Rajasthan Assembly Election 2023. ‘हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहां दम था, अपनी कश्ती भी डूबी वहां, जहां पानी कम था….’ आपने ये फिल्मी डायलॉग के बार सुना होगा, लेकिन देखा जाए तो राजस्थान की सियासत में जो फिलहाल चल रहा है, या यूं कहें कि राजस्थान की राजनीति पर ये डायलॉग एकदम सटीक बैठता है. बात यहां केवल कांग्रेस की नहीं हो रही है, बात यहां प्रदेश बीजेपी की भी है, जहां भी यही डायलॉग फिट होते नजर आ रहा है. सबसे पहले बात करें राजस्थान कांग्रेस की तो यहां पिछले विधानसभा चुनाव 2018 के परिणाम आते के साथ ही अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच जो सियासी खींचतान सामने आई थी, वो आजतक बरकरार है. उस समय दोनों ने दिल्ली के कई चक्कर लगाए और आलाकमान के सामने खुद की तारीफ और अन्य की कमियों का पूर्ण लेखा जोखा रखा. इस बीच राहुल गांधी दोनों नेताओं को कुछ समय के लिए समझाने में कामयाब जरूर हुए लेकिन ज्यादा समय तक नहीं. उसके बाद कोरोनाकाल मे आया सियासी संकट सरकार को किस तरह संकट में ले गया था, ये कहानी फिर से बताने की जरूरत नहीं है.
उसके बाद राजस्थानी थार के सियासी समंदर में कुछ महीनों शांति छाई रही. थोड़ी बहुत बयानबाजी जरूर देखने को मिली लेकिन बीते 6 महीनों से फिर से दोनों पक्ष आमने सामने आ गए. हालांकि बीते माह राहुल गांधी की यात्रा के दौरान हाईकमान के निर्देश पर सियासी सीजफायर जरूर कायम रहा, लेकिन वर्तमान में सचिन पायलट अपनी ही पार्टी और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर जिस तरह से सीधे तंज कस रहे हैं, उससे उनके तेवर एक बार फिर से नजर आ रहे हैं. इस बार वे कोई मांग नहीं कर रहे हैं और न ही नेतृत्व बदलने की गुहार लगा रहे हैं, वे उन बातों को लेकर सरकार की घेराबंदी कर रहे हैं, जो आम जन से जुड़ी हैं. इन मुद्दों पर अब तक विपक्ष ही आवाज उठा रहा था लेकिन पायलट के आवाज उठाने और उन्हें मिल रहे जन समर्थन से बीजेपी की आगामी विस चुनावों में राह आसान बनती नजर जा रही है.
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सूत्रों की मानें तो सचिन पायलट से ज्यादा उनके समर्थकों के सब्र का बांध टूट चुका है और अब वो आर-पार के मूड में आ चुके हैं. पायलट सनर्थक जहां एक और तत्काल सचिन पायलट को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हैं तो वहीं साथ ही उनकी यह मंशा भी है कि आगामी विस चुनावों में भी पार्टी नेतृत्व पायलट को ही सीएम का चेहरा घोषित करे. इससे दो फायदें होंगे, पहला सचिन पायलट को सत्ता की कुर्सी मिलेगी तो दूसरा राजस्थान में वर्षों पुरानी हर पांच सालों में सत्ता परिवर्तन होने की परिपाटी बदलने की पूरी संभावना रहेगी. राजस्थान में क्या हो रहा है या आगे क्या घटने वाला है, राहुल गांधी या शीर्ष कांग्रेस आलाकमान को इसी खबर है लेकिन वे राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की समाप्ति का इंतजार कर रहे हैं. यात्रा अपने अंतिम पायदान पर है और 31 जनवरी तक भारत जोड़ो यात्रा का सफर भी थम जाएगा. माना जा रहा है कि इसके बाद राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सोनिया गांधी के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे इस बात को गंभीरता से लेंगे.
वहीं दूसरी और सचिन पायलट ने हाल ही में किसान सम्मलेनों के जरिए चार जिलों में जो जन सभाएं कीं, उनमें उमड़ी भारी भीड़ पायलट को मुख्यमंत्री बनते देखना चाहती है. इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि पायलट खुद लंबे समय से सत्ता की कुर्सी की लालसा मन में पाले बैठे हैं. चूंकि उन्हें मेहनत करते हुए एक दशक पूरा हो चुका है, ऐसे में ये सुवर्णिम अवसर वो हाथ से गंवाना नहीं चाहेंगे. यही कारण है कि सचिन पायलट की बीते सप्ताह हुई चार विशाल रैलियां ने गहलोत सरकार की नींद उड़ा दी है. इस दौरान पायलट के अपनी ही सरकार पर तीखे बयान और सवाल पार्टी की अंदरूनी फाड़ को बाहर ला रहे हैं. अपनी रैलियों में पायलट पेपर लीक, राजनीतिक नियुक्तियों सहित अन्य मुद्दों को लेकर अपनी ही गहलोत सरकार की घेराबंदी कर रहे थे. बीते बुधवार को तो पायलट इशारों इशारों में कह दिया कि बिना मिली भगत के पेपर लीक होना एक ‘जादूगरी’ सा लगता है.
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ऐसी ही कुछ कहानी बीजेपी में गढ़ी जा रही है. जहां एक ओर पार्टी प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनियां ने पिछले दिनों प्रदेशभर में पहले जन आक्रोश यात्रा और सभाओं का आयोजन किया, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इन रैलियों में कहीं नजर नहीं आई हैं. इससे पहले जनाक्रोश रैलियों के पोस्टर्स में उनकी फोटो को गायब कर दिया गया था लेकिन गतिरोध को देखते हुए फिर से सभी पोस्टर्स पर राजे को दिखाया गया. हालांकि रैलियों से राजे हमेशा ‘मि.इंडिया’ ही रहीं. यहां भी सवाल नेतृत्व की कुर्सी का है.
मैडम वसुंधरा राजे राजस्थान में अपना राज बरकरार रखना चाहती हैं, तो वहीं गजेंद्र सिंह शेखावत, गुलाबचंद कटारिया, राजेन्द्र राठौड़, सतीश पूनियां सहित करीब आधा दर्जन नाम ऐसे हैं जो अपने आपको भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे हैं. हालांकि राजस्थान की राजनीति में बीजेपी और कांग्रेस में बस यही दो अंतर है. पहला – एक ओर जहां कांग्रेस में केवल गहलोत व पायलट सीएम पद पर दावेदारी ठोक रहे हैं, वहीं बीजेपी में यह संख्या आधा दर्जन से ज्यादा है. जिनमें यूपी की तर्ज पर अलवर सांसद बाबा बालकनाथ भी खुद को भावी मुख्यमंत्री वाले तेवरों में पेश कर रहे हैं.
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दूसरा- बीजेपी के सामने भी राजे का राज चुनौती बनकर खड़ा है. हालांकि इस बात से भी कोई गफलत नहीं है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी एक रैली में राजे के नाम पर मुहर लगा चुके हैं लेकिन जिस तरह से राजे ने जनाक्रोश रैली से दूरी बना रखी है, सभी को समझ आ रहा है कि बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष को किस तरह से मनाने की तैयारियां हो रही है. राजे को साथ लाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सतीश पूनियां और गजेंद्र सिंह का चेहरा राजे के समक्ष जनता के लिए थोड़ा सा फीका है. दो बार की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की राजपूत-गुर्जर समाज के साथ युवाओं और महिलाओं में अच्छी खासी पैठ है.
कुल मिलाकर राजस्थान की राजनीति में अपने ही अपनों की नांव को डूबाने में लगे हुए हैं. कांग्रेस जहां अपने कथित विकास कार्यों के दम पर सत्ता में वापसी चाह रही है, वहीं बीजेपी सत्ता परिवर्तन के ट्रेंड की आस मन में जगाए बैठी है. अशोक गहलोत चौथी तो वसुंधरा राजे तीसरी बार नेतृत्व की कुर्सी चाहते हैं तो सचिन पायलट एवं सतीश पूनियां शक्ति प्रदर्शन के माध्यम से आलाकमान को चुनौती दे रहे हैं. इस बार सत्ता परिवर्तन के ट्रेंड के बावजूद कांग्रेस और बीजेपी में बराबरी की टक्कर मानी जा रही है.
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हालांकि, राजस्थान की राजनीति में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, ओवैसी की एआईएमआईएम और बसपा की एंट्री का असर कांग्रेस को थोड़ा सा कमजोर करने का काम जरूर करेगा, जिसके चलते आने वाली चुनावी जंग के ज्यादा रोचक रहने के आसार हैं. देखना होगा कि दोनों पार्टियां राजनीति के इस समंदर में अपनों द्वारा अपनी नांव में किए सुराख से किस तरह अपने आप को बचा पाती हैं, कौन तर कर पर पाता है और कौन डूब जाता है.