इस बार भी तीन तलाक विधेयक को राज्यसभा से पारित करा लेने को लेकर संशय में है.

राज्यसभा में फिलहाल 245 सीटें हैं और सरकार को इस बिल को पास कराने के लिए 123 मतों की जरुरत है. वर्तमान में राज्यसभा में बीजेपी के 71 सांसद है. वहीं गुरुवार को चंद्रबाबु नायडू की पार्टी टीडीपी के चार सांसदों ने टीडीपी से इस्तीफा देकर बीजेपी का दामन थाम लिया है. इस कारण बीजेपी की सांसदों की संख्या 75 हो गई है.

इसके अलावा, AIADMK के 13, टीआरएस के 6, वाईएसआरसीपी के 2 और बीजेडी के 5 सांसदों का समर्थन भी बीजेपी को मिलने की उम्मीद है. अगर इन सभी पार्टियों के सांसदों का समर्थन भी बीजेपी को मिलता है तो भी संख्या 101 तक ही पहुंचती है.हालांकि 5 जुलाई को देश की 6 राज्यसभा सीटों पर चुनाव होने है. इन सीटों पर बीजेपी और उसके सहयोगी पार्टियों के उम्मीदवारो के जीतने की आशंका है.

अगर नतीजे बीजेपी के अनुमान के अनुसार भी आते है तो भी बीजेपी इस बिल को राज्यसभा में पास नहीं करा पाएगी. अगर विरोध करने वाली पार्टियों के सांसदों ने सदन की कार्यवाही में भाग लिया तो मुमकिन है कि इस बार भी तीन तलाक बिल लटक जाए, जैसा कि पहले हो चुका है. ये स्थिति इसलिए है क्योंकि राज्यसभा में सरकार के पास उतने नंबर नहीं है कि वो विरोध के बीच तीन तलाक बिल को पास करवा ले.

क्षत्रपों और बीजेपी की आपसी ठनक चरम पर, यूपी-महाराष्ट्र-बंगाल में हालात सबसे खराब

ये पहला मौका नहीं है जब बीजेपी और क्षत्रपों में आपसी ठनक देखी गई है. 2014 के आम चुनाव के बाद जिस तरह से नरेंद्र मोदी की लहर उठी, उस लहर में विपक्ष पूरी तरह से बहता चला गया. इनके बीच क्षत्रपों की नींव भी कहां बचने वाली थी. इसका परिणाम निकला कि उत्तरप्रदेश में बीजेपी बहुमत के साथ सत्ता पर आसीन हुई. कई मायनों में ये जीत खास रही. बीजेपी की इस जीत ने मायावती और मुलायम सिंह यादव की पकड़ को यूपी में खत्म करके रख दिया.

महाराष्ट्र में भी कमोबेश यही स्थि​ति देखने को मिल रही है. हालांकि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जिस तरह से शिवसेना और बीजेपी में लंबी बातचीत हुई, मसलों को सुलझाया गया, उसके बाद दोनों पार्टियों में गठबंधन हुआ. दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा और प्रचड़ जीत भी हासिल की.

यह भी किसी से छुपा नहीं है कि मुख्यमंत्री पद के विवाद को लेकर यहां आने वाले विधानसभा चुनाव में शायद स्थिति कुछ और ही दिख सकती है. आए दिन किसी न किसी बात को लेकर दोनों के बीच टकराव बना ही रहता है. दोनों ही दल विधानसभा चुनाव में पूरा जोर लगाने में लगे हैं.

बीजेपी के साथ ममता दीदी के बीच टकराव भलां कौन भूल सकता है. पिछले एक साल में जिस तरह की तल्खि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बीजेपी में देखने को मिली है, वो शायद इतिहास में कभी नहीं हुआ. मामला इतना गर्मा गया कि बंगाल में हिंसक घटनाएं तक पनपी.

ममता बनर्जी ने न केवल जुबानी तीर चलाए बल्कि चुनावी रैलियों में बीजेपी के दिग्गजों को वहां आने तक की इजाजत नहीं दी. आए दिन हिंसक घटनाएं, जुलूस, विरोध प्रदर्शन इस स्थिति को विकट बना रहे थे. निकाय चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की राजनीति के बाद अब नौबत यहां तक आ पहुंची है कि इन सबके बीच कई कार्यकर्ताओं की जिंदगी तक चली गई. बंगाल अभी तक शांत नहीं हुआ है.

बिहार में भी सियासी हलचल चरम पर है. पिछले दिनों बीजेपी के दिग्गज़ नेता का जदयू के नेताओं पर सवाल उठाना, इफ्तार पार्टी में शामिल न होना और मंत्रिमंडल विस्तार में बीजेपी का कोई रोल नहीं होना, सभी बातें केवल इस ओर इशारा करती हैं कि बीजेपी और जेडीयू में सब ठीक-ठाक तो नहीं है. हालांकि दोनों ने ही इस बात को कभी स्वीकारा नहीं है.

फिलहाल संसद भवन में हुए अभिभाषण में जिस तरह से बीजेपी ने अपने वायदों को सामने रखा, उसमें ये देखना होगा जब उनके खुद के ही घटक दल और अन्य दलों के साथ खटास चरम पर है तो कैसे सबका साथ लेकर कोई बिल ला पाएंगे और कैसे उन वायदों को पूरा कर पाएंगे.

केवल सात साल में राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कैसे बन गई NPP?

हाल ही में एक चौंकाने वाली खबर सुनने में आयी कि नेशनल पीपल्स पार्टी (एनपीपी) को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला है. अब एनपीपी 8वीं ऐसी पार्टी बन गई है जिसे राष्ट्रीय स्तर की पार्टी होने का दर्जा मिला है. इससे पहले कांग्रेस, बीजेपी, बसपा, एनसीपी, सीपीआई, सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस को ही राष्ट्रीय पार्टी होने का दर्जा प्राप्त है. गौर करने वाली बात यह नहीं है कि एनपीपी को नेशनल पार्टी होने का दर्जा मिला बल्कि यह बात है कि केवल 7 सालों में पार्टी ने यह सीढ़ी पार की है जो वाकयी में चौंकाने जैसा है. बीते सात जून को एनपीपी प्रमुख कोनरॉड संगमा ने इसकी जानकारी ट्विटर पर साझा की है.

लोकसभा में इस बार आई बीजेपी की आंधी के बीच एनपीपी का उभरकर आना अपने आप में ही चर्चा का विषय है. देखा जाए तो उत्तर-पूर्व के राज्यों को छोड़ दें तो देश के बाकी हिस्से के लोग शायद ही इस नाम से परिचित होंगे. पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में भी एनपीपी को केवल क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त है. इसके बावजूद इस पार्टी ने अब राष्ट्रीय दलों की सूची में अपनी जगह बना ली है.

नेशनल पीपल्स पार्टी (एनपीपी) की स्थापना लोकसभा अध्यक्ष रहे पीए संगमा ने जुलाई, 2012 में की थी. इससे पहले संगमा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में शामिल थे. फिलहाल बीजेपी के सहयोग से एनपीपी मेघालय की सत्ता पर काबिज है. 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने राज्य की दो में से एक सीट पर कब्जा किया है.

पूर्वोत्तर के आधे से अधिक राज्यों में जब यह खबर मिली तो सियासी गलियारी में यह खबर चौंकाने वाली थी. हालांकि चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश-1968 के प्रावधानों की मानें तो एनपीपी इसकी पूरी हकदार है. इस आदेश के तहत राजनीतिक पार्टियों को सूचीबद्ध किया जाता है. इसके अलावा कौन सी पार्टी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय होने की योग्यता रखती है, इसके लिए भी यह शर्तें तय करता है. इसके तहत राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिए तीन शर्तें तय की गई हैं. कोई पार्टी यदि इनमें से किसी भी एक को पूरा करती है तो वह इसकी हकदार हो जाती है.

चुनाव चिह्न आदेश में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिए तीन शर्तें निर्धारित की गई हैं. इनमें पहली शर्त है कि चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में छह फीसदी वोट शेयर के अलावा लोकसभा चुनाव में चार सीटें हासिल करना. दूसरी शर्त है कि पार्टी के उम्मीदवारों को कम से कम तीन अलग-अलग राज्यों में लोकसभा चुनाव में कुल सीटों की दो फीसदी सीटों पर जीत हासिल होनी चाहिए. तीसरी शर्त के अनुसार, पार्टी को कम से कम चार राज्यों में क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा हासिल हो.

एनपीपी उक्त तीनों में से केवल तीसरी शर्त को पूरा करती है. पार्टी को मेघालय, मणिपुर और नगालैंड में पहले से क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा हासिल था. अब अरुणाचल प्रदेश में भी पार्टी ने क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया है. देश के सबसे पूर्वी छोर पर स्थित इस राज्य में विधानसभा का चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ ही हुआ था. इसमें एनपीपी ने 60 में से पांच सीटों पर जीत दर्ज की है. पार्टी का वोट शेयर 14.56 फीसदी रहा था.

इससे पहले एनपीपी ने इसी शर्त को 2018 में मेघालय और नगालैंड में पूरा किया था. मेघालय चुनाव में पार्टी ने 59 में से 19 और नगालैंड की 60 में से पांच सीटें हासिल की थीं. दोनों राज्यों में ही एनपीपी का वोट शेयर 6 फीसदी से अधिक रहा. वहीं एनपीपी ने मणिपुर में 2017 के विधानभा चुनावों में 60 में से चार सीटों पर कब्जा करते हुए क्षेत्रीय पार्टी होने का दर्जा हासिल ​कर लिया था.

चुनाव चिह्न आदेशानुसार, यदि कोई पार्टी संबंधित राज्य के विधानसभा चुनाव में कुल सीटों का तीन फीसदी हिस्सा या तीन सीटें या इनमें जो भी अधिक हो, हासिल करती है तो उक्त पार्टी सूबे में क्षेत्रीय पार्टी का तमगा हासिल करने के योग्य है.

अब राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कुछ सुविधाओं का एनपीपी को मिलना भी लाज़मी है. एक नेशनल पार्टी बनने के बाद एनपीपी पूरे देश में एक चुनाव चिह्न पर अपने उम्मीदवार उतार सकती है. इससे पहले उसे यह सुविधा केवल उन्हीं राज्यों में हासिल थी, जहां वह क्षेत्रीय पार्टी है. वहीं, पार्टी को लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों को आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण की सुविधा भी मिलेगी. इसके अलावा सभी नेशनल पार्टियों को आम चुनाव के दौरान अपने स्‍टार प्रचारक नामित करने की सुविधा भी प्राप्‍त होती है.

एक मान्‍यता प्राप्‍त राष्‍ट्रीय पार्टी अपने लिए अधिकतम 40 स्‍टार प्रचारक रख सकती है. एक गैर-मान्‍यता प्राप्‍त पंजीकृत दल के लिए यह आंकड़ा 20 है. स्‍टार प्रचारकों का यात्रा खर्च उस उम्‍मीदवार के खर्च में नहीं जोड़ा जाता, जिसके पक्ष में ये प्रचार करते हैं. ऐसे में एनपीपी को इन सभी सुविधाओं का लाभ आम चुनावों में मिलेगा.

जीएसटी काउंसिल की 35वीं बैठक में हुए ये आठ बड़े फैसले

जीएसटी काउंसिल की 35वीं बैठक में कारोबारियों के साथ-साथ आम जनता को बड़ी राहत दी गई है. अब कोई भी नया कारोबारी आधार के जरिए अपना जीएसटी में रजिस्ट्रेशन कर सकेगा. इसके अलावा 1 जनवरी 2020 से कारोबारियों को केवल एक पेज का रिटर्न फॉर्म भरना होगा. वहीं, मल्टीप्लेक्स में ई-टिकट को अनिवार्य किया जाएग. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में ये आठ बड़े फैसले लिए गए-

1. जीएसटी काउंसिल ने ई-इनवॉयस के प्रस्ताव को सिद्धांतिक तौर पर मंजूरी दे दी है.

2. काउंसिल ने राज्य और क्षेत्र आधारित जीएसटी अपीलीय ट्रिब्यूनल को मंजूरी दे दी है, जिसके तहत कुछ राज्यों में एक से ज्यादा ट्रिब्यूनल होंगे.

3. नेशनल एंटी-प्रॉफिटीयरिंग अथॉरिटी को दो साल के एक्सटेंशन को मंजूरी दे दी गई.

4. ई-व्हीकल पर टैक्स घटाने संबंधित मामले को काउंसिल ने फिटमेंट कमेटी के पास भेजा है जो जल्द ही इस पर फैसला लेगी.

5. यदि कोई कारोबारी दो महीने तक रिटर्न फाइल नहीं करता है तो उसे ई-वे बिल जनरेट करने की सुविधा नहीं दी जाएगी.

6. जीएसटी रिटर्न फाइल करने की आखिरी तारीख बढ़ाकर 31 अगस्त कर दी गई है.

7. मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल में अब इलेक्ट्रोनिक टिकट जारी होगा.

8. इलेक्ट्रिक चार्जर पर लगने वाली कर की दर को 18 फीसदी से घटाकर 12 फीसदी करने का फैसला लिया गया है.

बैठक के बाद राजस्व सचिव अजय भूषण पांडेय ने बताया कि कारोबारी ऑनलाइन आधार नंबर के जरिए आवेदन कर सकेंगे. इसके लिए उनके पास ओटीपी आएगा और बाद में जीएसटीएन पोर्टल में रजिस्ट्रेशन होने के बाद रजिस्ट्रेशन नंबर मिल जाएगा. इसके साथ ही पहले ही सरकार जीएसटी रजिस्ट्रेशन की सीमा को 20 लाख रुपये से बढ़ाकर 40 लाख रुपये कर चुकी है.

कुत्तों के योग की फोटो ट्वीट कर फंसे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के एक ट्वीट ने बवाल मचा दिया. राहुल ने शाम 4 बजे के लगभग दो तस्वीरें ट्वीट कीं जिनमें सेना के जवान और आर्मी यूनिट के कुत्ते एक साथ योग करते नजर आ रहे हैं. राहुल ने ये तस्वीरें ट्विटर पर पोस्ट कीं और साथ में कैप्शन लिखा- न्यू इंडिया.

राहुल गांधी का यह ट्वीट आते ही लोगों ने इस पर धड़ाधड़ प्रतिक्रियाएं देनी शुरू कर दीं और ट्विटर पर #Dogs ट्रेंड करने लगा. किसी को यह समझ नहीं आया कि इस ट्वीट के जरिए राहुल गांधी कहना क्या चाहते हैं. कई लोगों ने इसे गैरजरूरी बताते हुए भारतीय सेना का अपमान बताया.

बीजेपी अध्यक्ष और गृहमंत्री अमित शाह ने इसे कांग्रेस पार्टी की नकारात्मकता बताते हुए लिखा, ‘कांग्रेस का मतलब ही है नकारात्मकता. आज मध्ययुगीन तीन तलाक को उनके समर्थन में ये नकारात्मकता स्पष्ट दिखी. अब उन्होंने योग दिवस का मजाक बनाया और हमारी सेनाओं का फिर से अपमान किया. उम्मीद है कि सकारात्मकता की भावना रहेगी. इससे मुश्किल से मुश्किल चुनौती से भी उबरा जा सकता है.’

हार्ड कौर ने किया योगी आदित्यनाथ और मोहन भागवत पर विवादित पोस्ट, FIR दर्ज

हिपहॉप सिंगर हार्ड कौर उर्फ तरण कौर ढिल्लो पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ है. यह मुकदमा आरएसएस कार्यकर्ता शशांक शेखर ने यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत पर विवादित पोस्ट के मामले में कराया है. हार्ड कौर ने अपने इंस्टाग्राम पर चार पोस्ट करते हुए योगी और भागवत भागवत के बारे में विवादित टिप्पणियां की है.

हार्ड कौर ने योगी आदित्यनाथ के बारे में लिखा, ‘अगर यह आदमी सुपरहीरो होता तो इसका नाम रेप योगी होता. अगर आपको अपनी मां, बहन, बेटी का रेप कराना है तो इस आदमी को बुलाओ. मैं खुद इसे ऑरेंज रेप मैन बुलाती हूं.’

वहीं मोहन भागवत के बारे में हार्ड कौर ने कहा, ‘भारत में हुए आतंकी हमलों के लिए आरएसएस जिम्मेदार है. चाहे वो मुंबई का 26/11 हमला हो या हाल में हुआ पुलवामा अटैक. महात्मा गांधी की हत्या आरएसएस कार्यकर्ता गोडसे ने की जिसके बाद सरदार पटेल ने आरएसएस को बैन कर दिया था. इतिहास में महात्मा बुद्ध और महावीर ने ब्राह्मणवादी जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. आरएसएस और बीजेपी की वजह से देश में कई लोगों की जान गई. जागिए, आप क्या अपनी बहु-बेटी के साथ रेप होने का इंतजार कर रहे हैं? या जब तक ये लोग आप पर या आपके लोगों पर हमला नहीं करेंगे, तब तक आप इंतजार करेंगे?’

https://www.instagram.com/p/Byz0NSaAdol/?utm_source=ig_web_copy_link

अपनी पोस्ट में हार्ड कौर ने योगी व भागवत के साथ ही हेमंत करकरे और गौरी लंकेश का भी जिक्र किया है. उन्होंने हेमंत करकरे की फोटो पर लिखा, ‘आपकी हत्या आरएसएस ने की है. आपकी आत्मा को शांति मिले.’ वहीं गौरी लंकेश की फोटो पर लिखा, ‘हम आपके हत्यारों को जाने नहीं देंगे.’

क्यों हरियाणा में BJP का ‘मिशन-75+’ हकीकत के करीब है?

लोकसभा चुनाव में बंपर जीत के बाद बीजेपी के हौंसले सातवें आसमान पर है. बीजेपी ने विधानसभा चुनाव को लेकर मिशन 75 प्लस का नारा दिया है. हरियाणा में विधानसभा की 90 सीटें हैं और बीजेपी ने 75 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है. अब सवाल यह है कि बीजेपी का मिशन 75 प्लस सफल हो सकता है या नहीं.

ऐसा ही कुछ सवाल पत्रकारों ने मनोहरलाल खट्टर से भी पुछा था. सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि कहा हमने लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सभी 10 सीटों पर जीत दर्ज की है. अगर आप लोकसभा चुनाव के नतीजों को विधानसभा-वार देखें तो हमने विधानसभा की 89 सीटों पर जीत दर्ज की है. लोकसभा चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि यह लक्ष्य हमारे लिए आसान है. हम इसे आसानी से प्राप्त कर लेंगे.

हरियाणा में यह लक्ष्य जनता पार्टी ने 1977 में हासिल किया था. जनता पार्टी ने आपातकाल के बाद हुए विधानसभा चुनाव में प्रदेश की 75 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी. बीजेपी विधानसभा चुनाव को लेकर उत्साहित नजर आ रही है. इस आत्मविशावस की कई वजह हैं.

मोदी लहर का भरोसाः
बीजेपी को लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी मोदी का जादू मतदाताओं पर चलने का भरोसा है. बीजेपी को भरोसा है कि जिस तरह लोकसभा चुनाव में मोदी के नाम पर जातिगत मुद्दे गौण हुए थे, ठीक उसी प्रकार विधानसभा चुनाव में भी विपक्षी पार्टियों का जाति कार्ड नहीं चलेगा.

जाट-नॉन जाटः
जाट आंदोलन के बाद प्रदेश का माहौल बिल्कुल अलग हो चुका है. जहां जाट मतदाता बीजेपी से पुरी तरह नाराज नजर आ रहे है. वहीं नॉन जाट मतदाता बीजेपी के पक्ष में मजबूती से खड़े दिखाई दे रहे है. लोकसभा चुनाव में मिली बंपर जीत में इसका सबसे बड़ा योगदान रहा है.

बिखरी कांग्रेसः
प्रदेश कांग्रेस वर्तमान में गहरी गुटबाजी में उलझी हुई है. लोकसभा चुनाव में पार्टी के नेता पार्टी को जिताने के लिए नहीं, दूसरे धड़े के नेताओं को हराने में मेहनत करते दिख रहे हैं. हरियाणा कांग्रेस के नेताओं का समय केवल एक-दूसरे को कमजोर करने में ही गुजरता है न कि पार्टी को मजबूत करने में. हरियाणा में कांग्रेस की कमान अशोक तंवर के हाथ में है जो खुद सिरसा से बुरी तरह से चुनाव हार बैठे हैं. पार्टी के विधायक लंबे समय से तंवर को हटाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन अभी तक विधायकों की मांग को पार्टी आलाकमान अनसुना कर रहा है.

इनेलो की टूटः
प्रदेश की सियासत में अहम हिस्सेदारी रखने वाली ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) वर्तमान में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. टूट के बाद पार्टी के हालात बहुत बुरे हैं. हाल में हुए लोकसभा चुनाव में उसके सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई है.

‘चंद्रबाबू नायडू न घर के रहे, न घाट के’

PoliTalks news

आंध्रप्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के छह राज्यसभा सांसदों में से चार बीजेपी में शामिल हो गए. हाल में आंध्रा में हुए विधानसभा में सत्ता खोने वाले पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी मुखिया चंद्रबाबू नायडू के लिए यह बड़े झटके वाली खबर है. लोकसभा चुनाव में भी उनका प्रदर्शन इज्जत बनाने वाला तक न रहा. अब उनके सांसदों का बीजेपी की ओर रूख करना सियासी गलियारों से लेकर सोशल मीडिया तक हलचल मचा गया. एक सोशल मीडिया यूजर ने तो यहां तक कह दिया कि ‘चंद्रबाबू नायडू की हालत उस आदमी जैसी हो गई है जिसे भंडारे में पूड़ी भी नहीं मिली, बाहर जूता गायब हुआ सो अलग.’

@Naveenkansal7

@tusharnatrajan

@4555a0a2e52442d

@bhartijainTOI

@sardesairajdeep

@RoshanKrRai

बगैर अध्यक्ष बीजेपी का मुकाबला कैसी करेगी कांग्रेस

लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद राहुल गांधी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा कांग्रेस कार्य समिति को सौंप दिया है. हालांकि समिति ने उनका इस्तीफा मजूंर नहीं किया और उनसे अध्यक्ष पद पर बने रहने का आग्रह किया था. लेकिन राहुल ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का मन बना लिया है और वो इसपर कतई पुनर्विचार करने के मूड में नहीं हैं.

संसद सत्र में पत्रकारों से बातचीत के दौरान भी राहुल यह साफ कर चुके हैं कि वो अब अध्यक्ष पद पर नहीं रहेंगे और न ही अध्यक्ष चुनने की प्रकिया में शामिल होंगे. वो पार्टी के लिए एक साधारण कार्यकर्ता की तरह कार्य करते रहेंगे. अब कांग्रेस के लिए कितनी बड़ी विडंबना यह है कि राहुल को इस्तीफा दिए हुए करीब एक महीना होने जा रहा है. लेकिन पार्टी एक महीने में भी नए अध्यक्ष की तलाश नहीं कर पायी है.

हालांकि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की बैठक में पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी और केसी वेणुगोपाल को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव दिया गया था जिसको दोनों नेताओं ने निजी कारण बताते हुए ठुकरा दिया. अब सवाल यह है कि जब राहुल ने इस्तीफा देने का ऐलान कर दिया है तो पार्टी अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए नेता के चुनाव में देरी क्यों कर रही है. जबकि बीजेपी ने अमित शाह के गृहमंत्री बनने के बाद बिना देरी किए जगत प्रकाश नड्डा को पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष की बागड़ौर संभाला दी.

वहीं कांग्रेस लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद भी संगठन में बदलाव के लिए अभी इंतजार ही कर रही है. वरिष्ठ नेता तो अब भी राहुल को अध्यक्ष पद पर रहने के लिए मना रहे हैं. बता दें कि हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं और कांग्रेस इन सभी राज्यों में सत्ता से बाहर है.

हरियाणा में पार्टी के विधायक लगातार प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर को हटाने की मांग कर रहे हैं. वहीं झारखंड और महाराष्ट्र के कांग्रेस अध्यक्ष लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद अपना इस्तीफा आलाकमान को भेज चुके है. इसके बाद भी कांग्रेसी नेतृत्व बिल्कुल सजग नजर नहीं आ रहा है.

अब पार्टी इन राज्यों को लेकर कुछ फैसला तो तब ले जब कांग्रेस राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की ऊहापोह से बाहर निकले. हाल में राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर खबर आई कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जा सकता है लेकिन बाद में यह खबर भी केवल कयास ही साबित हुई.

एक ओर बीजेपी के पास मोर्चा संभालने के लिए दो अध्यक्ष हो गए हैं, वहीं कांग्रेस के पास एक भी नहीं है. ऐसे में सवाल ये हैं कि इतनी लचर तैयारी के साथ कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी का मुकाबला कैसे करेगी?

लोकसभा में पेश हुआ तीन तलाक के खिलाफ विधेयक

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