Politalks.News/Opposition/BJP’sVictory. हाल ही में देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों (Assembly elections) के बाद सियासी गलियारों में चर्चा है की अब भाजपा के खिलाफ तैयार हो रहे विपक्ष के मोर्च का क्या होगा? असल में पांच राज्यों के चुनाव के दौरान विपक्षी पार्टियां गजब राजनीति करती दिख रही थीं. जो पार्टियां इन पांच राज्यों में चुनाव लड़ रही थीं उनको छोड़ कर बाकी प्रादेशिक पार्टियों के ‘क्षत्रप‘ जबरदस्त भागदौड़ कर रहे थे. ममता बनर्जी (Mamata Baenerjee), एमके स्टालिन (M K Stalin), के चंद्रशेखर राव (K Chandrashekhar Rao), शरद पवार (Sharad Pawar), उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray), हेमंत सोरेन (Hemant Soren), तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) आदि प्रादेशिक क्षत्रपों का इन पांच राज्यों में कुछ भी दांव पर नहीं लगा था लेकिन इनके नतीजों से पहले ये सारे नेता विपक्ष का मोर्चा बनाने या भाजपा विरोधी राजनीति के दांव-पेंच में लगे थे. ममता दिल्ली-मुंबई की दौड़ लगा रही थीं तो चंद्रशेखर राव दिल्ली-मुंबई-रांची की दौड़ लगा रहे थे.
इस तरह केंद्र की मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ एक संघीय मोर्चा बन रहा था, यही नहीं दिल्ली या हैदराबाद में विपक्षी मुख्यमंत्रियों की एक बैठक भी होने वाली थी. इस भागदौड़ के मूल में था राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष का साझा उम्मीदवार तय किया जाना, लेकिन अब अचानक सारी चीजें थम सी गई हैं. पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने विपक्ष को जबर्दस्त धक्का दिया. विपक्ष को लेकर सियासी चर्चाओं का दौर जारी है, संभावनाएं तलाशी जा रही है. माना जा रहा है कि अगर अब भी प्रसिद्ध चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर कांग्रेस और प्रादेशिक क्षत्रपों के मोर्चे का रणनीतिक तालमेल कराने और सीटों के एडजस्टमेंट में कामयाब होते हैं तो चुनाव दिलचस्प होगा.
भाजपा हारती तो….
दरअसल, पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से चार राज्यों में भाजपा को मिली जीत के बाद अब अचानक सारी चीजें थम गई हैं. विपक्षी मोर्चे का पहला मुकाम राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला था, जिसका खेला अब खत्म हो गया है. पांच में से चार राज्यों में भाजपा को मिली जीत के बाद विपक्ष की उम्मीदें खत्म हैं. विपक्षी नेताओं की ओर से की जा रही पहल का निष्कर्ष यह था कि अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में चुनाव हारती तो विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार उतारा जाता, जो कि अब सम्भव होता प्रतीत नहीं होता.
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राष्ट्रपति चुनाव के लिए भाजपा के उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित!
सियासी जानकारों का कहना है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्षी नेताओं की ओर से की जा रही पहल का निष्कर्ष यह था कि अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में चुनाव हारती तो विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार उतारा जाता. इसके लिए NCP सुप्रिमो शरद पवार को विपक्ष के साझा उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा था. लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़ी जीत मिलने के बाद देश में भाजपा के अपने विधायकों की संख्या 1,543 है और दोनों संसद के दोनों सदनों में उसके सदस्यों की संख्या चार सौ है. अगर उसकी सहयोगी पार्टियों के विधायकों और सांसदों की संख्या जोड़ दें तो राष्ट्रपति चुनने वाले इलेक्टोरल कॉलेज में भाजपा के पास 40 से 45 फीसदी तक वोट हो जाते हैं. उसके बाद जिस राज्य या समूह के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाता है उसका वोट आमतौर पर मिल जाता है. ऐसे में राष्ट्रपति के लिए भाजपा उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित मानी जा रही है.
केन्द्र द्वारा राज्यों के अधिकारों पर अतिक्रमण का मामला भी पड़ा ठंडा!
राष्ट्रपति के बाद विपक्ष का दूसरा प्रयास राज्यों के अधिकारों के अतिक्रमण के खिलाफ एक संघीय मोर्चा बनाने का था. यह एक बड़ा मुद्दा है और दक्षिण भारत के राज्यों ने इसे बहुत गंभीरता से लिया है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और उनके वित्त मंत्री ने इस मसले पर विपक्षी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात भी की है. जीएसटी में राज्यों का हिस्सा कम होने या मुआवजे की समय सीमा दो साल और बढ़ाने का मसला संसद के चालू बजट सत्र में भी विपक्षी पार्टियों ने उठाया है. इसके अलावा केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी घटने और बीएसएफ का दायरा राज्यों के अंदर 50 किलोमीटर तक करने के मामले में भी इन राज्यों में एकजुटता है. इन सब मुद्दों को लेकर पहले माना जा रहा था कि संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू होते ही विपक्षी मुख्यमंत्रियों की बैठक दिल्ली में होगी लेकिन पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद इस मसले पर भी पार्टियां सुस्त पड़ गई हैं.
क्या बन पाएगा भाजपा के खिलाफ साझा राजनीतिक मोर्चा?
इसके साथ ही इस संघीय विपक्ष का तीसरा प्रयास 2024 में भाजपा के खिलाफ एक साझा राजनीतिक मोर्चा बनाने का है. इसकी पहल कैसे होगी और कौन करेगा यह यक्ष प्रश्न है. कांग्रेस पार्टी अंदरूनी कलह से जूझ रही है. पार्टी के नेता आलाकमान से अलग बैठकें कर रहे हैं और पार्टी में बड़ी टूट का अंदेशा भी जताया जा रहा है. अगर अगले दो-तीन महीने में कांग्रेस अपने को संभालती है और अगस्त से पहले तक पार्टी एक पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव करके संगठन को मजबूत करती है तो फिर भी उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस विपक्षी मोर्चा बनाने की पहल का केंद्र रहेगी. हालांकि तब भी यह आसान नहीं होगा क्योंकि कई प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस के साथ सहज महसूस नहीं कर रही हैं. कम से कम दो प्रादेशिक क्षत्रपों- ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा इतनी बड़ी हो गई है कि किसी भी दूसरी पार्टी का नेतृत्व स्वीकार करने में इनको दिक्कत होगी ही होगी.
कांग्रेस बनाम भाजपा के साथ मोदी बनाम ममता, मोदी बनाम केजरीवाल की भी तैयारी
अगर कांग्रेस की बजाय विपक्षी मोर्चा बनाने की पहल कहीं और से होती है, जैसे प्रशांत किशोर पहल करते हैं तो वह एक बड़ा प्रयास होगा लेकिन उसमें कांग्रेस के शामिल होने पर संदेह रहेगा. अभी तक का इतिहास रहा है कि चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन देती रही लेकिन चुनाव से पहले किसी तीसरे मोर्चे की पार्टियों के पीछे चलने का कांग्रेस का इतिहास नहीं रहा है. अब भी यह संभव नहीं लग रहा है कि वह किसी ऐसे मोर्चे का हिस्सा बनेगी, जिसकी कमान उसके हाथ में न रहे. ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि विपक्ष का एक साझा मोर्चा कैसे बनेगा? अगले कुछ दिनों में कांग्रेस का संगठन चुनाव हो जाएगा, जिसके बाद संभावना है कि राहुल गांधी अध्यक्ष बनेंगे. उसके बाद कांग्रेस चाहेगी कि कांग्रेस की कमान में राहुल के चेहरे पर चुनाव हो. दूसरी ओर मोदी बनाम ममता और मोदी बनाम केजरीवाल की तैयारी अलग चल रही है.
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राज्यों के नेता नहीं दे सकते मोदी को चुनौती!
अब तक का इतिहास रहा है कि आम चुनाव दो बड़ी पार्टियों या बड़ी ताकतों के बीच होता है. जब कांग्रेस भारतीय राजनीति की केंद्रीय ताकत थी तब भी उसका मुकाबला दूसरी बड़ी ताकत से होता था. किसी एक या दो राज्य का नेता चाहे कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो वह राजनीति की केंद्रीय ताकत को चुनौती नहीं दे सकता है. कांग्रेस के शीर्ष पर रहते विपक्ष में अनेक चमत्कारिक नेता हुए और राज्यों में भी कई करिश्माई नेता रहे लेकिन वे कांग्रेस को चुनौती नहीं दे सके. वैसे ही अभी किसी राज्य में कोई कितना भी चमत्कारिक नेता क्यों न हो वह भाजपा और नरेंद्र मोदी को चुनौती नहीं दे सकता है.
विचारधारा और संगठन का होता है आम चुनाव!
कुछ सियासी जानकारों का कहना है कि, ‘आम चुनाव सिर्फ चेहरों का चुनाव नहीं होता है. वह विचारधारा और संगठन का भी चुनाव होता है. भाजपा को चुनौती देने वाली विचारधारा अब भी कांग्रेस के पास है और संगठन के लिहाज से भी भाजपा विरोधी स्पेस का प्रतिनिधित्व कांग्रेस ही कर रही है. इसलिए अगले दो साल में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजे चाहे जो आएं, कांग्रेस अपने दम पर और अपने बचे हुए सहयोगियों को साथ लेकर भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ेगी. राज्यों के प्रादेशिक क्षत्रपों का एक मोर्चा अलग बन सकता है, जो मुख्य रूप से उन राज्यों में होगा, जहां कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला नहीं है. अगर प्रशांत किशोर कांग्रेस और प्रादेशिक क्षत्रपों के मोर्चे का रणनीतिक तालमेल कराने और सीटों के एडजस्टमेंट में कामयाब होते हैं तो फिर आने वाला चुनाव और भी दिलचस्प होगा.