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तो बिना किसी पद के फिर क्या करेंगे राहुल गांधी…

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अगर राहुल गांधी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं रहेंगे तो फिर क्या करेंगे. सियासी गलियारों में हर किसी के जेहन में यही सवाल उठ रहा है. राहुल गांधी ने पार्टी को एक माह में गैर गांधी परिवार से नया अध्यक्ष चुनने का वक्त दे रखा है. इस्तीफे की पेशकश के बाद राहुल गांधी को मनाने की तमाम कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं. वहीं राहुल ने भी साफ संकेत दे दिए है कि अब वो बिना किसी पद के पार्टी के लिए काम करेंगे.

राहुल गांधी अब देशभर में दौरे करेंगे और आमजन के साथ कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद करेंगे. हालांकि पार्टी के वरिष्ठ कुछ नेताओं ने उन्हें यह राय भी दी है, ‘ठीक है आप कुछ साल बिना किसी पद के काम करते रहे लेकिन फिर से वापस अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल लेना.’ बताया जा रहा है कि राहुल इस बीच के रास्ते के फार्मूले पर अपनी सहमति दे चुके हैं. नए अध्यक्ष चयन के लिए जल्द एक बार फिर कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक बुलाने की तैयारी हो चुकी है.

जगन की राह पर निकलेंगे राहुल गांधी
सूत्रों के मुताबिक, राहुल गांधी के फैसले से सोनिया और प्रियंका गांधी सहित कईं वरिष्ठ नेता परेशान हो चुके हैं. राहुल ने कांग्रेस के सीएम और अन्य नेताओं से मिलने से साफ मना कर दिया है. ऐसे माहौल में राहुल अचानक लंदन चले गए और वापस लौटने के बाद भी उसी तरह का व्यवहार कर रहे हैं. विदेश से लौटते ही सोनिया और प्रियंका गांधी ने एक बार फिर राहुल को समझाने की कोशिश की लेकिन राहुल पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.

उनके इस रुख के चलते प्रियंका गांधी ने फिलहाल अप्रत्यक्ष तौर से पार्टी की कमान संभाल रखी है. राहुल गांधी के करीबियों की मानें तो राहुल किसी भी सूरत में अब इस्तीफा वापस नहीं लेंगे. राहुल ने पार्टी मजबूती के लिए बिना पद के काम करने का निर्यण ले लिया है. सूत्रों के मुताबिक, राहुल गांधी अब पार्टी के आमनेता की तरह कार्य करेंगे. इसके लिए वो देशभर में यात्राएं निकालेंगे और कार्यकर्ता-नेताओं के बीच जाकर सीधा उनसे संवाद कायम करेंगे. ऐसा ही कुछ आंध्रप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री जगन रेड्डी ने किया था. अब राहुल भी उनके ही नक्क्षे कदम पर चलने की तैयारी में हैं.

दो साल बाद फिर अध्यक्ष बनने के बीच का रास्ता
राहुल गांधी की जिद्द को देखते हुए कुछ वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को एक बीच का रास्ता भी सुझाया है. इसके तहत राहुल गांधी की नाराजगी की बात भी रह जाए और कांग्रेस अध्यक्ष पद भी खाली नहीं रहे. राहुल गांधी अगले डेढ़ से दो साल तक बिना किसी जवाबदेही के कांग्रेस कार्यकर्ताओं से संवाद करेंगे और मोदी सरकार का विरोध करेंगे. इस दौरान राहुल गांधी उन राज्यों में ज्यादा मेहनत करेंगे जहां कांग्रेस की कोई जमीन नहीं है. हालांकि राहुल इस फार्मूले पर सहमत हुए हैं या नहीं, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल रही है. लेकिन सोनिया गांधी को अपने खास नेताओं की यह राय पसंद आई है.

जनसंख्या नियंत्रण पर वकालत की तो JDU बोली ‘अपने मंत्रालय पर ध्यान दें गिरिराजजी’

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बिहार में जेडीयू और बीजेपी के भीतर तकरार लगातार जारी है. अब ताजा विवाद केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के बयान से जुड़ा है. पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन मंत्री गिरिराज सिंह ने आज यूएन रिपोर्ट के हवाले से जनसंख्या नियंत्रण को लेकर ट्वीट किया. गिरिराज ने अपने ट्वीट में कहा, ‘बढ़ती जनसंख्या और उसके अनुपात में घटते संसाधन को कैसे झेल पाएगा हिंदुस्तान? जनसंख्या विस्फोट हर दृष्टिकोण से हिंदुस्तान के लिए खतरनाक है.’

दरअसल यूएन की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत 2027 में चीन को पीछे छोड़ कर सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा. गिरिराज के ट्वीट के बाद जेडीयू उनपर हमलावर हो गई. जेडीयू नेता संजय सिंह ने कहा, ‘देश की 130 करोड़ जनता ने NDA को विकास और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर वोट किया हैं. जनसंख्या वृद्धि वास्तव में एक समस्या है और इसका ध्यान सबको है. सरकार की तरफ से जनसंख्या नियंत्रण के लिए हर संभव प्रयास होने चाहिए लेकिन गिरिराजजी. आपको केंद्र सरकार में जिस विभाग की जिम्मेदारी मिली है, उसकी चिंता करनी चाहिए.’

बता दें, गिरिराज सिंह के बयान के कारण पहले भी बीजेपी और जेडीयू के मध्य तनातनी हो गई थी. अभी कुछ समय पूर्व गिरिराज सिंह ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इफ्तार पार्टी पर सवाल उठाए थे. इसके बाद जेडीयू ने उन्हें संभलकर बयान देने की सलाह दी थी. हालांकि इस मामले में गिरिराज सिंह को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह फटकार लगा चुके हैं.

सोनिया गांधी ने हिंदी में ली सांसद पद की शपथ

औवेसी के शपथ ग्रहण के दौरान लोकसभा में लगे ‘जय श्रीराम’ के नारे

हनुमान बेनीवाल ने लोकसभा में इस खास अंदाज में ली शपथ

जेपी आंदोलन के सिपाही रहे नड्डा कैसे बने बीजेपी में संगठन के सिकंदर?

जयप्रकाश नड्डा बीजेपी के कार्यकारी अध्यक्ष बन गए हैं. पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक में उन्हें इस पद पर मनोनीत किया गया. बैठक के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मीडिया को बताया कि बीजेपी ने अमित शाह के नेतृत्व में कई चुनाव जीते. प्रधानमंत्री ने अब उन्हें गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी दी है तो उन्होंने खुद कहा कि पार्टी की कमान किसी को और संभालना चाहिए. बीजेपी संसदीय बोर्ड ने नड्डा को कार्यकारी अध्यक्ष चुना है.

आपको बता दें कि बीजेपी के मौजूदा अध्यक्ष अमित शाह के गृह मंत्री बनने के बाद इस बात को लेकर कयासों का दौर चल रहा था कि किसे अध्यक्ष पद की कमान मिलेगी. मोदी के मंत्रिमंडल में जब जेपी नड्डा को जगह नहीं मिली तो यह अनुमान लगाया जाने लगा कि वे ही अमित शाह की जगह लेंगे. नड्डा को मोदी—शाह के अलावा संघ का भी चहेता माना जाता है. एक चर्चा यह भी है कि मोदी—शाह भूपेंद्र यादव को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन संघ के दखल के बाद नड्डा के नाम पर मुहर लगी.

जेपी नड्डा फिलहाल अमित शाह की सलाह से पार्टी का कामकाज संभालेंगे, लेकिन कहा जा रहा है कि संगठन के चुनाव होने के बाद वे ही अध्यक्ष बनेंगे. नड्डा का यहां तक पहुंचने का सफर दिलचस्प है. जेपी का परिवार मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर का है, लेकिन उनके पिता डॉ. नारायण लाल नड्डा पटना यूनिवर्सिटी में कॉमर्स के असिस्टेंट प्रोफेसर बनने के बाद पटना में बस गए. यहीं के भिखना पहाड़ी इलाके में 2 दिसंबर 1960 को जेपी का जन्म हुआ. जेपी की शुरूआती पढ़ाई पटना के सेंट जेवियर स्कूल और राममोहन राय सेमिनरी स्कूल से हुई.

जेपी नड्डा को स्कूल के दिनों में स्वीमिंग का बहुत शौक था. उन्होंने ऑल इंडिया जूनियर स्वीमिंग चैंपियनशिप में बिहार की ओर से हिस्सा लेते हुए पदक जीता. नड्डा ने पटना काॅलेज में इंटर की परीक्षा पास की और यहीं से ग्रेजुएट हुए. यहीं से उन्होंने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की. उन्होंने साल 1975 के जेपी मूवमेंट में हिस्सा लिया. इस आंदोलन में भाग लेन के बाद नड्डा एबीवीपी में शामिल हो गए. उन्होंने साल 1977 में अपने कॉलेज में छात्रसंघ सचिव पद का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. इस दौरान उनके पिता डॉ. नारायण लाल नड्डा पटना यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बने.

1980 में पिता डॉ. नारायण लाल नड्डा के रिटायर्ड होने के बाद उनका पूरा परिवार हिमाचल प्रदेश लौट आया. यहां आकर जेपी ने हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में एलएलबी की पढ़ाई शुरू की. इस दौरान उन्होंने छात्रसंघ का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. इस जीत के बाद बीजेपी पर उनकी नजर पड़ी. पार्टी ने उन्हें साल 1991 में अखिल भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय महासचिव बनाया. बाद में वे इस संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने. उनका विवाह 11 दिसंबर 1991 को जबलपुर से सांसद रहे जयश्री बनर्जी की बेटी डॉ. मल्लिका से हुआ, जो वर्तमान में हिमाचल यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफेसर हैं.

जेपी नड्डा मुख्यधारा की राजनीति में साल 1993 में उस समय आए जब उन्होंने हिमाचल प्रदेश की बिलासपुर सीट से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. पहली बार विधायक बनने के बावजूद पार्टी ने उन्हें विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का जिम्मा सौंपा. नड्डा ने साल 1998 और 2007 के चुनाव में भी बिलासपुर सीट से फिर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. इस दौरान नड्डा को प्रदेश की कैबिनेट में भी जगह दी गई. प्रेम कुमार धूमल की सरकार में उन्हें वन-पर्यावरण, विज्ञान व टेक्नालॉजी विभाग का मंत्री बनाया गया. हालांकि इस चुनाव में उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था, लेकिन अनुभव की वजह से धूमल बाजी मार गए.

जेपी नड्डा को राष्ट्रीय राजनीति में लाने का श्रेय नीतिन गडकरी को है. गडकरी जब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तब नड्डा को न सिर्फ राज्यसभा भेजा गया, बल्कि पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया गया. गडकरी के बाद जब राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी नड्डा इसी पद पर बने रहे. राजनाथ सिंह का कार्यकाल पूरा होने के बाद जब बीजेपी के नए अध्यक्ष को लेकर कयासबाजी चल रही थी तब जेपी नड्डा का नाम भी सामने आया था, लेकिन पार्टी की अमित शाह के हाथों में चली गई. यह एक संयोग ही है कि नड्डा अब शाह की विरासत संभालने जा रहे हैं.

जेपी नड्डा को काफी हद तक अमित शाह की तरह ही चुनाव प्रबंधन की रणनीति में माहिर माना जाता है. 2014 चुनाव के दौरान उन्होंने बीजेपी मुख्यालय से पूरे भारत में पार्टी की अभियान की निगरानी की थी. 2019 में उनके पास उत्तर प्रदेश का प्रभार था, नड्डा सपा-बसपा गठबंधन के बाद भी पार्टी को यूपी 62 सीटें दिलवाने में कामयाब रहे. अमित शाह ने 2019 में पार्टी के लिए हर सीट पर 50 फीसदी वोट हासिल करने का लक्ष्य रखा था. नड्डा ने यूपी में पार्टी को 49.6 फीसदी वोट दिलाने का करिश्मा कर दिखाया. मोदी की महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य परियोजना आयुष्मान भारत की सफलता का श्रेय भी नड्डा को दिया जाता है. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री रहते हुए जेपी नड्डा ने इस योजना को लागू किया.

कैलाश चौधरी ने ली लोकसभा में सांसद पद की शपथ

इन पूर्व क्रिकेटर्स ने सजाई सियासी पिच पर फिल्डिंग, कुछ फिस्ड्डी तो कुछ रिकॉर्डधारी

क्रिकेट और राजनीति का रिश्ता काफी पुराना है. कई दिग्गज़ खिलाड़ियों ने क्रिकेट में कीर्तिमान स्थापित करने के बाद राजनीति की पिच पर भी अपना जौहर दिखाया है. वहीं कुछ दिग्गज़ इस सियासी पिच पर फिसड्डी साबित हुए. पॉलिटॉक्स की इस खास रिपोर्ट में उन क्रिकेट खिलाड़ियों के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने क्रिकेट में अपना लोहा मनवाने के बाद अपना भाग्य राजनीति में आजमाया है…

नवजोत सिंह सिद्धू:
हमारी इस लिस्ट में पहला नाम है नवजोत सिंह सिद्धू का. क्रिकेट में अपनी विस्फोटक बल्लेबाजी के दम पर अपनी अलग पहचान बनाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू ने राजनीति के पिच पर भी विपक्ष दलों की हर बॉल पर छक्का लगाया है. सिद्धू ने अपनी राजनीति की पारी की शुरुआत बीजेपी के साथ की. वो 2004 में अमृतसर लोकसभा सीट से सांसद चुने गए. राजनीति के मैदान में सिद्धू क्रिकेट की तरह ऐसे जमे कि वो यहां से लगातार तीन बार सांसद चुने गए. 2014 में उनका टिकट काट दिया गया और उनकी जगह अमृतसर से अरुण जेटली को उम्मीदवार बनाया गया. हालांकि जेटली को हार का सामना करना पड़ा. पार्टी से असंतुष्ट नवजोत ने पहले तो आवाज-ए-पंजाब पार्टी का गठन किया लेकिन बाद में कांग्रेस का दामन थाम लिया. सिद्धू वर्तमान में पंजाब सरकार में कैबिनेट मंत्री के रुप में कार्यरत हैं.

कीर्ति आजादः
कीर्ति आजाद 1983 की विश्वकप विजेता टीम का हिस्सा रह चुके हैं. कीर्ति के पिता भगवत आजाद बिहार के मुख्यमंत्री रहे. पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए कीर्ति राजनीति में आए और 1999 में बीजेपी के टिकट पर बिहार की दरभंगा सीट से सांसद चुने गए. हालांकि 2004 में उनको हार का सामना करना पड़ा लेकिन 2009 और 2014 में कीर्ति ने फिर से जीत हासिल की. 2016 में उन्हें अनुशासनहीनता के कारण पार्टी से निलंबित किया गया. इसके बाद वो कांग्रेस से जुड़े और झारखंड की धनबाद सीट से चुनाव लड़ा. हालांकि उन्हें इस बार हार का सामना करना पड़ा है.

मोहम्मद अजहरुद्दीनः
भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन ने क्रिकेट के बाद राजनीति की पिच पर भी भाग्य आजमाया है. मैच फिक्सिंग प्रकरण के चलते 2001 में उनके क्रिकेट खेलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. इसके बाद उन्होंने 2009 में राजनीति की पिच पर उतरने के कांग्रेस का सहारा लिया. पार्टी ने उन्हें यूपी की मुरादाबाद सीट से प्रत्याशी बनाया, जहां उन्होंने जीत हासिल की. 2014 में उन्हें राजस्थान की टोंक-सवाईमोधापुर लोकसभा सीट पर हार का सामना करना पड़ा.

चेतन चौहानः
क्रिकेट में अपनी गेंदबाजी का लोहा मनवा चुके चेतन चौहान ने राजनीति में कई बार विपक्षी उम्मीदवारों के डंडे उडाए. वो बीजेपी के टिकट पर यूपी की अमरोहा लोकसभा क्षेत्र से दो बार सांसद चुने गए. वर्तमान में योगी सरकार में युवा एवं खेल मंत्रालय के मंत्री हैं.

गौतम गंभीरः
2011 में क्रिकेट विश्वकप विजेता टीम के सदस्य रहे गौतम गंभीर ने हाल ही में सियासी पिच पर कदम रखा और बीजेपी के टिकट पर पूर्वी दिल्ली से चुनाव लड़ा. यहां उन्होंने आम आदमी पार्टी की आतिशी को बड़े अंतर से मात दी और राजनीति में सफल शुरूआत की. अपनी बेबाक छवि के चलते उनका राजनीति करियर लंबा जाने की पूरी उम्मीद है.

मौहम्मद कैफः
टीम इंडिया के पूर्व खिलाड़ी मोहम्मद कैफ ने सियासी पिच पर कदम तो रखा लेकिन विफल साबित हुए. 2014 के लोकसभा चुनाव में कैफ कांग्रेस के टिकट पर यूपी की फुलपुर लोकसभा सीट से चुनावी मैदान में उतरे. यहां उनको बीजेपी के केशव प्रसाद मौर्य से हार का सामना करना पड़ा था. इस हार के साथ ही कैफ राजनीति से दूर हो गए.

विनोद कांबलीः
भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व खिलाड़ी और सचिन तेंदुलकर के बचपन के दोस्त विनोद कांबली ने भी राजनीति में अपने हाथ आजमाए हैं. उन्होंने 2009 में लोक भारती पार्टी की तरफ से महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव लड़ा था लेकिन करारी हार का सामना करना पड़ा.

मनोज प्रभाकरः
टीम इंडिया के पूर्व ऑल-राउंडर मनोज प्रभाकर भी राजनीति में सफल नहीं हो पाए. 1996 में मनोज प्रभाकर ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस के टिकट पर साउथ दिल्ली से चुनावी मैदान में उतरे. हालांकि जीत उनसे कोसो दूर रह गयी.

कोटा सांसद ओम बिरला होंगे लोकसभा के नए स्पीकर

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अपने फैसलों से चकित करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर चौंकाने वाला फैसला किया है. मोदी ने लोकसभा स्पीकर पद के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी, राधामोहन सिंह, रमापति राम त्रिपाठी, एसएस अहलुवालिया और डॉ. वीरेंद्र कुमार जैसे दिग्गजों को दरकिनार कर राजस्थान की कोटा सीट से दूसरी बार सांसद बने ओम बिरला के नाम को फाइनल किया है. बिरला आज ही अपना नामांकन दाखिल करेंगे. उन्हें बीजेपी अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह का करीबी माना जाता है.

यदि विपक्ष की ओर से किसी ने नामांकन दाखिल किया तो बुधवार को मतदान के बाद स्पीकर का चुनाव होगा अन्यथा सर्वसम्मति से बिरला को अध्यक्ष चुन ​लिया जाएगा. मतदान होने की ​स्थिति में भी बिरला का स्पीकर बनना तय है, क्योंकि लोकसभा में एनडीए के पास बंपर बहुमत है. यह दूसरा मौका है जब राजस्थान के कोई सांसद लोकसभा के स्पीकर बनेंगे. इससे पहले बलराम जाखड़ लोकसभा के स्पीकर रहे हैं. जाखड़ उस समय राजस्थान की सीकर सीट से सांसद चुने गए थे. हालांकि वे मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले नहीं थे.

ओम बिरला कोटा से दूसरी बार सांसद चुने गए हैं. उन्होंने कांग्रेस के रामनारायण मीणा को पटकनी दी. बिरला को 800051 वोट मिले जबकि मीणा को 520374 वोट मिले. 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के इज्येराज सिंह को हराया था. उस चुनाव में बीजेपी को 55 फीसदी वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी को महज 38 फीसदी वोट मिले. ओम बिड़ला ने कांग्रेसी उम्मीदवार को करीब दो लाख वोटों से हराया था. सांसद बनने से पहले बिरला 2003, 2008 व 2013 में 12वी, 13वी व 14वीं राजस्थान विधानसभा के सदस्य भी रह चुके हैं.

क्रिकेट के इन दिग्गजों ने आजमाया राजनीति में भाग्य

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