1975 में 12 जून के दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को खारिज कर दिया था. यही वह फैसला था जो देश में आपातकाल लगाने का कारण बना. उस समय प्रधानमंत्री सचिवालय में संयुक्त सचिव रहे बिशन टंडन ने इस दौरान हुई गतिविधियों के बारे में विस्तार से लिखा है. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘आपातकाल एक डायरी’ में साफतौर पर लिखा है कि इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री की अपनी कुर्सी बचाने के लिए ही देश पर आपातकाल थोपा.
टंडन ने अपनी पुस्तक में लिखा है, ‘यदि प्रधानमंत्री को समझ सका हूं तो वे और चाहे कुछ करें पर कुर्सी कभी नहीं छोड़ेंगी. अपने को सत्ता में रखने के लिए वे गलत से गलत काम करने में भी नहीं हिचकिचाएंगी.’ इस दौरान हुई घटनाओं का जिक्र करते हुए टंडन ने लिखा है, ‘सुबह-सुबह समाचार मिला कि सोवियत यूनियन में भारत के राजदूत की मत्यु हो गई. कार्यालय पहुंचते ही बीआर मेरे कमरे में आ गया. काम करने का विशेष मन नहीं था. प्रधान मंत्री कार्यालय नहीं आई थीं. इलाहाबाद से समाचार आने की प्रतीक्षा थी.
बिशन टंडन ने आगे लिखा है, ‘दस बजकर पांच मिनट पर फोन आया कि निर्णय प्रधानमंत्री के प्रतिकूल हुआ है. मैंने टेलिप्रिंटर पर स्वयं पढ़ा कि जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री के लोकसभा के लिए निर्वाचन को रद्द कर दिया है और भ्रष्टाचार के आरोप को ठीक मान कर उन्हें छह साल तक निर्वाचन के अयोग्य घोषित कर दिया है. मैं प्रो. धर के कमरे की ओर बढ़ा. वे जल्द ही प्रधानमंत्री निवास जाना चाहते थे. मैं शारदा के कमरे में चला गया.’
‘लंच तक शेषन और शारदा भी प्रधानमंत्री निवास से आ गये थे. शेषन ने बताया कि निर्णय आने के बाद प्रधानमंत्री निवास पर मंत्रीगण आना शुरू हो गए. कुछ देर प्रधानमंत्री ने गोखले, सिद्धार्थ और पालकी वाला से बातचीत की. साढ़े दस बजे ही प्रधानमंत्री, संजय और धवन की गुपचुप बातचीत के बाद धवन ने दिल्ली में कई लोगों को फोन किया कि प्रधानमंत्री के समर्थन में शीघ्र रैली आयोजित की जाए. उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को भी फोन हुआ कि वे भी सीमावर्ती जिलों से रैली के लिए लोगों को भेजें और लखनऊ में भी रैली कराएं.’
‘बंसी लाल ने प्रधानमंत्री निवास से भी आदेश दिए कि उनके राज्य के सभी डिप्टी कमिश्नर इन रैलियों को करने में पूरी मदद करें. थोड़ी देर में बहुत जगह फोन खटखटाए गए कि जनसमर्थन दिखाने के लिए शीघ्र प्रदर्शन होने चाहिए. दिल्ली का पूरा प्रशासनिक तंत्र इस काम में जुट गया और रैलियां प्रारंभ हो गईं. लंच तक यह भी निर्णय प्रधानमंत्री ने कर लिया था कि वे प्रधानमंत्री पद पर फिलहाल बनी रहेंगी और सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगी. इसकी सूचना शारदा ने पीटीआई और यूएनआई को दी.’
‘प्रधानमंत्री खुद प्रेस से बात नहीं कर रही हैं. हमारे कार्यालय में जीआर, बीआर शारदा और शेषन की यही राय है कि प्रधानमंत्री को इस्तीफा नहीं देना चाहिए पर बीआर का यह भी कहना है कि सुप्रीम कोर्ट से पूर्ण स्टे नहीं मिले तो फिर पीएम को इस्तीफा दे देना चाहिए. प्रो.धर की क्या राय है, मुझे नहीं मालूम. संध्या को गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आने लगे. वहां जनता मोर्चा कांग्रेस से काफी आगे है. लगता है कि कांग्रेस की हार होगी. कांग्रेस की क्या, हार प्रधानमंत्री की होगी.’
याद रहे कि गुजरात में कांग्रेस की अंततः हार हो गई और प्रतिपक्ष की सरकार बन गई. यानी 12 जून 1975 को प्रधानमंत्री को तीन-तीन झटके लगे. पारिवारिक विश्वासी डीपी धर का निधन, इलाहाबाद का निर्णय और गुजरात में पराजय. आपातकाल की भूमिका बन गई. दरअसल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जिन चुनावी अपराधों के तहत इंदिरा गांधी के चुनाव को खारिज किया था, उस फैसले को उलटने के लिए कानून में महत्वपूर्ण संशोधन की जरूरत थी.
इस प्रकार का संशोधन सामान्य दिनों में संभव नहीं था, क्योंकि तब जेपी के आंदोलन के कारण देश का राजनीतिक माहौल काफी गर्म था. इसलिए 25 जून की रात में आपातकाल लगाकर अन्य अंगों के साथ-साथ न्यायपालिका को भी आतंकित कर दिया गया. संबंधित चुनाव कानून में अगस्त में इस तरह संशोधन कर दिया गया ताकि इलाहाबाद हाईकोर्ट का जजमेंट निष्प्रभावी हो जाए. यही हुआ भी.
नवंबर 1975 में संशोधित कानून के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद कोर्ट के जजमेंट को रद्द कर दिया. कोई सत्ताकामी नेता किस तरह अपनी गद्दी बचाने के लिए तानाशाह बन कर कानून को ही बदल देता है और किस तरह लोकतंत्र को स्थगित कर देता है, इंदिरा गांधी उसकी मिसाल बनीं. 1975 का जून महीना इस देश में शायद हमेशा ही याद रखा जाएगा. इसे इसलिए भी याद रखना जरूरी है ताकि इसकी कभी पुनरावृत्ति नहीं हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)