राम मंदिर शिलान्यास कार्यक्रम से नदारद है राम मंदिर आंदोलन के प्रणेता लाल कृष्ण आडवाणी का नाम

एलके आडवाणी की बदौलत ही बीजेपी आज इस मुकाम तक पहुंची, समस्तीपुर में अगर न रूकता राम रथ तो मंदिर कब का बन चुका होता, लेकिन शिलान्यास के कार्यक्रम में केवल नरेंद्र मोदी को बुलाया जा रहा, मुरली मनोहर जोशी और यूपी की सत्ता गंवाने वाले कल्याण सिंह को भी रखा जा रहा कार्यक्रम से दूर

राम मंदिर और लाल कृष्ण आड़वाणी
राम मंदिर और लाल कृष्ण आड़वाणी

पाॅलिटाॅक्स न्यूज/अयोध्या. 1526 से लेकर 2020 तक धर्म, सत्ता और राजनीति के केंद्र में रहा अयोध्या के रामलला के जन्मस्थान का विवाद आखिरकार थम ही गया. सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम फैसले के बाद अब जन्म स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण कार्य जुलाई माह में शुरू होने जा रहा है. जन्मस्थान की जमीन के समतलीकरण का कार्य जोर-शोर से कराया जा रहा है. रामलला की मूर्तियों को भी अस्थाई मंदिर में विराजित किया गया है. मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए ट्रस्ट को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगमन की तारीख मिलने के बाद शिलान्यास कार्यक्रम घोषित किया जाएगा. लेकिन बड़े ही ताज्जुब की बात है कि यहां राम मंदिर आंदोलन के प्रणेता रहे वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आड़वाणी (Lal Krishna Advani) का नाम पूरी तरह नदारद है. यहां तक की आडवाणी की बदौलत ही बीजेपी पर न केवल हिंदू विचारधारा का ठप्पा लगा, अपितु आरएसएस के साथ बीजेपी की भी स्थिति मजबूत हुई.

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कहना गलत न होगा कि अगर आडवाणी का चलाया राम मंदिर आंदोलन और उनकी राम रथ यात्रा को अगर बिहार में न रोका गया होता तो शायद ये मंदिर कब का बन चुका होता लेकिन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समस्तीपुर में यात्रा को निकालने से मना कर दिया था. बावजूद इसके जब आडवाणी यहां से यात्रा लेकर निकले, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और राम रथ को जब्त कर लिया गया. यहीं से हिंदू बीजेपी से आकर्षित होने लगे. अब यहां शिलान्यास कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के नाते नरेंद्र मोदी को तो बुलाया जा रहा है लेकिन आडवाणी को नहीं. वरिष्ठ भाजपाई मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह का नाम भी यहां नगण्य है.

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बाबर ने तुड़वाया था राम मंदिर

हिंदूओं का कहना है कि जिस स्थान पर भगवान श्रीराम ने जन्म लिया था, उस स्थान पर कालांतर में हिंदूओं ने गर्भगृह बनाकर मंदिर बनवाया था. 1526 में लूटमार के इरादे से भारत आए बाबर के इशारे पर उसके सेनापति मीर बांकी ने कई मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों का निर्माण कराया था. इनमें से एक मंदिर भगवान श्री राम का जन्म स्थान का भी था.

बड़ा ही दिलचस्प रहा है जन्मस्थान का विवाद

अयोध्या के राजा राम के जन्म स्थान मंदिर का विवाद बड़ा ही दिलचस्प रहा है. हिन्दुओं के पौराणिक ग्रन्थ रामायण और रामचरित मानस के अनुसार यहां भगवान राम का जन्म हुआ था. हिंदुओं का दावा रहा कि बाबर ने मंदिर तोड़कर मस्ज्दि बनाई. इस स्थान को लेकर अंग्रेजों के समय हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सन 1853 में पहली बार विवाद हुआ. 1856 में अंग्रेजों ने विवाद को सुलझाने का प्रयास किया. नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और पूजा के लिए हिन्दूओं को बाहर का हिस्सा उपयोग में लाने को कहा.

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1946 में अन्दर के हिस्से में भगवान राम की मूर्ति रखी गई. इससे दोनों पक्षों में तनाव काफी बढ़ गया और सरकार ने इसके गेट पर ताला लगा दिया. सन 1986 में जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल को हिंदूओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दिया. मुस्लिम समुदाय ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की. इसी समय विश्व हिन्दू परिषद ने विवादित स्थल से सटी जमीन पर राम मंदिर बनाने की मुहिम शुरू की.

6 दिसंबर को गिरा दिया गया ढांचा

हिंदू संगठनों के आहवान पर श्री रामलला के जन्म स्थान पर 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवा आयोजित की गई. कारसेवा में भाग लेने के लिए लाखों लोग अयोध्या पहुंचे. केंद्र में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की सरकार थी.

उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में ढांचे की पूरी सुरक्षा का हल्फनामा दिया गया था लेकिन कार सेवकों ने सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे के बीच सारे ढांचे को ध्वस्त करके समतल भी कर दिया. इसके बाद देशभर में दंगे हुए और करीब 2 हजार लोग मारे गए.

ढांचे से खुले आकाश में विराजे रामलाला

इस घटना के बाद कल्याण सिंह की सरकार चली गई और उत्तर प्रदेश में राष्टपति शासन लग गया. सेना के जवानों ने अयोध्या में मोर्चा संभाल लिया. रामलला ढांचे से अब खुले आकाश के नीचे विराजमान हो गए. इसके बाद केंद्र सरकार ने पूरे मामले की जांच और उस पर विस्तृत रिपोर्ट बनाने के लिए दस दिन बाद यानि 16 दिसम्बर, 1992 को लिब्रहान आयोग का गठन किया गया. आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश एम.एस. लिब्रहान को आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. लिब्रहान आयोग को तीन महीने में रिपोर्ट देनी थी लेकिन राजनीतिक कारणों से आयोग को रिपोर्ट देने में ही 17 साल लग गए.

इधर, केंद्र सरकार ने इस स्थान के आस-पास की सारी जमीन का अधिग्रहण कर लिया. 1993 में इस अधिग्रहण को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिली. चुनौती देने वाला शख्स मोहम्मद इस्माइल फारुकी था. कोर्ट ने इस चुनौती को खारिज करते हुए कहा कि केंद्र इस जमीन का सिर्फ संरक्षक है और जब मलिकाना हक का फैसला हो जाएगा तो मालिकों को जमीन लौटा दी जाएगी. 1996 में राम जन्मभूमि न्यास ने केंद्र सरकार से यह जमीन मांगी लेकिन मांग ठुकरा दी गयी. इसके बाद न्यास ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया जिसे भी खारिज कर दिया गया.

2003 में इस पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया. कोर्ट ने कहा कि विवादित और गैर-विवादित जमीन को अलग करके नहीं देखा जा सकता. 30 जून, 2008 को लिब्रहान आयोग ने चार भागों में 700 पन्नों की रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को सौंपी.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित भूमि को रामजन्म भूमि घोषित किया

2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने निर्णय सुनाते हुए विवादित भूमि को रामजन्मभूमि घोषित किया गया. न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया कि विवादित भूमि जिसे रामजन्मभूमि माना जाता रहा है, उसे हिंदूओं को दे दिया जाए. न्यायालय ने यह भी कहा कि वहां से रामलला की प्रतिमा को नहीं हटाया जाएगा. न्यायालय ने यह भी पाया कि चूंकि सीता रसोई और राम चबूतरा आदि कुछ भागों पर निर्मोही अखाड़े का भी कब्जा रहा है इसलिए यह हिस्सा निर्माही अखाड़े के पास ही रहेगा. दो न्यायधीधों ने यह निर्णय भी दिया कि इस भूमि के कुछ भागों पर मुसलमान प्रार्थना करते रहे हैं इसलिए विवादित भूमि का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों को दे दिया जाए. लेकिन हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों ने इस निर्णय को मानने से अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया.

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सुप्रीम कोर्ट में यह मामला लंबे समय तक चलता रहा. आखिरकार इस बहुप्रतिक्षित मामले का फाइनल फैसला आ गया. तीन जजों की बैंच ने एक राय होकर यह जमीन हिंदुओं को मंदिर निर्माण के लिए सौंप दी. फैसले में मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार को एक ट्रस्ट बनाने के निर्देश दिए. इसके साथ ही मुसलमानों को मस्जिद बनाने के लिए 5 एकड़ जमीन देने के भी आदेश दिए. केंद्र सरकार ने तीन महीने में मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बना दिया. इससे पहले की मंदिर निर्माण कार्य का भव्य शुभारंभ होता, देश में कोरोना काल शुरू हो गया.

मंदिर आंदोलन ने बदली सामाजिक और राजनीतिक स्थितियां

1990 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी राम मंदिर के राजनीतिक आंदोलन के अगुवा बने. आडवाणी ने सोमनाथ मंदिर से अयोध्या के लिए राम रथ यात्रा निकाली. रथ यात्रा को हिंदूओं का जबर्दस्त समर्थन मिला. इससे पहले की यात्रा अयोध्या पहुंचती, बिहार के समस्तीपुर में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के निर्देश के बाद आडवाणी को गिरफ्तार करके राम रथ को जब्त कर लिया गया. इस गिरफ्तारी के बाद बीजेपी ने केंद्र की विश्वनाथ प्रतापसिंह की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. इस घटना के बाद बीजेपी की कायापलट हुई और बीजेपी ने लंबी छलांग मारी. भाजपा लोकसभा में 200 सीटों तक पहुंच गई. देश में पहली बार हिंदू वोटों का एकत्रिकरण हुआ.

आरएसएस भी हिंदुओं का केंद्र बन गई

रामजन्म भूमि आंदोलन का ही परिणाम था कि आरएसएस हिंदुओं का केंद्रीय संगठन बन गया. उसकी शाखा विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्म स्थान को लेकर गांव-गांव में शिला पूजन कार्यक्रम चलाए. इसी आंदोलन के चलते आरएसएस हिंदूओं के नजदीक हो गई. आरएसएस के अभियान के चलते ही देश में हिंदू और मुसलमानों के समान अधिकार की चर्चा शुरू हुई.

अब कहां हैं लालकृष्ण आडवाणी

राम जन्म भूमि पर मंदिर बनवाने के लिए देश में बड़ा राजनीतिक आंदोलन चलाने वाले लालकृष्ण आडवाणी आजकल भाजपा में केवल मार्ग दर्शक मंडल में है. यह तो राजनीतिक मामला है लेकिन मंदिर निर्माण सामाजिक और धार्मिक मसला है. ऐसे में पूरे देश में हिंदू जनजागरण चलाने वाले लालकृष्ण आडवाणी के नाम की चर्चा तक नहीं हो रही है. राम मंदिर निर्माण के काम में लगे हिंदू प्रतिनिधियों को केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तारीख मिलने का इंतजार है, लेकिन राम मंदिर आंदोलन से बीजेपी को इतने बड़े मुकाम तक पहुंचाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी केवल सवाल बन गए हैं.

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