पालिटाॅक्स ब्यूरो. दिल्ली के मतदाताओं को शिक्षित और समझदार मतदाताओं के रूप में जाना जाता है. पिछले कुछ चुनावों में जिस तरह से दिल्ली के मतदाताओं ने अपना निर्णय सुनाया है, वो बहुत ही चौकानें वाले रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब पूरे देश में नरेंद्र मोदी की जबरदस्त लहर चल रही थी और भाजपा बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुई थी. वो समय लोग अभी तक भूलें नहीं हैं, जब नरेंद्र मोदी की आंधी के सामने कांग्रेस सहित सारा विपक्ष ताश के पत्तों की तरह ढह गया. लेकिन ठीक उसके आठ महीने बाद 2015 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणामों ने पूरे देश को चौंकाते हुए पहली बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी और भाजपा के रणनीतिकारों को सोचने पर मजबूर कर दिया.
लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाने वाले नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के चाणक्य के रूप में लोगों के सामने आए अमित शाह की सारी की सारी रणनीति 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान धरी की धरी रह गई. नरेंद्र मोदी और भाजपा की प्रचंड आंधी के उस दौर में दिल्ली की जनता ने भाजपा को 70 में से सिर्फ 3 सीटें ही दीं जबकि कांग्रेस को तो मैदान सेे ही बाहर कर दिया. वहीं 2015 के चुनाव में दिल्ली की जनता ने राष्ट्रवाद के सामने भ्रष्टाचार को मुख्य मुददा बनाने वाले केजरीवाल को रिकार्ड 67 सीटें देकर पूर्ण बहुमत दिया. दिल्ली की पढी लिखी जनता के इस निर्णय से सभी लोग अचंभित हो गए. यह ऐसा समय था जब आम आदमी पार्टी का संगठानात्मक ढांचा भी भाजपा के मुकाबले बहुत ज्यादा मजबूत नहीं था.
एक बार फिर से दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं. देश और दिल्ली का राजनीतिक परिदृश्य एक बार फिर से वही है. एक बार फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की पहले से ज्यादा सम्पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनी है और ठीक 8 महीने बाद बाद फिर से वही दिल्ली विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं. एक बार फिर से केजरीवाल और नरेंद्र मोदी का चेहरा आमने-सामने है. यानि दिल्ली की अधिकांश सीटों पर आप और भाजपा के बीच सीधा-सीधा मुकाबला हो रहा है. हालांकि पिछले लगभग एक साल में हुए 6 राज्यों के चुनावों में से तीन राज्यों में स्प्ष्ट बहुमत और तीन राज्यों में बढ़े मत प्रतिशत के बाद कांग्रेस में भी जान आ गई है और रविवार को जारी हुए कांग्रेस के घोषणा पत्र में किए गए वादे बीजेपी और आप को टक्कर देने की क्षमता रखते हैं.
बात करें चुनावी मुद्दों की तो पिछले और इस बार के चुनाव में कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. पिछले चुनाव में भी भाजपा के राष्ट्रवाद बनाम केजरीवाल के विकास के वादे के बीच चुनाव था और वर्तमान में एक बार फिर से वही परिस्थितियां बनी हुई हैं. एक बार फिर भाजपा का कट्टर राष्ट्रवाद और केजरीवाल का विकास के बीच चुनाव होने जा रहा है. बल्कि कहा जा सकता है कि इस बार दोनों के ये मुद्दे पहले से ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं. पिछले चुनाव में केजरीवाल के पास विकास के सिर्फ वादे थे लेकिन इस बार उसके पास दिखाने के लिए पिछले पांच साल में हुए काम भी हैं. वहीं बीजेपी के पास दिल्ली से जुड़ा राष्ट्रवाद का कोई मुद्दा नहीं था लेकिन इस बार शाहीन बाग है.
चुनाव घोषणा से पूर्व हुए मीडिया सर्वों में केजरीवाल को बहुमत के साथ फिर से सरकार बनाते हुुए बताया गया है. इन सर्वे के बाद भाजपा और कांग्रेस खेमे में चिंता झलकी तो वहीं केजरीवाल का जादू दिख भी रहा है. केजरीवाल के सामने भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां मुख्यमंत्री का कोई चेहरा दिल्ली की जनता के सामने नहीं रख सकी हैं. इसके अलावा केजरीवाल ने सबसे पहले अपने 70 प्रत्याशियों की घोषणा की, वहीं भाजपा और कांग्रेस नामांकन के एक दिन पहले तक प्रत्याशी तय करने में ही लगी रही.
इस चुनाव की एक खास बात यह है कि एक अर्थ में दिल्ली के विकास से जुडे सारे मुद्दे केजरीवाल ने ही तय किए और चुनाव उसी दिशा में आगे बढा. मुद्दे सारे दिल्ली और जनता के विकास से जुडे हैं. पानी, बिजली, चिकित्सा, शिक्षा जैसे मुद्दों पर केजरीवाल ने भाजपा और कांग्रेस दोनों को ललकारा है. केजरीवाल के मुद्दे चुनाव की शुरूआती दौर में प्रभावी नजर भी आए, जिसके चलते भाजपा को अपना संकल्प पत्र और कांग्रेस को अपना घोषणा पत्र केजरीवाल के विकास के माॅडल और फ्री योजनाओं के अनुरूप ही बनाना पड गया. लेकिन पिछले लगभग दस दिनों में एक मुद्दा पूरे चुनावी आसमान पर किसी काले बादल की तरह हावी होता नजर आ रहा है, या यूं कह लिजिए कि उसे हावी बनाने की रणनीति पर काम किया जा रहा है. यह मुद्दा है, सीएए के खिलाफ पिछले लगभग 50 दिनों से शाहीन बाग में चल रहा धरना.
भारतीय जनता पार्टी के दिग्गजों ने शाहीन बाग के इस आंदोलन पर पूरा चुनाव ऐसे फोकस कर दिया है, जैसे शाहीन बाग भारत में ना हो बल्कि पाकिस्तान में हो और वहां सीएए के खिलाफ धरने पर बैठे लोग भारतीय नहीं पाकिस्तानी हो. भाजपा के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया कि दिल्ली का चुनाव हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच होने जा रहा है. हद ही हो गई इस अनोखे राष्ट्रवाद की. इस राष्ट्रवाद से प्रभावित होकर भाजपा के एक केंदीय मंत्री ने गोली मारो का नारा क्या दिया, दो नवयुवक राष्ट्रवादी पिस्तौल लेकर दिल्ली की सडकों पर आ गए और दोनों गिरफ्तार कर लिए गए. अनोखे राष्ट्रवाद की हवा में बहे दोनों पढाई करने वाले बच्चों के जीवन की दिशा ही बदल गई. इन बच्चों के मां-बाप और परिवार को कितनी परेशानियों का सामना करना पडेगा, इन बातों से अनजान दोनों युवा अपना भविष्य दांव पर लगा बैठे.
भाजपा नेता दिल्ली की जनता का सारा ध्यान शाहीन बाग पर लाने में लगे हैं. हालांकि शाहीन बाग के आंदोलन का दिल्ली के विकास से कोई लेना देना नहीं है. दिल्ली का विकास यानि शिक्षा, चिकित्सा और अन्य तरह के विकास से शाहीन बाग आंदोलन का दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है, लेकिन राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो यह आंदोलन अब अहम साबित होता जा रहा है. दिल्ली चुनाव और शाहीन बाग धरने के बीच संबंध बनाया जा रहा है. शाहीन बाग आंदोलन को लेकर भाजपा, कांग्रेस और आप में राजनीतक नूरा कुश्ती का दौर चल रहा है. भाजपा नेता अपने बयानों में आरोप लगा रहे हैं कि शाहीन बाग आंदोलन के पीछे केजरीवाल और कांग्रेस हैं. इतना ही नहीं इससे एक कदम आगे भाजपा नेता यह कहने से भी नहीं चूक रहे कि शाहीन बाग में चल रहे आंदोलन के पीछे राष्ट्र विरोधी ताकतें काम कर रही हैं.
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कांग्रेस नेताओं की बात करें तो उनका कहना है कि भाजपा दिल्ली चुनाव जीतने के लिए शाहीन बाग आंदोलन की आड में वोटों का ध्रुवीकरण कर इस चुनाव को हिंदू-मुसलमान का चुनाव बना रही है. वहीं आप का कहना है कि अगर शाहीन बाग आंदोलन से कानून व्यवस्था में खलल पड रहा है तो दिल्ली पुलिस मोदी सरकार के अधीन है, उन्हें जो भी कार्रवाई करनी हैं, वो करें.
सारे मुद्दे गौण और शाहीन बाग ऑन की तर्ज पर शाहीन बाग को दिल्ली चुनाव का सबसे प्रमुख मुद्दा बनाने के लिए हर दिन नेताओं के एक से बढ़कर एक बयान पर बयान आ रहे हैं. हर तरफ से जारी बयानबाजी और जहरीली भाषणबाजी के कारण दिल्ली की चुनावी फिंजा में नफरत का जहर घोला जा रहा है. शाहीन बाग में धरना तो पिछले 50 दिनों से चल रहा है, लेकिन दिल्ली चुनाव की घोषणा के साथ ही शाहीन बाग का धरना एक सनसनी बन गया. चुनावी बयानबाजी इतने नीचे स्तर तक जा चुकी है कि भाजपा के एक नेता ने दिल्ली की जनता द्वारा चुने गए मुख्यमंत्री केजरीवाल को ही आतंकवादी बता दिया.
अभी दिल्ली चुनाव के लिए मतदान में 6 दिन का समय बाकी है, यानि अभी छह दिन राजनीतिक चक्रव्यूह का खेल जारी रहेगा. धरने के 50 दिनों बाद मोदी सरकार के कानून मंत्री रविशंकर ने कहा कि सरकार धरने पर बैठे लोगों से सीएए के बारे में बात करने और कोई ग़लतफ़हमी इन कानून को लेकर है तो दूर करने को तैयार है. यानि यह बात पक्की है कि शाहीन बाग में फिर कुछ नया और बड़ा होने वाला है. चूंकि मतदान में बहुत कम समय बचा है, इसलिए जो भी होगा, वो अब बहुत तेजी से और अहम होगा. खास बात यह रहेगी कि जो भी होगा, कुछ ऐसा होगा कि उसका सीधा असर दिल्ली के मतदाताओं की मानसिकता पर पडेगा.
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चलो, केंद्र सरकार की अच्छी पहल है कि 50 दिन बाद ही सही लेकिन वो शाहीन बाग में धरने पर बैठे लोगों से सीएए पर चर्चा करने को तैयार है लेकिन सवाल तो वहीं का वहीं बना हुआ है कि शाहीन बाग का दिल्ली के विकास और चुनाव से लेना देना क्या है. अगर भाजपा नेता कहते हैं कि शाहीन बाग के धरने का दिल्ली के विकास से कोई लेना देना नहीं है तो फिर भाजपा नेता हर गली मोहल्ले की सभा में शाहीन बाग-शाहीन बाग क्यूं कर रहे हैं. इस सारे वातावरण के बीच दिल्ली के बुद्धिजीवी मतदाताओं को एक बहुत बडा निर्णय करना है. दिल्ली के जागरूक मतदाताओं को भाजपा के राष्ट्रवाद और केजरीवाल के विकास के दावों के बीच में से किसी एक को चुनना है.
सबसे महत्वपूर्ण बात, दिल्ली का यह चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण है. दिल्ली का चुनाव आने वाले कल की तस्वीर होगा और इसी के आधार पर आने अन्य राज्यों के चुनाव होंगे, मतलब की जनता को आखिर चाहिए क्या यह इस चुनाव से बिल्कुल साफ हो जाएगा. वहीं नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए तो सर्वाधिक तौर पर महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह ऐसे समय में है जब एक के बाद एक पांच राज्यों में भाजपा अपनी सरकार खो चुकी है. देखना ये है दिल्ली की जनता किसे चुनती है आप, भाजपा या फिर कांग्रेस. दिल्ली का चुनाव आने वाले भारत की नई राजनीतिक तस्वीर बनाएगा.