महाराष्ट्र-हरियाणा की राजनीति की छाया झारखंड चुनावों पर, अब ‘किंग नहीं किंगमेकर’ के लिए हो रहा मुकाबला

प्रदेश में छोटे दल और निर्दलीय उम्मीदवारों की भरमार, जेजेपी की तर्ज पर छोटे दलों की कोशिश कि सरकार की चाबी उनके हाथ लग जाए

पॉलिटॉक्स ब्यूरो. महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों राज्यों में विधानसभा चूनावों के बाद जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां बनीं और सरकारों का गठन हुआ, उसका गहरा असर झारखंड की राजनीति (Jharkhand Kingmaker) पर पड़ता दिख रहा है. झारखंड में शनिवार, 30 नवंबर से 81 सीटों पर शुरू हुए विधानसभा चुनाव में अब दोनों राज्यों की तर्ज पर स्थानीय पार्टियां किंग नहीं बल्कि किंगमेकर की भूमिका के लिए लड़ाई लड़ रही हैं. झारखंड की राजनीति को गौर से देखा जाए तो यहां भी माहौल महाराष्ट्र से ज्यादा अलग नहीं है. यहां सरकार बनाने में मुख्य पार्टियों से अधिक भूमिका क्षेत्रप पार्टियों की रही है. मुकाबला भी स्थानीय पार्टियों में अधिक देखा जाता है. जिस तरह महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) और हरियाणा में जेजेपी की भूमिका सरकार बनाने में अहम है, उसी तरह झारखंड में भी कुछ इसी तरह की राजनीति है.

महाराष्ट्र में तीन पार्टियों (शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस) की मिली जुली सरकार बनने और हरियाणा में 10 सीटें जीतने वाली जननायक जनता पार्टी (JJP) से झारखंड की सियासत (Jharkhand Kingmaker) इस कदर प्रभावित है कि इक्की दुक्की सीटों पर लड़ने वाली पार्टियां भी यही आस लगा रही हैं कि कैसे भी सरकार की चाबी उन्हीं के हाथों में लग जाए. यही वजह है कि उक्त पार्टियों के साथ नितिश कुमार की पार्टी जेडीयू, सपा, बसपा और अब आम आदमी पार्टी भी चुनाव मैदान में कूद गई हैं. याद दिला दें कि महाराष्ट्र में शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस और हरियाणा में भाजपा-जेजेपी ने अपनी विचारधारा से अलग हटते हुए सरकार बनाने के लिए हाथ मिलाया है.

दोनों राज्यों की राजनीति (Jharkhand Kingmaker) से प्रेरित होकर झारखंड में भी सहयोगी पार्टियां सरकार बनाने नहीं बल्कि बनवाने में भूमिका का निर्धारण कर बीजेपी से किनारा कर रही हैं. बात करें पिछले 20 सालों से झारखंड में भाजपा की सहयोगी पार्टी आॅल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) की जिन्होंने सीटों के बंटवारे को लेकर बीजेपी से नाता तोड़ लिया और अब आधी सीटों पर चुनाव लड़ रही है. ऐसा ही कुछ चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने किया. सीट न देने पर चिराग पासवान ने बीजेपी का साथ छोड़ 50 सीटों पर पार्टी के प्रत्याशी उतारने का मन बना लिया. बाबूलाल मरांडी की झारखंड विकास मोर्चा तो पहले से ही सत्ताधारी पार्टी से किनारा कर चुकी है.

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झारखंड में सबसे अधिक झलक महाराष्ट्र की राजनीति की दिखाई देती है. यहां सबसे अधिक चर्चा आजसू की है जो अब तक भाजपा के साथ चुनाव लड़ती और सरकार बनाती आ रही है लेकिन इस बार सैद्धांतिक मतभेदों के चलते पार्टी अध्यक्ष सुदेश महतो बीजेपी से अलग करीब 40 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. वो भी तब जब बीजेपी के रघुबर दास प्रदेश पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले प्रदेश के इकलौते सीएम हैं. वहीं आजसू को लगता है कि ज्यादा सीटों पर न लड़कर आधा दर्जन सीटें भी जीतने में कामयाब रहे तो सरकारी किसी की भी बने, सरकार बनाने में भूमिका अहम हो सकती है. याद दिला दें, झारखंड को 20 साल के अंतराल में पहली बार पूरे पांच साल की स्थाई सरकार मिली है और इस तरह रघुबर दास प्रदेश के सबसे सफल मुख्यमंत्री बने हैं.

बात करें झारखंड के इतिहास की तो झारखंड के 20 साल के इतिहास में वर्तमान बीजेपी सरकार के 5 सालों को हटा लिया जाए तो शेष 14 सालों में प्रदेश को सात मुख्यमंत्री मिलीे. एक बार तो निर्दलीय मुख्यमंत्री ने भी सत्ता की कुर्सी संभाली है. यही एक इकलौती वजह है कि 8 विधायकों के साथ पिछली रघुबर दास सरकार में शामिल हुए बाबूलाल मरांडी अपने विधायकों तक को भाजपा में विलय से नहीं रोक पाए लेकिन इस बार भी 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का दम ठोक रहे हैं.

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किंग मेकर बनने की बाट जोह रहे नितिश कुमार और आप पार्टी भी इसी लाइन में खड़े हैं. देखा जाए तो जेडीयू और आप पार्टी का बड़ा समर्थक वर्ग झारखंड में नहीं है लेकिन दोनों पार्टियों दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार केवल इसी आस में उतार रही हैं ताकि कहीं न कहीं सरकार में घुसने का मौका मिल सके. हालांकि आप और जेडीयू दोनों पार्टियों के सामने समस्या ये है कि वे दोनों मुख्य पार्टियों की सरकार में अपनी साझेदारी नहीं कर सकती क्योंकि आप पार्टी भाजपा एवं कांग्रेस दोनों की विरोधी है और जेडीयू लगातार एनडीए का विरोध कर रही है. लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा में जब कट्टर विरोधी पार्टियां आपस में हाथ मिलाकर सरकार बना सकती हैं तो यहां भी कुछ भी सम्भव है.

वैसे देखा जाए तो झारखंड एक छोटा राज्य है जहां सीटों में ज्यादा हेरफेर होने की गुंजाइश कम है लेकिन छोटे छोटे दल इतने सारे हैं कि उन्हें लगता है कि अगर 4 या 5 सीटें भी हाथ लग जाए तो किंग मेकर बना जा सता है. आखिर मधु कोड़ा सरकार में तो एक-एक सीट जीतकर आए निर्दलीय भी किंग मेकर की भूमिका में थे. झारखंड में कांग्रेस का अस्तित्व भी पहले की तरह नहीं रहा. ऐसे में उन्होंने न केवल मुख्यमंत्री पद से समझौता किया, बल्कि संयम दिखाते हुए झामुमो का नेतृत्व भी सहर्ष स्वीकार कर लिया. उन्होंने 81 में से 23 सीटों पर दावा केवल इसलिए ही स्वीकार किया ताकि उनकी अहमियत बनी रहे. महाराष्ट्र में भी कांग्रेस की कुछ इसी तरह की राजनीति देखने को मिली जहां उन्होंने सरकार में भागीदारी एक सीमित दायरे तक ही सीमित रखी है.

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वैसे देखा जाए तो झारखंड में मुकाबला (Jharkhand Kingmaker) दो पार्टियों में है. पहली बीजेपी और दूसरी झारखंड मुक्ति मोर्चा. प्रदेश के मुख्यमंत्री रघुबर दास भाजपा का और हेमन्त सोरेन विपक्ष के गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसमें कांग्रेस सहयोगी बनी है. झारखंड के इतिहास में पहली बार सत्ता वर्ष पूरे करने वाली रघुबर दास की इस बार की राह पहले की तरह आसान नहीं है. ‘झारखंड पुकारा भाजपा दोबारा’ नारे के साथ चुनावी समर में उतारी भाजपा को इस बार आजसू के जाने का नुकसान उन्हें हर हाल में झेलना पड़ेगा. वहीं झाविमो और झामुमो की चुनौती तो पहले की तरह है ही, उनकी खुद की सीट जमशेदपुर पूर्वी से बीजेपी सरकार में मंत्री रहे सरयू रॉय भी ताल ठोक रहे हैं. अब देखना रोमांचक रहेगा कि झारखंड में भाजपा को सत्ता वापसी की जिम्मेदारी के साथ वे अपनी सीट पर भी जीत दर्ज करने में सफल साबित हो पाते हैं या नहीं.

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