संसद सत्र के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक होने की संभावना है. गुरुवार को आये कांग्रेस नेता रणदीव सुरजेवाला के ताजा बयान के अनुसार, ‘संसद सत्र के बाद होगी कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक.’ हालांकि सुरजेवाला ने यह भी कहा है कि बैठक का कोई एजेंडा अभी निर्धारित नहीं है. लेकिन पार्टी सुत्रों की मानें तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी की होने वाली इस बैठक में पार्टी के अंतरिम अध्यक्ष पर फैसला हो सकता है.

सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस पार्टी के अंतरिम अध्यक्ष बनने की दौड़ से अशोक गहलोत और सचिन पायलट, दोनों ही बाहर हो चुके हैं, इसलिए अब राजस्थान में इन दोनों नेताओं के समर्थकों की खींचतान और बढ़ेगी. अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं और सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के साथ ही राज्य के उप मुख्यमंत्री भी हैं. दोनों खेमे राज्य में अपनी पकड़ मजबूत करने में जुट गए हैं.

गहलोत खेमे ने एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत का हवाला देते हुए पायलट को किसी एक पद से हटाने के लिए अभियान तेज कर दिया है. गहलोत के समर्थक प्रदेश अध्यक्ष पद पर किसी जाट नेता की नियुक्ति चाहते हैं. इसके लिए अनौपचारिक कोशिशें शुरू हो गई है. लालचंद कटारिया, सुभाष महरिया या हरीश चौधरी में से किसी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए तगड़ी लॉबिंग हो रही है.

गौरतलब है कि अगले साल की शुरूआत में राज्य में स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव होने वाले हैं. सचिन पायलट उप मुख्यमंत्री होने के साथ ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी हैं और उनके पास पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव चिन्ह आवंटित करने का अधिकार रहेगा. यह स्थिति गहलोत समर्थकों के लिए असुविधाजनक होगी. यही कारण है कि पायलट को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने के प्रयास शुरू हो गए हैं. दूसरी तरफ पायलट समर्थकों ने गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है. उनका कहना है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राज्य में एक भी सीट नहीं मिली, इसकी जिम्मेदारी गहलोत को लेनी चाहिए. हालांकि इस तरह के अभियान का बेअसर रहना तय है क्योंकि हाईकमान पहले ही मान चुका है लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर राज्यों में मुख्यमंत्री नहीं हटेंगे.

पायलट के एक समर्थक का कहना है, पार्टी ने वर्ष 2018 के विधानसभा चुनावों में जो बढ़त बनाई थी, वह गहलोत की कल्पनाशीलता से रहित और पुराने जमाने की राजनीति के कारण विफल हो रही है. निर्णय नहीं लिए जाने की वजह से नीतिगत गतिहीनता आ गई है. गहलोत के पिछले महीनों के कार्यकलापों से ऐसा नहीं लगता कि उससे पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने में मदद मिली हो. पायलट समर्थक इससे भी दुखी हैं कि गहलोत ने अब तक संवैधानिक पदों, आयोगों, कमेटियों में नियुक्तियां नहीं की हैं.

फिलहाल गहलोत सरकार आरपीएससी के लंबित पदों के भरने में लगी हुई है, जबकि लोकायुक्त पद अब तक खाली है. मदरसा बोर्ड और अल्पसंख्यक आयोग में मनोनयन से भरे जाने वाले पद भी खाली हैं. राज्य सूचना आयुक्त के पद पर भी अभी तक किसी की नियुक्ति नहीं हुई है. इस तरह कई पदों पर नियुक्तियां नहीं हो रही हैं और गहलोत और पायलट, दोनों का दिल्ली जाना-आना लगा रहता है. कांग्रेस में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद हाईकमान में भी उथल पुथल है. अंतरिम अध्यक्ष की नियुक्ति करने में हाईकमान के नेताओं को पसीना आ रहा है.

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इस तरह राजस्थान में कांग्रेस के दो खेमे स्पष्ट हैं. उधर भाजपा की भी यही हालत है. एक वसुंधरा का खेमा और दूसरा अमित शाह के समर्थकों का खेमा. राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियां अपसी मतभेदों से जूझ रही हैं. केंद्र में भाजपा मोदी-शाह के कारण मजबूत है, जबकि राज्य में कांग्रेस गहलोत के कारण मजबूत है. पायलट राजस्थान में कांग्रेस के नए नेता हैं और राजस्थान से उनका वैसा घनिष्ठ संबंध नहीं रहा है, जैसा गहलोत का रहा है. इसके बावजूद पायलट अगर गहलोत की जगह खुद को स्थापित करने की महत्वाकांक्षा पालते हैं और दोनों खेमों में टकराव की स्थिति बनती है, तो वह कांग्रेस के लिए ठीक नहीं है. भाजपा के रणनीतिकार तो यही चाहते हैं.

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