पॉलिटॉक्स न्यूज/उत्तरप्रदेश. कहना गलत न होगा कि बीते कुछ महीनों में प्रियंका गांधी यूपी के नेताओं में एक अहम और पॉपुलर चेहरा बनकर उभरी हैं. उन्होंने न केवल अपने भाषण और राजनीति से लोगों का मन जीता है, साथ ही अकेले ही योगी सरकार को टक्कर भी दी है. देखा जाए तो योगी के कद और पूर्व सीएम मायावती और पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के राजनीतिक करियर के सामने प्रियंका गांधी का व्यक्तिगत राजनीतिक अनुभव ना के बराबर क्योंकि अब तक प्रियंका ने विधायक तक का चुनाव नहीं लड़ा. इसके विपरीत योगी और अखिलेश कई बार लोकसभा चुनाव में अपनी अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. वहीं प्रियंका अपनी पार्टी की ही बागड़ौर संभाल रही है.
दूसरी ओर, यूपी का प्रभार संभालने के बाद केवल और केवल प्रियंका ही यूपी कांग्रेस का एकमात्र चेहरा हैं. लेकिन उनकी प्रदेश की राजनीति में बढ़ती सक्रियता से न केवल बुआ-भतीजे में डर बैठ रहा है, योगी सरकार भी उनसे सीधे तौर पर टक्कर लेना नहीं चाह रही. ऐसे में योगी खुद सामने न आकर अपने सिपेसालारों को आगे कर रहे हैं ताकि अपने राजनीतिक पैतरों को समय आने पर इस्तेमाल कर सके. इसके बावजूद प्रियंका ने अपने राजनीतिक हुनर के तेवर बीजेपी को दिखा दिए हैं जिसकी गूंज दिल्ली तक पहुंच गई है. सुनने में तो आ रहा है कि आला नेतृत्व इस बार यूपी विधानसभा चुनाव की रणनीति भी काफी गुप्त रखकर बना रहा है.
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जिस तरह प्रवासी मजदूरों को लेकर यूपी में ‘बस राजनीति‘ हुई, इसे लेकर बीजेपी खेमे में काफी चिंता दिख रही है और बीजेपी के नेता इसे कैसे जैसे करके छिपाने का प्रयास कर रहे हैं. प्रवासी मजदूरों की घर वापसी को लेकर पहले तो प्रियंका ने सीएम योगी को खत लिखे और बाद में एक अहम पैतरा चलते हुए योगी सरकार को एक हजार बस और वहन होने वाला पूरा खर्च उठाने का आॅफर दे दिया. किसी को भी रत्तीभर का शक नहीं था कि योगी सरकार इस पर ध्यान नहीं देगी लेकिन हुआ कुछ उलट. योगी सरकार ने आॅफर स्वीकार कर ली और बस भेजने को कहा. बाद में शायद आलाकमान को लगा होगा कि ये तो कुछ गलत हो गया क्योंकि इससे तो जनता के मन में प्रियंका के लिए पॉपुलर्टी बढ़ जाएगी. इसके बाद बीजेपी नेताओं ने पहले बसों की सूची में गड़बड़ी निकालनी शुरु की, बाद में खाली बसों को लखनउ भेजने की बात कहकर मामले को रफा दफा करने की कोशिश की.
मामला उछला तो बसों की फिटनेस पर सवाल उठाया गया. जब राजस्थान सरकार ने नियमों और लॉकडाउन का हवाला देकर फिटनेस 30 जून तक मान्य करवा दी तो स्थानीय प्रशासन को बीच में लगाकर बसों को वापिस भिजवा दिया. इस पर राजनीति पहले से अधिक गर्मा गई. अब यूपी के डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा और प्रवक्ता संबित पात्रा जैसे बीजेपी के नेता मुद्दे पर ध्यान बंटाकर उसे नया रंग और नई राह देने की कोशिशों में जुट गए हैं.
इधर, बसपा सुप्रीमो मायावती ने दोनों ही पार्टी को निशाने पर लेकर मिलीभगत का आरोप जड़ दिया. मायावती का कहना है कि दोनों पार्टियां केवल मजदूरों का मजाक उड़ा रही हैं और ध्यान भटकाने पर लगी हैं. वहीं अखिलेश यादव भी खुलकर नहीं बोल पा रहे. वजह साफ है, समाजवादी पार्टी ने पिछला चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था लेकिन तीन प्रमुख पार्टियों के चुनावी मैदान में होने के बावजूद 70 फीसदी सीटें अकेले बीजेपी के खाते में आ गई. लोकसभा में हाल तो इससे भी बुरा हुआ. ये सदमा ऐसा था कि दोनों ही पार्टियां अब तक इस सदमे से उबर नहीं पायीं.
उधर, कांग्रेस की भी हालत पतली थी लेकिन प्रियंका ने आगे आते हुए बेहद कठिन और कांटों पर चलने वाला रास्ता चुना. कांग्रेस ने उनको यूपी का प्रभारी बनाया गया. अब ढाई साल की उनकी मेहनत प्रदेश की राजनीति में साफ तौर पर दिखने लगी हैं. उनके भाषण देने का तरीका, सत्ताधारी पक्ष पर दबाव बनाना, मुद्दों को उठाना, सोशल कैंपेनिंग और युवाओं में बढ़ती उनकी लोकप्रियता ने प्रियंका गांधी को एक उभरते हुए नेता के तौर पर मजबूती से स्थापित किया है. चर्चाएं तो यहां तक हैं कि 2022 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के मुख्यमंत्री चेहरे के तौर पर प्रियंका को ही आगे रखा जाएगा. ये सिर्फ और सिर्फ प्रियंका गांधी की मेहनत का ही नतीजा है.
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यूपी की राजनीति में एक छत्र राज करने वाली समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव भी अपनी बिखरी पार्टी को एकजुट करने में लंबे समय से जुड़े हुए हैं लेकिन सफल नहीं हो पा रहे. पूर्व सीएम और बसपा प्रमुख मायावती के ‘दलित कार्ड’ में अब पहले वाली धार नहीं रही. यूपी में योगी का दबदबा है, इसमें कोई शक नहीं लेकिन नंबर दो के तौर पर अगर यूपी में कोई नेतृत्व खड़ा हो रहा है तो वो प्रियंका के अलावा कोई नहीं है.
अलबत्ता अखिलेश और मायावती को भी ये भली भांति पता चल गया है. यही वजह है कि अखिलेश खुलकर कांग्रेस का समर्थन नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि इससे पार्टी में हीन भावना आ सकती है. उनकी ये रणनीति अगले चुनाव में कांग्रेस के इर्दगिर्द होने को लेकर है. इधर मायावती झल्लाते हुए कांग्रेस और बीजेपी पर निशाना साध रही हैं लेकिन सीधे प्रियंका पर अटैक नहीं कर रही. उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के बढ़ते प्रभाव और राजनीतिक सक्रियता को देखते हुए ही सपा और बसपा ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में हुई 22 विपक्षी दलों की बैठक से सियासी डिस्टेंस बनाए रखा.
जबकि इससे पहले तक मायावती कई मौकों पर विपक्ष की ऐसी बैठकों में अपने प्रतिनिधि के तौर पर राज्यसभा सदस्य और बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा को भेजती रही हैं लेकिन इस बार उन्होंने बैठक में भाग लेने से ही इनकार कर दिया. सपा हमेशा विपक्षी दलों की बैठक में शामिल होती रही है और सपा प्रमुख अखिलेश यादव पार्टी महासचिव रामगोपाल यादव को पार्टी प्रतिनिधि के तौर पर भेजते रहे हैं लेकिन इस बार उन्होंने भी यूपी में बदले हुए सियासी माहौल में बैठक का हिस्सा नहीं बनने का फैसला लिया.
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लॉकडाउन के बीच कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश में सक्रिय होकर सपा और बसपा सहित स्थानीय दलों को ही नहीं बल्कि योगी सरकार को भी बेचैन कर दिया है. घर वापसी करने वाले मजदूरों के मुद्दे पर हमलावर रुख अपनाकर प्रियंका ने सपा व बसपा जैसी मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों को पीछे भी छोड़ दिया है. प्रियंका गांधी पैदल घर जाने वाले श्रमिकों के लिए अपनी ओर से 1000 बस चलाने की पेशकश कर योगी सरकार से दो-दो हाथ कर चुकी हैं. योगी सरकार ने भले ही बसों को यूपी में एंट्री न दी हो, लेकिन कांग्रेस मजदूरों के मन में कहीं ना कहीं जगह बनाने में जरूर कामयाब रही है. इसके विपरीत इस महत्पवूर्ण मुद्दे पर सपा और बसपा पूरी तरह सीन से गायब थीं.
लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की घर वापसी मुद्दे के अलावा सोनभद्र में जमीन मामले को लेकर हुआ नरसंहार, उन्नाव में रेप पीड़िता को जलाने का मामला या फिर सीएए के खिलाफ प्रदर्शन में पुलिसिया कार्रवाई सहित पीड़ितों की आवाज उठाने में प्रियंका यूपी में सबसे आगे नजर आईं. ऐसे में सपा और बसपा को अपनी सियासी जमीन खिसकती नजर आ रही है क्योंकि प्रियंका गांधी दलित, आदिवासियों से लेकर मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाने में जुटी हैं. वजह साफ है, कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव एवं यूपी कांग्रेस की प्रभारी प्रियंका गांधी का फोकस मिशन 2022 पर हैं. ऐसे में सपा और बसपा बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस से दूरी बनाकर रखना चाहते हैं.
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वैसे देखा जाए तो प्रियंका गांधी जब से उत्तर प्रदेश की प्रभारी बनी हैं तब से कांग्रेस मायावती के निशाने पर आ गई हैं. सोनभद्र से लेकर उन्नाव और अब बस विवाद पर मायावती ने कांग्रेस पर सवाल खड़े किए हैं. ऐसे ही सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी कांग्रेस पर हमला करने से नहीं चूकते हैं. ये प्रियंका गांधी के यूपी की सियासत में बढ़ते प्रभुत्व की वजह से ही है जिसे चाहते न—चाहते हुए भी योगी सरकार ने हवा दे दी है.