लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस अपनी खोई जमीन को वापिस पाने की कोशिश कर रही है. इस जमीन को पाने के लिए उसकी सबसे बड़ी आस हरियाणा से है. हरियाणा में इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव हैं. कांग्रेस विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होना चाहती है. लेकिन हरियाणा में कांग्रेस की वापसी के बीच दो स्पीड़ ब्रेकर है. पहला जननायक जनता पार्टी और दूसरा आंतरिक गुटबाजी. चुनाव से पूर्व यह दोनों स्पीड़ ब्रेकर कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं.

चौटाला परिवार में आपसी खींचतान के बाद अजय चौटाला ने जननायक जनता पार्टी का गठन किया. अजय, ओमप्रकाश चौटाला के पुत्र हैं. अब होना तो ये चाहिए था कि इनेलो के विघटन का फायदा कांग्रेस को होना चाहिए लेकिन जननायक जनता पार्टी के गठन का नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है.

जाट हरियाणा में इनेलो के परपरागत वोटर माने जाते थे लेकिन पिछले चुनावों में देखा गया कि जाट वोटर ने अपना रुख इनेलो को छोड़कर कांग्रेस की ओर कर लिया. इसका मुख्य कारण भूपेंद्र हुड्डा रहे. हुड्डा ने पिछले 15 सालों के भीतर हरियाणा में अपनी छवि बड़े जाट नेता की बनाई है जिससे इनेलो की जाट सियासत को गहरा आघात लगा है.

ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला को शिक्षक भर्ती मामले में सजा होने के बाद वैसे ही इनेलो की सियासत ढलान पर थी. दुष्यंत चौटाला के 2014 में हिसार से सांसद बनने के बाद उन्होंने जाट मतदाताओं को फिर से अपनी ओर आकर्षित किया. दुष्यंत अजय चौटाला के पुत्र है जो वर्तमान में जननायक जनता पार्टी का चेहरा हैं.

जजपा की पूरी कमान इन्हीं के हाथ में है. कांग्रेस को आगामी विधानसभा चुनाव में आस है कि जाट मतदाता आरक्षण आंदोलन में सरकार के रवैये से नाराज हैं इसलिए वो इस बार अपना रुख कांग्रेस की तरफ करेंगे. लेकिन चुनाव से 4 माह पूर्व तक जमीन पर ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है.

जाट मतदाताओं के एक बड़े धड़े ने अपना रुख जननायक जनता पार्टी की तरफ किया है जिसकी बानगी पहले जींद उपचुनाव और बाद में हिसार लोकसभा चुनाव में देखने को मिली. बीजेपी की आंधी के बावजूद जाट मतदाता हिसार में दुष्यंत के साथ मजबूती से खड़े रहे. हालांकि लोकसभा चुनाव में जजपा को कुछ खास कामयाबी नहीं मिली लेकिन हिसार के चुनावी नतीजों ने उसकी आस आगामी विधानसभा चुनाव के लिए बढ़ाई है.

लोकसभा चुनाव से पूर्व हुए जींद उपचुनाव में भी जाट जजपा के साथ मजबूती के साथ डटे रहे. यही वजह है कि कांग्रेस के बड़े चेहरे रणदीप सुरजेवाला को यहां से करारी हार का सामना करना पड़ा था. जजपा के उम्मीदवार ने यहां करीब 40 हजार वोट हासिल किए जो किसी नए राजनीतिक दल के लिए अच्छा प्रदर्शन कहा जा सकता है.

कांग्रेस के लिए दूसरी बड़ी परेशानी है गुटबाजी. कांग्रेस अगर किसी राज्य में सबसे ज्यादा गुटबाजी से ग्रसित है तो उसमें हरियाणा सबसे ऊपर है. राहुल गांधी के इतने प्रयास करने के बावजूद भी कांग्रेस की गाड़ी अभी तक पटरी पर नहीं चढ़ पाई है. प्रदेश कांग्रेस के भीतर वर्तमान में चार गुट सक्रिय हैं. इन गुटों के सरगना भूपेंद्र हुड्डा, अशोक तंवर, कुलदीप बिश्नोई और रणदीप सुरजेवाला हैं. राहुल गांधी के कार्यकम के अलावा ये नेता कभी एक जाजम पर नहीं दिखाई देते हैं. साथ ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने का मौका भी हाथ से नहीं फिसलने देते.

हुड्डा और तंवर गुट की अदावत से पूरा हरियाणा वाकिफ है. हुड्डा गुट के करीब 14 विधायक लंबे समय से प्रदेशाध्यक्ष अशोक तंवर को हटाने की मांग कर रहे हैं लेकिन ऐसा होते दिख नहीं रहा है. हालांकि पार्टी हरियाणा में जाट वोट हासिल करने के लिए किसी जाट चेहरे को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर सकती है. लेकिन कांग्रेस की इस रणनीति का उसको चुनाव में ज्यादा फायदा मिलने की उम्मीद कम ही दिख रही है.

जाट समाज के भीतर यह धारणा है कि बंटी हुई कांग्रेस किसी भी हाल में बीजेपी का मुकाबला नहीं कर पाएगी. इसलिए इन दिनों जाट मतदाता चुनाव में कांग्रेस के इतर किसी दूसरे विकल्प की ओर रुख करने का विचार कर रहे हैं.

हाल में हुए लोकसभा चुनाव में विपक्ष का हरियाणा में सूपड़ा साफ हो गया था. बीजेपी ने यहां की सभी दस सीटों पर जीत हासिल की थी. हरियाणा में मोदी की आंधी इतनी जबरदस्त थी कि इसमें भूपेंद्र हुड्डा और दीपेंद्र भी अपना घर नहीं बचा पाए. भूपेंद्र हुड्डा को सोनीपत लोकसभा क्षेत्र से बीजेपी के रमेश कौशिक के हाथों बड़े अंतर से हार का सामना करना पड़ा.

वहीं हुड्डा के पुत्र दीपेंद्र को रोहतक लोकसभा में करीबी अंतर से हार झेलनी पड़ी. उन्हें बीजेपी के अरविंद शर्मा ने करीब 7500 मतों से मात दी. हालांकि दीपेंद्र की हार हरियाणा में सबसे कम अंतर की हार थी लेकिन इस कम अंतर की हार ने उन्हें पांच साल इंतजार के लिए मजबूर कर दिया है.

बता दें, 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी हरियाणा की सत्ता में पहली बार काबिज हुई थी. पार्टी ने प्रदेश की 90 में से 47 सीटों पर कब्जा जमाया था. इसके इतर सत्तासीन कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी बन गई थी. उसके हाथ सिर्फ 15 सीट लगी थी.

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