बसपा विधायक राजेन्द्र गुढ़ा का सनसनीखेज आरोप – पैसे लेकर टिकट देती है बसपा
गुरुवार को राजस्थान विधानसभा में एक सेमिनार के दौरान मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के उदयपुरवाटी विधायक राजेन्द्र गुढ़ा ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ सनसनीखेज बयान दिया. विधानसभा में बसपा विधायक राजेंद्र गुढ़ा ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी में पैसे लेकर टिकट दिया जाता है.
राजस्थान विधानसभा राष्ट्रमंडल परिषद द्वारा आयोजित एक सेमिनार के दौरान उदयपुरवाटी के बसपा विधायक राजेंद्र गुड्डा ने बसपा प्रमुख मायावती पर यह आरोप मढ़ा. लंच के बाद सेमिनार का दूसरा सत्र चल रहा था, सत्र के आखिरी में विधायकों की ओर से सवाल लिए जाने थे. इस दौरान बीएसपी विधाय़क राजेन्द्र गुड्डा ने मंच पर मौजूद वक्ताओं से सवाल पूछा.
सत्र के दौरान विधानसभा में उदयपुरवाटी से बसपा विधायक राजेंद्र गुढ़ा ने कहा की, ‘हमारी पार्टी बहुजन समाज पार्टी में पैसे लेकर टिकट दिया जाता है..कोई और ज्यादा पैसे दे देता है तो पहले का टिकट कट कर दूसरे को मिल जाता है. तीसरा कोई ज्यादा पैसे दे देता है तो उन दोनों का टिकट कट जाता है.’ गुढ़ा ने आगे कहा, ‘पैसे से चुनाव प्रभावित हो रहे हैं. गरीब आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता. पार्टियों में टिकट के लिए पैसे का लेन-देन होता है. हमारी पार्टी बसपा में भी ऐसा ही होता है.‘
यह पहला मौका नहीं है जब मायावती की बहुजन समाज पार्टी पर पैसे लेकर टिकट बांटने का आरोप लगा हो. इससे पहले भी कई नेता बसपा पर यह आरोप लगा चुके हैं. पिछले साल उत्तर प्रदेश विधान परिषद के पूर्व सदस्य मुकुल उपाध्याय ने आरोप लगाया था कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने उन्हें अलीगढ़ से टिकट देने के बदले पैसे मांगे थे. बसपा से निकाले गए उपाध्याय ने कहा था कि मायावती ने उन्हें टिकट देने के एवज में 5 करोड़ रुपये मांगे थे. साल 2016 में दो पार्टी विधायकों ने पैसे लेकर टिकट देने के आरोप लगाए थे. हालांकि बसपा की ओर से हमेशा इस तरह के आरोपों का खंडन किया गया है.
उत्तरप्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी पर 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान पैसे लेकर टिकट देने के आरोप लगे थे. रोमी साहनी और ब्रजेश वर्मा ने आरोप लगाया था कि बसपा की बदनामी इसलिए हो रही है क्योंकि पार्टी टिकट के लिए पैसा मांगा जा रहा है. यह बीआर आंबेडकर और कांशीराम के विचारों के खिलाफ है. दोनों का आरोप था कि बसपा के टिकट के लिए 2 से 10 करोड़ रुपये मांगे जा रहे हैं और मौजूदा विधायकों को भी बख्शा नहीं जा रहा है.
बता दें कि बीते साल दिसंबर में हुए चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 6 सीटें मिली थी. बसपा राजस्थान में कांग्रेस के साथ सरकार में शामिल है. इनमें उदयपुरवाटी से बसपा विधायक राजेन्द्र गुड्डा को राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत का काफी नजदीकी माना जाता है. वर्तमान राजस्थान सरकार में मंत्री भंवर सिंह भाटी को राजेन्द्र गुड्डा का रिश्तेदार भी बताया जाता है.
गौरतलब है कि राजस्थान में 2008 की कांग्रेस सरकार में भी बसपा से जीते 6 विधायकों को शामिल किया गया था और राजेन्द्र गुढ़ा को सरकार में मंत्री बनाया गया था. ऐसा माना जा रहा है कि वर्तमान गहलोत सरकार के संभावित मंत्रिमंडल विस्तार को देखते हुए राजेन्द्र गुढ़ा ने इस तरह की सनसनीखेज बयानबाजी की है.
जम्मू-कश्मीर में क्या है धारा 370 और 35ए का विवाद ?
जम्मू-कश्मीर में संविधान की धारा 370 और 35ए लागू होने के कारण उसे पूरे देश से अलग राज्य का दर्जा मिला हुआ है, इसको लेकर बहुत विवाद है. केंद्र की सत्ता में आने से पहले धारा 370 भाजपा का चुनावी मुद्दा भी हुआ करता था. भाजपा उसे हटाने की मांग करती थी, लेकिन अब पांच साल पूरे करने के बाद भाजपा फिर से पांच साल के लिए सत्ता में आ गई है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हमेशा की तरह लगी हुई है. अब भाजपा के दुबारा सरकार में आने के बाद धारा 35ए के मुद्दे ने भी जोर पकड़ लिया है.
धारा 370 के तहत कश्मीर राज्य तीन विषयों में भारतीय संघ से जुड़ा हुआ है. बाकी मामले में उसे स्वायत्तता हासिल है. धारा 370 अस्तित्व में कैसे आई, इसका इतिहास उस प्रारूप से संबंधित है, जो भारतीय रियासतों के एक राष्ट्र भारत में विलय के लिए बनाया गया था, क्योंकि अंग्रेज सरकार भारत छोड़कर जा रही थी, भारतीय रियासतों को नहीं. इसलिए विलय का प्रारूप बना. भारत के दो हिस्से किए गए, हिंदुस्तान और पाकिस्तान. इस स्थिति में विलय का प्रारूप बनाना जरूरी भी था. विलय का प्रारूप बनने के बाद तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन की अध्यक्षता में 25 जुलाई 1947 को सभी रियासतों के प्रमुखों की बैठक हुई, जिसमें रियासतों से यह तय करने के लिए कहा गया कि वे किस देश में रहना पसंद करेंगे.
रियासत प्रमुखों को वितरित किए गए विलय पत्र का प्रारूप एक समान था, जिसमें कुछ भी लिखना या काटना संभव नहीं था. रियासतों के राजा या नवाब को अपना नाम, पता, रियासत का नाम और उस पर मुहर लगाकर दस्तखत करके यह निर्णय करना था कि वे किस देश रहेंगे. 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए विलय पत्र पर दस्तखत किए थे. अगले दिन 27 अक्टूबर को माउंटबेटन ने इसकी मंजूरी दी. इसमें कोई शर्त नहीं थी और विशेष दर्जे जैसी कोई मांग भी नहीं थी. इस वैधानिक दस्तावेज पर दस्तखत होने के बाद पूरा जम्मू-कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर सहित) भारत का अभिन्न अंग बन गया था. सरदार वल्लभभाई पटेल गृह मंत्री थे और केंद्र और रियासत के कानून एक समान थे.
जम्मू-कश्मीर को लेकर 17 अक्टूबर 1949 को पैदा हुए विवाद ने इतना तूल पकड़ा कि यह राज्य समस्याग्रस्त बन गया. उस दिन संसद में गोपाल स्वामी अयंगार ने कहा कि हम जम्मू और कश्मीर को नया आर्टिकल देना चाहते हैं. तब महाराजा हरि सिंह के दीवान रहे गोपाल स्वामी अयंगार भारत के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य थे. उनसे पूछा गया, ऐसा क्यों, तो उन्होंने कहा कि आधे कश्मीर पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया है और इधर बचे हिस्से में नई समस्याएं पैदा हो गई हैं. इस तरह वहां की स्थिति अन्य राज्यों से अलग है. ऐसे में फिलहाल वहां के लिए एक नए आर्टिकल की जरूरत होगी, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में पूरा संविधान लागू करना संभव नहीं होगा. इसलिए अस्थायी तौर पर धारा 370 लगाई जा सकती है, जो हालात सामान्य होने के बाद हटा दी जाएगी.
बहस के बाद आयंगार का प्रस्ताव पारित हो गया और भारतीय संविधान के 21वें भाग में एक अनुच्छेद 370 भी जोड़ दिया गया. संविधान में यह धारा सबसे आखिरी में जोड़ी गई थी. इस धारा के तीन खंड हैं, इसके तीसरे खंड में लिखा है कि भारत का राष्ट्रपति जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा के परामर्श से धारा 370 कभी भी खत्म कर सकता है. हालांकि अब संविधान सभा नहीं है, इसलिए राष्ट्रपति को यह धारा हटाने के लिए किसी से परामर्श की जरूरत भी नहीं है.
इससे स्पष्ट है कि धारा 370 भारत की संसद ने लागू की है और वही उसे हटा भी सकती है. इस धारा को हटाने का अधिकार जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को नहीं है, क्योंकि वहां के राजा ने इसे लागू नहीं किया था. यह धारा उस समय लागू की गई थी, जब वहां युद्ध जैसे हालात थे और पाक अधिकृत कश्मीर की जनता पलायन करके भारत में आ रही थी. इन परिस्थितियों में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वहां संपूर्ण संविधान को लागू करना उचित नहीं समझा.
धारा 370 के प्रावधानों के मुताबिक संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है. अन्य किसी विषय से संबंधित कानून लागू करने के लिए राज्य सरकार की सहमति लेना जरूरी है. इस विशेष दर्जे के कारण जम्मू-कश्मीर में धारा 356 लागू नहीं की जा सकती. राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार भी नहीं है. 1976 का शहरी भूमि कानून भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता. भारत के अन्य राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते हैं. भारतीय संविधान की धारा 360 को भी जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया जा सकता जिसके तहत राज्य में वित्तीय आपातकाल लागू करने का प्रावधान है.
धारा 35ए का इतिहास यह है कि जम्मू-कश्मीर के अंतरिम प्रधानमंत्री बनने के बाद शेख अब्दुल्ला वहां के अंतरिम प्रधानमंत्री बने थे. 1952 में इनका भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ समझौता हुआ, जो दिल्ली समझौता कहा जाता है. इसके तहत संविधान की धारा 370 (1) (डी) के तहत भारत के राष्ट्रपति को राज्य विषयों के लाभ के लिए संविधान में अपवाद और संशोधन करने का अधिकार है. इसका इस्तेमाल करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने मई 1954 में एक आदेश के जरिए धारा 35ए लागू की थी. यह धारा जम्मू-कश्मीर की सरकार और वहां की विधानसभा को जम्मू-कश्मीर की स्थायी नागरिकता तय करने का अधिकार देती है. इसी धारा के आधार पर 1956 में जम्मू-कश्मीर ने राज्य में स्थायी नागरिकता की परिभाषा तय कर दी, जो अब विवाद की जड़ बनी हुई है.
जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 का कड़ा विरोध किया था. वह जम्मू-कश्मीर को अलग दर्जा दिए जाने के सख्त खिलाफ थे. इसके लिए उन्होंने एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान नहीं चलेगा- नारा भी दिया था. मतभेदों के कारण उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर नई राजनीतिक पार्टी भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी. 1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी बिना परमिट जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकले थे, जिसके कारण 11 मई 1953 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. गिरफ्तारी के कुछ दिन बाद 23 जून 1953 को उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई. उस समय धारा 370 के तहत कश्मीर में बिना परमिट यात्रा करना गैर कानूनी था. यह प्रावधान बाद में हटा दिया गया.
धारा 35ए के तहत जम्मू-कश्मीर का स्थायी नागरिक वह है जो 14 मई 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो या फिर उससे पहले 10 वर्षों से राज्य में रह रहा हो, साथ ही उसने वहां संपत्ति हासिल की हो. भारत के किसी अन्य राज्य का निवासी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं बन सकता है और इसलिए वह वहां वोट भी नहीं डाल सकता है. इसके तहत राज्य में कोई गैर कश्मीरी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता. अगर जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी अन्य राज्य के लड़के से शादी कर लेती है तो उसके सारे अधिकार समाप्त हो जाते हैं. साथ ही उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाते हैं. राज्य सरकार अपने हिसाब से कोई कानून बदले तो उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है. किसी अन्य राज्य का व्यक्ति जम्मू-कश्मीर में व्यापारिक संस्थान भी नहीं खोल सकता है.
भाजपा जम्मू-कश्मीर में चुनाव के लिए तैयार, 35ए पर फैसला केंद्र का अधिकार
जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक माहौल इस समय जोर पकड़े हुए है. टीवी चैनलों पर भी कश्मीर के विशेष दर्जे पर वाद विवाद के कार्यक्रम देखे जा रहे हैं. मीडिया में धारा 370 और 35ए की जोरदार चर्चा है. कई लोग मानते हैं कि अब अमित शाह गृहमंत्री बन गए हैं, तो कश्मीर से धारा 35ए तो खत्म हो ही जाएगी, लेकिन जम्मू-कश्मीर की स्थानीय पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने यह कहते हुए इसका जोरदार विरोध किया है कि अगर धारा 35ए हटी तो इसका नतीजा बम विस्फोट की तरह होगा.
मंगलवार को दिल्ली में भाजपा के कश्मीर कोर ग्रुप की बैठक हुई थी. उसके बाद बुधवार को पार्टी महासचिव राम माधव ने श्रीनगर में भाजपा कार्यकर्ताओं के सम्मेलन को संबोधित किया. यह भाजपा की चुनावी तैयारियों का संकेत है. सम्मेलन के मौके पर पत्रकारों से बात करते हुए राम माधव ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में स्थानीय पार्टियों के नेता जबरन भय का माहौल बनाने में लगे हुए हैं, संविधान की धारा 35ए के बारे में फैसला केंद्र सरकार को लेना है और मोदी सरकार राज्य के हित में ही फैसला लेगी.
भाजपा महासचिव ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराना भाजपा की प्राथमिकता में है और पार्टी ने इसकी तैयारी शुरू कर दी है. उन्होंने कहा कि कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों की आवाजाही एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन स्थानीय पार्टियां इसको लेकर लोगों में भय पैदा करने का प्रयास करती हैं. अमरनाथ यात्रा जारी रहने से राज्य में अतिरिक्त सुरक्षा बल तैनात किया गया है. लेकिन कई लोग सोशल मीडिया पर इसका उलटा प्रचार कर रहे हैं.
आगे राम माधव ने कहा कि अगर चुनाव आयोग राज्य में राष्ट्रपति शासन हटने से पहले विधानसभा चुनाव कराने का फैसला करता है तो भाजपा इसके लिए तैयार है. जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में भाजपा कार्यकर्ता सक्रिय हो गए हैं. जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव भाजपा अकेले अपने दम पर लड़ेगी और सभी 87 विधानसभा सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार खड़े होंगे. धारा 35ए के बारे में कोई सीधी जवाब देने से पचते हुए राम माधव ने कहा कि यह मुद्दा केंद्र सरकार के अधीन है.
धारा 35ए के बारे में जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के बयान पर राम माधव ने कहा कि इस तरह की बयानबाजी करके वह सिर्फ राजनीति में बने रहने का प्रयास कर रही हैं. उन्होंने कहा कि जबसे भाजपा सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है, तब से इस तरह के नेताओं ने दूसरी तरह के नाटक शुरू कर दिए हैं.
राजस्थान में गहलोत और पायलट की खींचतान और तेज होने के आसार
संसद सत्र के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक होने की संभावना है. गुरुवार को आये कांग्रेस नेता रणदीव सुरजेवाला के ताजा बयान के अनुसार, ‘संसद सत्र के बाद होगी कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक.’ हालांकि सुरजेवाला ने यह भी कहा है कि बैठक का कोई एजेंडा अभी निर्धारित नहीं है. लेकिन पार्टी सुत्रों की मानें तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी की होने वाली इस बैठक में पार्टी के अंतरिम अध्यक्ष पर फैसला हो सकता है.
सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस पार्टी के अंतरिम अध्यक्ष बनने की दौड़ से अशोक गहलोत और सचिन पायलट, दोनों ही बाहर हो चुके हैं, इसलिए अब राजस्थान में इन दोनों नेताओं के समर्थकों की खींचतान और बढ़ेगी. अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं और सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के साथ ही राज्य के उप मुख्यमंत्री भी हैं. दोनों खेमे राज्य में अपनी पकड़ मजबूत करने में जुट गए हैं.
गहलोत खेमे ने एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत का हवाला देते हुए पायलट को किसी एक पद से हटाने के लिए अभियान तेज कर दिया है. गहलोत के समर्थक प्रदेश अध्यक्ष पद पर किसी जाट नेता की नियुक्ति चाहते हैं. इसके लिए अनौपचारिक कोशिशें शुरू हो गई है. लालचंद कटारिया, सुभाष महरिया या हरीश चौधरी में से किसी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए तगड़ी लॉबिंग हो रही है.
गौरतलब है कि अगले साल की शुरूआत में राज्य में स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव होने वाले हैं. सचिन पायलट उप मुख्यमंत्री होने के साथ ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी हैं और उनके पास पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव चिन्ह आवंटित करने का अधिकार रहेगा. यह स्थिति गहलोत समर्थकों के लिए असुविधाजनक होगी. यही कारण है कि पायलट को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने के प्रयास शुरू हो गए हैं. दूसरी तरफ पायलट समर्थकों ने गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है. उनका कहना है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राज्य में एक भी सीट नहीं मिली, इसकी जिम्मेदारी गहलोत को लेनी चाहिए. हालांकि इस तरह के अभियान का बेअसर रहना तय है क्योंकि हाईकमान पहले ही मान चुका है लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर राज्यों में मुख्यमंत्री नहीं हटेंगे.
पायलट के एक समर्थक का कहना है, पार्टी ने वर्ष 2018 के विधानसभा चुनावों में जो बढ़त बनाई थी, वह गहलोत की कल्पनाशीलता से रहित और पुराने जमाने की राजनीति के कारण विफल हो रही है. निर्णय नहीं लिए जाने की वजह से नीतिगत गतिहीनता आ गई है. गहलोत के पिछले महीनों के कार्यकलापों से ऐसा नहीं लगता कि उससे पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने में मदद मिली हो. पायलट समर्थक इससे भी दुखी हैं कि गहलोत ने अब तक संवैधानिक पदों, आयोगों, कमेटियों में नियुक्तियां नहीं की हैं.
फिलहाल गहलोत सरकार आरपीएससी के लंबित पदों के भरने में लगी हुई है, जबकि लोकायुक्त पद अब तक खाली है. मदरसा बोर्ड और अल्पसंख्यक आयोग में मनोनयन से भरे जाने वाले पद भी खाली हैं. राज्य सूचना आयुक्त के पद पर भी अभी तक किसी की नियुक्ति नहीं हुई है. इस तरह कई पदों पर नियुक्तियां नहीं हो रही हैं और गहलोत और पायलट, दोनों का दिल्ली जाना-आना लगा रहता है. कांग्रेस में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद हाईकमान में भी उथल पुथल है. अंतरिम अध्यक्ष की नियुक्ति करने में हाईकमान के नेताओं को पसीना आ रहा है.
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इस तरह राजस्थान में कांग्रेस के दो खेमे स्पष्ट हैं. उधर भाजपा की भी यही हालत है. एक वसुंधरा का खेमा और दूसरा अमित शाह के समर्थकों का खेमा. राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियां अपसी मतभेदों से जूझ रही हैं. केंद्र में भाजपा मोदी-शाह के कारण मजबूत है, जबकि राज्य में कांग्रेस गहलोत के कारण मजबूत है. पायलट राजस्थान में कांग्रेस के नए नेता हैं और राजस्थान से उनका वैसा घनिष्ठ संबंध नहीं रहा है, जैसा गहलोत का रहा है. इसके बावजूद पायलट अगर गहलोत की जगह खुद को स्थापित करने की महत्वाकांक्षा पालते हैं और दोनों खेमों में टकराव की स्थिति बनती है, तो वह कांग्रेस के लिए ठीक नहीं है. भाजपा के रणनीतिकार तो यही चाहते हैं.
पायलट बने विधायक दल के कप्तान
बुधवार को राजधानी के सवाईमान सिंह स्टेडियम स्थित राजस्थान क्रिकेट एकेडमी के मैदान पर सुबह का नजारा कुछ अलग सा था. अकसर खुले मंच या विधानसभा में एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने वाले सभी दलों के दिग्गज विधायक और मंत्री यहां एक साथ क्रिकेट खेलते दिखे. कुछ मंत्री-विधायक मैच की कमेन्ट्री करते नजर आए तो कुछ अपने साथी विधायकों की हौसला अफजाही करते और एक दूसरे के साथ ठहाके लगाते हुए नजर आये.
दरअसल बुधवार सुबह राजस्थान क्रिकेट एकेडमी के मैदान पर एक विशेष क्रिकेट मैच खेला गया. यह मैच राजस्थान विधानसभा अधिकारी/ कर्मचारी स्टाफ और सदन के भीतर बैठने वाले विधायकों के बीच खेला गया. विधायकों की टीम डिप्टी सीएम सचिन पायलट की कप्तानी में मैदान पर उतरी जिसमें कांग्रेस भाजपा सहित निर्दलीय विधायक भी शामिल थे वहीं विधानसभा स्टाफ की टीम मार्शल संजय चौधरी के नेतृत्व में मैदान में उतरी. टॉस के बाद शुरुआत में विधायकों को गेंदबाज़ी करने का मौका मिला तो खिलाड़ियों को मैदान में तैनात करने के लिए विधायक टीम के कप्तान सचिन पायलट मैदान पर मुस्तैद नज़र आए.
बता दें, राजनीती के दिग्गज राज्य के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट ने इस मैच में फिलडींग ठीक उसी प्रकार सैट की जिस तरह विधानसभा चुनाव में अपने विधायकों को जिताने के लिये की थी, पर इस बार अंतर सिर्फ इतना सा था कि उनकी टीम में कांग्रेस के अलावा भाजपा के और कुछ निर्दलीय विधायक भी शामिल थे. इस रोमांचित मैच के दौरान मंत्री रघु शर्मा.. विधायक जोगेश्वर गर्ग… बलवान पूनिया.. कृष्णा पूनिया कमेन्ट्री कर मैच का लुत्फ़ उठाते नजर आये… विधायकों और विधानसभा स्टाफ के बीच खेला गया यह मैच भले ही दोस्ताना हो किन्तु इस मैच में सभी दलों के विधायकों ने अपने जुझारूपन का पूरा परिचय दिया.
मैच में डिप्टी सीएम सचिन पायलट विधायक टीम के कप्तान थे, तो खेल मंत्री अशोक चांदना उप कप्तान के तौर पर मैदान पर डटे रहे. विधायकों की टीम के खिलाफ विधानसभा स्टाफ की टीम ने पहले खेलते हुए विधायक टीम को 134 रन लक्ष्य दिया इस लक्ष्य को विधायकों की टीम प्राप्त नहीं कर सकी, किन्तु लक्ष्य का पीछा कर रहीं विधायकों की टीम के उप-कप्तान और खेल मंत्री अशोक चांदना ने अपनी 46 रन की पारी में मैदान पर छक्के-चौकों की बरसात से सभी का दिल जीत लिया तो वहीं टीम के कप्तान डिप्टी सीएम सचिन पायलट खाता भी नही खोल पाए और पहली ही गेंद पर बोल्ड गए.
विधानसभा स्टाफ की टीम ने विधायक टीम को 23 रन से शिकस्त दी. इस मैच में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए विधानसभा स्टाफ टीम के खिलाड़ी सोमिन्दर सिंह को मैन ऑफ द मैच चुना गया वहीं बेस्ट बॉलर के लिए सचिन पायलट को तो वहीं बेस्ट बैट्समैन का अवार्ड अशोक चांदना को दिया गया. मैच के दौरान कॉमेंट्री कर रहे विधायक बलवान पुनिया व कृष्णा पुनिया को बेस्ट कमेंट्रेटर का अवार्ड दिया गया.
मैच के दौरान विधानसभा स्पीकर सीपी जोशी के साथ नेता प्रतिपक्ष गुलाब चंद्र कटारिया और उपनेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र राठौड सहित अन्य कई विधायक अपने साथी खिलाड़ी विधायकों का पूरे जोश के साथ हौसला-अफजाई करते नजर आए.
इस मौके पर पत्रकारों से बात करते हुए विधानसभा स्पीकर सीपी जोशी ने कहा कि ऐसे आयोजन से आपसी सौहार्द और खेल भावना को मजबूती मिलती हैं. नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने भी आपसी सदभाव बढ़ाने में ऐसे आयोजनों की महत्वपूर्ण भूमिका बताई. उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने ऐसे आयोजनों को लगातार जारी रखने की बात कही. पायलट ने कहा कि ऐसे आयोजनों से आपस में बॉन्डिंग मजबूत होती है, साथ ही खेल में सक्रिय रहने पर आदमी शारीरिक और मानसिक तौर पर मजबूत भी होता है