यूपी की सियासी गपशप- योगी को मात देने के लिए चाहिए ‘महागठबंधन’, ऐसे बन सकती है बात

यूपी विधानसभा का घमासान, सत्ता विरोधी लहर के बावजूद महागठबंधन की दरकार, एक छाते के नीचे कैसे आएंगे सपा-बसपा और कांग्रेस, बिखरे विपक्ष पर भारी पड़ सकती है भाजपा, साझा विपक्ष का सपना ही दे सकता है अच्छे परिणाम

योगी को मात देने के लिए चाहिए 'महागठबंधन'
योगी को मात देने के लिए चाहिए 'महागठबंधन'

Politalks.News/Uttarpardesh. दिल्ली के सियासी गलियारों में इन दिनों जबरदस्त चर्चा का विषय बने ‘एकजुट‘ विपक्ष को लेकर हवाओं का रुख बदल सा गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ मिशन-2024 को देखते हुए तमाम राजनीतिक दलों को ‘एक छाते‘ के नीचे लाने की कवायद चल रही है. लेकिन, राजनीति के सबसे बड़े रणक्षेत्र यानी उत्तर प्रदेश में आते ही विपक्ष के इस महागठबंधन की सारी उम्मीदें धराशायी हो जाती है. हालांकि उत्तरप्रदेश चुनाव को लेकर सभी पार्टियों ने कमर कस ली है. लेकिन मोदी और योगी की ‘तिलिस्मी जोड़ी‘ को अकेले टक्कर देने की ताकत किसी एक पार्टी में हो ये नजर ऩहीं आ रहा है.

अगले साल की शुरुआत में उत्तरप्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. दिल्ली में एकजुट विपक्ष बनाने की कवायद से उत्तर प्रदेश पूरी तरह से अछूता नजर आ रहा है. भाजपा को 2024 से पहले बड़ा झटका देने के लिए उत्तर प्रदेश में इस महागठबंधन की असल परीक्षा होनी है. कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आप समेत कुछ छोटे दल भी यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में ताल ठोंकने की तैयारी में लगे हुए हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि यूपी चुनाव में महागठबंधन का आदर्श फॉर्मूला क्या हो सकता है?

सपा-बसपा और कांग्रेस को आना होगा साथ!
उत्तप्रदेश में कोरोना से उपजे हालातों और सत्ताविरोधी लहर के बावजूद भाजपा को टक्कर देना आसान नहीं है. विधानसभा चुनाव में योगी को टक्कर देनी है तो समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, बसपा समेत तमाम भाजपा विरोधी दलों को एक साथ आना होगा. साझा विपक्ष के सपने को सपा, कांग्रेस और बसपा मिलकर देखती है, तो इसके परिणाम भी अच्छे मिलने के आसार है. क्योंकि यूपी में सपा, कांग्रेस और बसपा के एक साथ आ जाने से छोटे राजनीतिक दलों की प्रासंगिकता पूरी तरह से गौण हो जाएगी.

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MY+दलित वोट बैंक पर अखिलेश की नजर
समाजवादी पार्टी के ‘मुखिया‘ अखिलेश यादव ही बता चुके हैं कि वो बड़े दलों के साथ गठबंधन नही करेंगे और छोटे सियासी दलों को साथ लाएंगे. एमवाई यानी मुस्लिम+यादव समीकरण के सहारे यूपी की सियासत को बदलने वाले अखिलेश यादव इस बार मायावती के वोटबैंक में भी सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं. दलित दिवाली और बाबा साहेब वाहिनी के सहारे दलित मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने के लिए अखिलेश यादव ने बहुत पहले कदम बढ़ा दिए थे. लेकिन, मायावती के सामने दलित समाज का नया चेहरा बनने की ओर बढ़ रहे आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर ‘रावण‘ ने अखिलेश यादव की इस कोशिश को नुकसान पहुंचाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. चंद्रशेखर रावण ने बाबा साहेब के जन्मदिन के ‘राष्ट्रीय उत्सव‘ को ‘दलित दिवाली‘ में बदलने पर सपा प्रमुख की भरपूर निंदा की थी.

कांग्रेस तो गठबंधन के लिए दे भी चुकी है संकेत!
इधर, उत्तरप्रदेश को लेकर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर से लंबा चौड़ा मंथन किया. इस मुलाकात के बाद चर्चाओं ने जोर पकड़ा है कि 2017 का ‘यूपी के लड़के‘ वाला चुनावी गठबंधन फिर से मूर्तरूप ले सकता है. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने खुद को तैयार करते हुए गठबंधन के लिए संकेत भी दे दिए हैं लेकिन, अभी तक अखिलेश यादव की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है. हालांकि, शरद पवार की लालू प्रसाद यादव और सपा सांसद और अखिलेश के चाचा रामगोपाल यादव से हुई मुलाकात को इस दिशा में ही बढ़े हुए कदम के तौर पर देखा जा रहा है. माना जा रहा है कि इस मुलाकात के बाद सपा और कांग्रेस के बीच नजदीकियां बढ़ सकती हैं. लेकिन, इस पूरी कवायद में मायावती को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

महागठबंधन के लिए बसपा भी है जरूरी!
वहीं राजनीति के जानकारों का मानना है कि केवल सपा-कांग्रेस के गठबंधन के सहारे यूपी में ‘योगी सरकार‘ को मात नहीं दी जा सकती है. उत्तर प्रदेश की सियासत में करीब 22 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले दलित मतदाताओं का पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती से मोहभंग जरूर हुआ था. लेकिन, पिछले दो विधानसभा चुनावों के वोट प्रतिशत पर नजर डालें, तो दिखाई देता है कि बसपा को मिलने वाले वोटों का हिस्सा अभी भी 22 फीसदी के करीब है. मायावती पर भाजपा की एजेंट होने के आरोपों का उनके वोट बैंक को नहीं हिला पाता है. मायावती को यूं ही बसपा सुप्रीमो का खिताब नहीं मिला है. इधर, मायावती पहले ही स्पष्ट कर चुकी हैं कि वो किसी राजनीतिक दल से गठबंधन नहीं करेंगी. वहीं, महागठबंधन की इस कवायद से मायावती को फिलहाल दूर रखा गया है. इस स्थिति में बसपा को साथ में लाने के लिए कौन सा फॉर्मूला लगाया जाएगा, इस पर सभी की नजरें रहेंगी.

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व्यक्तिगत हितों को रखना होगा अलग
उत्तरप्रदेश चुनाव के लिए साझा विपक्ष के आदर्श फॉर्मूले में सपा-कांग्रेस के साथ बसपा का आना बहुत जरूरी है. जिसके लिए इन राजनीतिक दलों को अपने व्यक्तिगत हितों को किनारे रखते हुए सामने वाली पार्टी की मतदाताओं पर मजबूत पकड़ को भी ध्यान में रखना होगा. सभी को एक समान सीटें मिलना तो खैर नामुमकिन नजर आता है. अगर मिशन-2024 से पहले असल में साझा विपक्ष को लेकर कोई कोशिश हो रही है, तो उसकी प्रयोगशाला के लिए यूपी से बड़ा राज्य कोई राज्य नहीं हो सकता है.

क्या मुमकिन होगी सीट शेयरिंग!
उत्तरप्रदेश में सीट शेयरिंग के आदर्श फॉर्मूले की बात करें, तो सपा के खाते में ज्यादा सीटें होने का फायदा मिल सकता है. वहीं, सीट शेयरिंग के मामले में दूसरे नंबर पर बसपा को ही रखना होगा. यूपी में अपने संगठन को फिर से मजबूत करने की कोशिशों में लगी कांग्रेस को कम सीटें भी मिले, तो उसे संतोष कर लेना चाहिए. हां, मायावती के इनकार के बाद बसपा को इस साझा विपक्ष के साथ कैसे जोड़ा जाएगा, ये देखने वाली बात होगी.

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