तिरंगा कैसे बना राष्ट्रीय ध्वज? आजादी के 52 साल बाद RSS मुख्यालय पर तिरंगा फहराने का ये हुआ अंजाम?

1930 और 1940 के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई अपने पूरे उफान पर थी तो आरएसएस का कोई भी आदमी या सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ, यहां तक कि जहां भी तिरंगा फहराया गया, RSS वालों ने कभी तिरंगे को सैल्यूट तक नहीं किया, महात्मा गांधी की हत्या के बाद तिरंगे को रौंदा गया पैरों से!, आज बीजेपी उसी तिरंगे के बल पर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से घेरने में सफल होती नज़र आ रही

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Politalks.News/75thIndependenceDay. इस साल आने वाली आजादी की ऐतिहासिक 75वीं वर्षगांठ के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘हर घर तिरंगा’ अभियान लॉन्च किया है. इसकी शुरुआत करते हुए पीएम मोदी ने 2 अगस्त को अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स की डीपी में तिरंगा भी लगाया और सभी देशवासियों से भी ऐसा करने की अपील की. बता दें, केन्द्र सरकार ने स्वतंत्रता दिवस पर 20 करोड़ लोगों के घरों पर तिरंगा फहराने का लक्ष्य रखा है. लेकिन इसी बीच विपक्ष सहित सियासत के पुराने जानकार बीजेपी के तिरंगे के प्रति इस अत्यधिक आकर्षण और प्यार को लेकर आश्चर्य भी जता रहे हैं. राहुल गांधी और असदुद्दीन ओवैसी सहित कई राजनेताओं ने कभी संघ की तिरंगे के प्रति नफरत को लेकर बीजेपी पर निशाना भी साधा है. इनका कहना है कि जिस संघ के कार्यालय पर 52 साल तक तिरंगा नहीं फहराया गया और जिस संघ को तिरंगे के तीन रंगों से नफरत थी, उसी संघ से निकली भारतीय जनता पार्टी को अचानक तिरंगे से इतनी मोहब्बत कैसे हो गई?

यहां आपको बता दें की राहुल गांधी, ओवैसी या ऐसे कई नेताओं द्वारा उठाए गए उक्त सवाल बिना आधार के नहीं हैं. सियासत के पुराने जानकर और इतिहासकारों की मानें तो 15 अगस्त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बाद संघ मुख्यालय पर 26 जनवरी 2002 को तिरंगा फहराया गया था. इस बीच 52 साल में एक भी बार आरएसएस ने अपने मुख्यालय पर झंडा नहीं फहराया था. बता दें, आरएसएस को भाजपा का पितृ संगठन माना जाता है और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी संघ के प्रचारक रहे हैं.

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आरएसएस ने हमेशा किया तिरंगे का विरोध! तीन रंगों को बताया अशुभ
आरएसएस पर किताब लिखने वाले प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम का दावा है कि संघ के अंग्रेजी मुखपत्र आर्गनाइजर ने 15 अगस्त, 1947 ने तिरंगे की भर्त्सना करते हुए लिखा था, “… हिंदुओं द्वारा तिरंगे का कभी सम्मान नहीं किया जाएगा. न ही उसे अपनाया जाएगा. तीन आंकड़ा अपने आप में अशुभ है. एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदायक होगा.”

आपको बता दें कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर को हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना गुरु मानते हैं. इन्ही गोलवलकर ने अपनी किताब बंच ऑफ थॉट में तिरंगे के चयन पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि, ‘हमारे नेताओं ने देश के लिए एक नया झंडा चुना है. उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ बहकने और नकल करने का मामला है… भारत एक गौरवशाली अतीत वाला प्राचीन और महान राष्ट्र है. तब, क्या हमारा अपना कोई झंडा नहीं था? क्या इन हजारों सालों में हमारा कोई राष्ट्रीय प्रतीक नहीं था? निस्संदेह हमारे पास था. फिर यह दिवालियापन क्यों?’

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जब आरएसएस ने पैरों से रौंदा तिरंगे को!
पुराने राजनीतिज्ञों और इतिहासकारों की मानें तो सन 1930 और 1940 के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई अपने पूरे उफान पर थी तो आरएसएस का कोई भी आदमी या सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ था. यहां तक कि जहां भी तिरंगा फहराया गया, आरएसएस वालों ने कभी तिरंगे को सैल्यूट तक नहीं किया था. आरएसएस ने हमेशा ही भगवा झंडे को तिरंगे से ज्यादा महत्व दिया. यहां तक कहा जाता है कि 30 जनवरी 1948 को जब महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आई थीं कि आरएसएस के लोग तिरंगे झंडे को पैरों से रौंद रहे थे, यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थीं.

इस खबर से आजादी के दीवानों को यानी आज़ादी के संग्राम में शामिल लोगों को आरएसएस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई थी. उनमें हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी एक थे. 24 फरवरी को नेहरू ने अपने एक भाषण में अपनी पीड़ा को व्यक्त किया था. पंडित नेहरू ने कहा कि खबरें आ रही हैं कि आरएसएस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं. यह तिरंगा हमारी आज़ादी के लड़ाई का स्थायी साथी रहा है जबकि आरएसएस वालों ने आज़ादी की लड़ाई में देश की जनता की भावनाओं का साथ नहीं दिया था. तिरंगे की अवधारणा पूरी तरह से कांग्रेस की देन है.

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तिरंगा फहराने पर हुआ मुकदमा
यहां तक कि आजादी के 52 साल बाद तक भी आरएसएस ने तिरंगे को नहीं अपनाया था और आरएसएस के किसी भी कार्यालय पर कभी तिरंगा नहीं फहराया गया था. इस बीच 2001 में सबसे पहले महाराष्ट्र के बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी ने नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय पर तिरंगा फहराने का लक्ष्य रखा था. यह तीन सदस्यीय दल इस बात से क्षुब्ध था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय पर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे अवसरों पर भी तिरंगा नहीं फहराया जाता. इसी बात को लेकर 26 जनवरी 2001 को बाबा मेंढे के नेतृत्व में तीन सदस्यीय दल ने अपना लक्ष्य पूरा किया और पहली बार 52 साल बाद आरएसएस के प्रधान कार्यालय पर तिरंगा फहराया गया. हालांकि इसके बाद डॉ. हेडगेवार स्मृति मंदिर की शिकायत पर तिरंगा फहराने वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो गया और यह मामला नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के एक साल पहले तक नागपुर की एक निचली अदालत में चल रहा था. फिर अगस्त 2013 में अदालत ने तीन आरोपियों को बाइज्जत बरी किया.

कैसे बना तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज
तिरंगे झंडे की बात सबसे पहले आन्ध्र प्रदेश के मसुलीपट्टम के कांग्रेसी कार्यकर्ता पी वेंकय्या के दिमाग में उपजी थी. 1918 और 1921 के बीच हर कांग्रेस अधिवेशन में वे राष्ट्रीय झंडे को फहराने की बात करते थे. महात्मा गाँधी को यह विचार तो ठीक लगता था लेकिन उन्होंने वेंकय्या जी की डिजाइन में कुछ परिवर्तन सुझाए. फिर गाँधी जी की बात को ध्यान में रहकर दिल्ली के देशभक्त लाला हंसराज ने सुझाव दिया कि बीच में चरखा लगा दिया जाए तो ज्यादा सही रहेगा. महात्मा गाँधी को लालाजी की बात अच्छी लगी और थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया. उसके बाद कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों में तिरंगा फहराया जाने लगा.

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अगस्त 1931 में कांग्रेस की एक कमेटी बनायी गयी जिसने झंडे में कुछ परिवर्तन का सुझाव दिया. वेंकय्या के झंडे में लाल रंग था, उसकी जगह पर भगवा पट्टी कर दी गयी. उसके बाद सफ़ेद पट्टी और सबसे नीचे हरा रंग किया गया. चरखा बीच में सफ़ेद पट्टी पर सुपर इम्पोज कर दिया गया. महात्मा गाँधी ने भी इस परिवर्तन को सही बताया और कहा कि राष्ट्रीय ध्वज अहिंसा और राष्ट्रीय एकता की निशानी है. हालांकि आज़ादी मिलने के बाद तिरंगे में फिर कुछ परिवर्तन किया गया.

आजादी के बाद संविधान सभा की एक कमेटी ने तय किया कि आजादी से पहले के वक़्त तक तिरंगा कांग्रेस के हर कार्यक्रम में फहराया जाता रहा है, लेकिन अब देश सब का है. उन लोगों का भी जो आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के मित्र के रूप में जाने जाते थे, इसलिए चरखे की जगह पर अशोक चक्र को लगाने का फैसला किया गया. हालांकि जब महात्मा गाँधी को इसकी जानकारी दी गयी तो उन्हें ताज्जुब हुआ और बोले कि कांग्रेस तो हमेशा से ही राष्ट्रीय रही है. इसलिए इस तरह के बदलाव की कोई ज़रुरत नहीं है. लेकिन बाद में महात्मा गांधी को भी तिरंगे की नयी डिजाइन के बारे में राजी कर लिया गया.

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राजनीति के पुराने विशेषज्ञ बताते हैं कि इस तिरंगे की यात्रा में भाजपा या उसकी मालिक आरएसएस का कोई योगदान नहीं है लेकिन आज बीजेपी उसी तिरंगे के बल पर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से घेरने में सफल होती नज़र आ रही है. यहां अजीब बात यह है कि कांग्रेसी अपने इतिहास की बातें तक नहीं कर रहे हैं. अगर कांग्रेसी अपने इतिहास का हवाला देकर काम करें तो भाजपा और आरएसएस को बहुत आसानी से घेरा जा सकता है और तिरंगे के नाम पर राजनीति करने से रोका जा सकता है.

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