नारायण राणे की वजह से महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना हुई आमने-सामने

भाजपा भी थी इसी मौके की ताड़ में, मौका मिलते ही BJP ने Maharashtra के सिंधुदुर्ग और रत्नागिरि में कई जगह से खड़े किए शिवसेना के खिलाफ उम्मीदवार

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महाराष्ट्र (Maharashtra) में भाजपा-शिवसेना गठबंधन के तहत देवेंद्र फडनवीस के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ रही हैं. भाजपा 150 तो शिवसेना 124 सीटों पर चुनावी दंगल में है. लेकिन प्रदेश के दो जिले ऐसे भी हैं जहां ये दोनों ही दल ताल ठोकते दिख रहे हैं. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि दो सहयोगी आपस में परस्पर विरोधी हो गए, इसकी वजह है नारायण राणे.

महाराष्ट्र (Maharashtra) के कोंकण के दो सागरतटीय जिलों सिंधुदुर्ग और रत्नागिरि में भाजपा की कमान नारायण राणे के हाथों में है जो शिवसेना को फूटी आंखों नहीं सुहाते. कभी शिवसेना की तरफ से मुख्यमंत्री रहे नारायण राणे 2005 में बेहतर भविष्य की तलाश में शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में चले गए. उद्धव ठाकरे के नेतृत्व का विरोध करने के कारण शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे द्वारा उन्हें निष्कासित कर दिया.

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तभी से नारायण राणे की शिवसेना से खटकी हुई है. शिवसेना से निष्कासन के बाद तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रभाराव इस मराठा नेता को इस आश्वासन के साथ कांग्रेस में लाई कि उन्हें जल्दी ही महाराष्ट्र (Maharashtra) का मुख्यमंत्री बनाया जाएगा लेकिन कांग्रेस का ये आश्वासन कभी भी पूरा नहीं हुआ. कांग्रेस की तरफ से कभी विलासराव देशमुख तो कभी अशोक चह्वाण तो कभी पृथ्वीराज चह्वाण मुख्यमंत्री बनते रहे लेकिन राणे का नंबर कभी नहीं आया. यहां तक कि 2014 के बाद शुरू हुई महाराष्ट्र कांग्रेस की दुर्गति के दौर में भी इस तेजतर्रार और अनुभवी नेता का उपयोग कांग्रेस ने कभी किया ही नहीं. इस बात से नाराज हो राणे ने ‘महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष’ नाम से अपनी नई पार्टी बना आगे बढ़ने का फैसला किया.

नई पार्टी बनाने की असल वजह राणे को अपने दो पुत्रों नीलेश और नीतेश के भी भविष्य की चिंता रही. शिवसेना में रहते नारायण राणे ने कोकण के सिंधुदुर्ग और रत्नागिरि में अपना अच्छा दबदबा कायम किया था. खासतौर से उनके गृहजनपद सिंधुदुर्ग के लोग उनके कामों को आज भी याद करते हैं. कांग्रेस में जाने के बाद वे मंत्री तो रहे लेकिन कोकण की राजनीति में उनका दखल सीमित हो गया क्योंकि ये क्षेत्र कांग्रेस के सहयोगी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के हिस्से का क्षेत्र माना जाता था.

राणे को ये नागवार गुजरा क्योंकि राणे संपूर्ण कोकण में खुलकर खेलना चाहते ​थे. उनके लिए ये अवसर भाजपा में उपलब्ध था क्योंकि भाजपा कभी भी कोकण के सिंधुदुर्ग, रत्नागिरि और रायगढ़ जिलों में मजबूत नहीं रही. 2014 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना से खटास पैदा होने के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को इन तीनों जिलों में भाजपा को मजबूत करने की जरूरत महसूस होने लगी जिनपर शिवसेना का प्रभाव था. फडणवीस की यही जरूरत राणे को भाजपा के करीब ले आयी.

पिछले दो-तीन वर्षों से राणे के भाजपा में जाने की अटकलें लगती रही लेकिन इसी बीच शिवसेना से भाजपा के संबंध पुनः सुधर गए. अब जरूरत होते हुए भी भाजपा आलाकमान राणे को पार्टी में शामिल कर शिवसेना से नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती ​थी. इसके बावजूद कोंकण में राणे की उपयोगिता देखते हुए भाजपा ने उन्हें अपने कोटे से राज्यसभा पहुंचा दिया. ऐसा कर भाजपा ने कोंकण में शिवसेना को सीधी सीधी चुनौती दे दी.

वर्तमान महाराष्ट्र (Maharashtra) विधानसभा चुनाव में भाजपा और शिवसेना का गठबंधन हो गया. लेकिन भाजपा ने रणनीति साधते हुए राणे की परंपरागत कणकवली सीट से उनके छोटे पुत्र नीतेश राणे को टिकट थमा दिया. नीतेश इसी सीट पर 2014 में कांग्रेस के टिकट पर जीतकर पहली बार विधायक बने थे. शिवसेना को भाजपा का ये रवैया अखर गया और उन्होंने जवाब में राणे के 25 साल सहयोगी रहे सतीश सावंत को नीतेश राणे के विरुद्ध टिकट देकर रार की नई राह खोल दी.

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महाराष्ट्र (Maharashtra) की अंदरूनी राजनीति की बात करें तो भाजपा भी सच में इसी मौके की ताड़ में थी. मौका मिलते ही भाजपा ने सिंधुदुर्ग और रत्नागिरि में कई जगह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शिवसेना के विरुद्ध उम्मीदवार खड़े कर दिए. सावंतवाड़ी सीट पर नारायण राणे के दाहिने हाथ रहे राजन तेली शिवसेना के दीपक केसरकर को निर्दलीय चुनौती दे रहे हैं जिन्हें भाजपा का पूरा समर्थन है. केसरकर फडणवीस सरकार में गृह राज्यमंत्री रह चुके हैं. अब यहां भाजपा और नारायण राणे की संयुक्त ताकत के सामने शिवसेना के राजन तेली का तेल निकल रहा है. कुल मिलाकर इस क्षेत्र में लड़ाई अब उद्धव बनाम नारायण राणे हो चली है.

अब भाजपा इस लड़ाई को ‘दोस्ताना टकराव’ तक ही सीमित रखना चाहती है क्योंकि उसे चुनाव बाद शिवसेना के साथ मिलकर सरकार भी चलानी है. ऐसे में उद्दव ठाकरे के संयम का पाठ उनके नेताओं ने तो नहीं ​सीखा लेकिन फडणवीस ने जरूर ​सीख लिया. संयम और धैर्य रख एक एक कदम फूंकते हुए देवेंद्र फडणवीस प्रदेश भाजपा और शिवसेना का नेतृत्व कर रहे हैं ताकि शिवसेना के बागी रवैये अगर जारी भी रहे तो शिवसेना प्रभावित इन इलाकों में भाजपा अपना प्रभुत्व जमा सके. फडणवीस की ये आंतरिक रणनीति अगले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा की एकल सरकार बनने का रास्ता साफ कर सकती है.

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