कहा जाता है कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. हालात तय करते हैं कि दोस्ती किस के साथ होगी और दुश्मनी किसके साथ. सालों से साथ रहने वाले क्षणभर में सियासी दुश्मन बन जाते हैं और विरोधी पलभर में दोस्त. बिहार ने बीते कुछ सालों में इस राजनीतिक कहावत को साकार होते देखा है.

लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को एनडीए का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से जेडीयू नाराज थी. जेडीयू ने खुलकर मोदी की उम्मीदवारी का विरोध किया लेकिन इसका बीजेपी पर कोई असर नहीं पड़ा. प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बदले जाने से जेडीयू, एनडीए से अलग हो गया.

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू लंबे समय के बाद अलग-अलग चुनावी मैदान में उतरे थे. बीजेपी मोदी लहर पर सवार थी और प्रदेश में बड़ी जीत हासिल की. लेकिन जेडीयू के हालात गठबंधन तोड़ने के बाद ज्यादा खराब हो गए. पार्टी को प्रदेश की 40 में से सिर्फ 2 सीटों पर ही जीत हासिल हुई.

लोकसभा चुनाव में मात खाने के बाद नीतीश की अगली परीक्षा विधानसभा चुनावों में होने वाली थी. क्योंकि सरकार में से बीजेपी के अलग होने के बाद नीतीश सरकार अल्पमत में आ गई थी. पार्टी के विधायक अब खुलेआम नीतीश के एनडीए से अलग होने के फैसले का विरोध करने लगे. नीतीश ने इस विरोध को शांत करने के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. नीतीश की जगह जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया गया.

मांझी नीतीश के काफी नजदीकी माने जाते थे इसलिए नीतीश ने उनका चुनाव किया. जेडीयू सरकार अल्पमत में थी लेकिन निर्दलीय विधायकों के कारण उनकी गाड़ी चल गयी. 243 सीटों वाली विधानसभा में जेडीयू के 115 विधायक थे. उन्हें समर्थन के लिए सिर्फ 7 विधायकों की जरुरत थी जो उन्हें आसानी से मिल गए.

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विधानसभा चुनावों को देखते हुए नीतीश कुमार ने फरवरी, 2015 में जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए कहा लेकिन मांझी के मन में तो कुछ और ही चलने लगा था. इसके चलते उन्होंने इस्तीफा देने से इंकार कर दिया. यह नीतीश कुमार और जेडीयू दोनों के लिए झटके जैसा था. जेडीयू विधायकों ने राज्यपाल से मिलकर मांझी को हटाने की मांग की. इसके बाद राज्यपाल ने मांझी को 20 दिन के भीतर विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए कहा.

बहुमत परीक्षण जेडीयू के लिए इतना भी आसान नहीं था क्योंकि अब जीतन को 91 विधायकों वाली बीजेपी का साथ मिल गया था. मांझी के साथ वैसे ही पार्टी के करीब 10 विधायक जुड़े थे. यह नीतीश के लिए चिंता बढ़ाने वाली बात थी. हालांकि दल-बदल कानून के तहत विधायक अंत में जीतनराम से दूर हो गए और बहुमत साबित नहीं हो पाया.

चूंकि नीतीश के पास भी बहुमत नहीं था इसलिए बीजेपी से मुकाबले और अपनी खत्म होती सियासी जमीन को बचाने के लिए दो धुर-विरोधी साथ आ गए. इस गठबंधन ने पूरे देश को चौंका दिया. जिस लालू प्रसाद यादव के जंगलराज को कोसकर नीतीश कुमार सत्ता में आए थे, अब उन्हीं के भरोसे मुख्यमंत्री बनने वाले थे. राजद ने नीतीश का मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन किया. नीतीश एक बार फिर सत्ता पर काबिज हुए. हालांकि यह कार्यकाल कुछ समय के लिए चला क्योंकि विधानसभा का कार्यकाल संपन्न हो चुका था.

विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी हुई. इसके साथ ही प्रदेश की राजनीति में बड़ा फेरबदल देखने को मिला. धुर विरोधियों का संगम हो चुका था. जेडीयू-कांग्रेस-राजद ने गठबंधन में चुनाव लड़ने का ऐलान किया. नतीजे आए तो बीजेपी बुरी तरह से चुनाव में धराशायी हो चुकी थी. गठबंधन का पूरे बिहार में परचम लहरा चुका था. लालू यादव ने पहले ही यह ऐलान कर दिया था कि सीटें किसी की भी ज्यादा हो, बहुमत आने पर मुख्यमंत्री सीट नीतीश कुमार को ही मिलेगी.

नीतीश ने एक बार फिर प्रदेश की कमान संभाली लेकिन इस बार सुशील मोदी की जगह लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री बनाया गया. हालांकि राजद और नीतीश का साथ ज्यादा समय तक नहीं चल पाया. नीतीश ने राजद के समर्थन वाली सरकार के मुखिया के पद से इस्तीफा दे दिया. कारण बताया गया कि राजद के सरकार में शामिल होने के कारण प्रदेश एक बार फिर जंगलराज की तरफ जा रहा है.

नीतीश एक बार फिर बीजेपी के साथ निकल लिए. पुनः 2010 वाली सरकार की पुनरावृति की गई. नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बने और बीजेपी कोटे से सुशील मोदी को उपमुख्यमंत्री बनाया गया. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी जेडीयू-बीजेपी ने गठबंधन में चुनाव लड़ा और बिहार के चुनावी नतीजों में एनडीए की आंधी देखने को मिली. विपक्ष का पूरी तरह से सूपड़ा साफ हो गया.

चुनाव में मिली इस प्रचंड जीत के बाद भी जेेडीयू और बीजेपी के भीतर हालात सामान्य नहीं हैं. पहले तो गठबंधन की गरिमा को झटका दिल्ली में लगा. होना तो यह चाहिए था कि जेडीयू, मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होती लेकिन कम हिस्सेदारी के चलते जेडीयू ने मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होने से इंकार कर दिया. जेडीयू अपने कोटे से 2 या 3 सांसदों को मंत्री बनना चाहती थी लेकिन बीजेपी की तरफ से उसे सिर्फ एक पद दिया जा रहा था. इसके बाद नीतीश ने एनडीए में शामिल होने से इंकार कर दिया.

अब लगा कि मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होने से बिहार की राजनीति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन इसका असर तो तुरंत ही नजर आ गया. बीते रविवार को सीएम नीतीश कुमार ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया है जिसमें 8 नए मंत्री बनाए गए हैं. हैरानी की बात यह रही कि सरकार में साझेदार बीजेपी को यहां शामिल नहीं किया गया.

यहां नीतीश ने बीजेपी को सिर्फ एक पद के लिए नेता का नाम बताने के लिए कहा जिसके बाद बीजेपी ने मंत्रिमंडल विस्तार में अपनी भागीदारी के लिए मना कर दिया. इस मंत्रिमंडल विस्तार को दिल्ली के बदले के रूप में देखा जा रहा है.

हालांकि एनडीए के नेता अपने तमाम बयानों में हालातों को सामान्य बता रहे हैं लेकिन राजनीतिक रूप से देखने पर हालात सामान्य नहीं नजर आ रहे हैं. अपने घोर विरोधी जीतनराम मांझी के इफ्तार में जाना भी नीतीश कुमार के बदले स्वभाव का परिचय देता है. वे अब एक बार फिर से मुस्लिम, यादव, पिछड़ों और महादलितों को अपना वोट बैंक बनाना चाहते हैं. इसके लिए वो फिर से बीजेपी का साथ छोड़ सकते हैं.

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