महाराष्ट्र की सियासत में लंबे समय से ये एक सवाल ही है कि क्या एनसीपी प्रमुख एवं राज्य के डिप्टी सीएम अजित पवार और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मतभेद चल रहे हैं? या फिर एनसीपी सुप्रीमो महायुति से अलग राह अपनाने की तैयारी कर रहे हैं? इस बीच अजित पवार के एक बयान से महाराष्ट्र का सियासी पारा चढ़ा हुआ है. उनका यह बयान महाराष्ट्र में होने वाले स्थानीय निकाय चुनाव से ठीक पहले आया है, जिसके बाद प्रदेश की राजनीति में अनेक सवाल उठने लगे हैं.
दरअसल, विदर्भ को भारतीय जनता पार्टी, खासकर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का गढ़ माना जाता है. वहीं राज्य के उप मुख्यमंत्री अजित पवार उसी विदर्भ में अपनी पार्टी का चिंतन शिविर आयोजित करने जा रहे हैं. यहां उन्होंने एक बड़ा बयान देते हुए कहा कि विदर्भ को किसी पार्टी का स्थाई गढ़ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस क्षेत्र में अतीत में विभिन्न समय पर अलग-अलग परिणाम सामने आ चुके हैं. इस बयान के बाद प्रदेश की राजनीति में नई बहस छिड़ गयी है.
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विदर्भ को लंबे समय से बीजेपी का मजबूत गढ़ माना जाता रहा है. सीएम फडणवीस और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी इसी क्षेत्र से आते हैं. वहीं अजित पवार के बयान से साफ है कि एनसीपी इस धारणा को तोड़ने की कोशिश कर रही है. उन्होंने ये भी कहा कि आज भले ही बीजेपी देश और राज्य की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन सभी दल यहां मेहनत कर रहे हैं. बीजेपी, शिवसेना और एनसीपी सभी दलों के कार्यकर्ताओं को आगामी स्थानीय निकाय चुनावों से उम्मीदें हैं.
इधर, एनसीपी के विदर्भ से संगठनात्मक मंथन की शुरुआत करने के फैसले ने राजनीतिक हलकों में सवाल खड़े कर दिए हैं. वहीं पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुनील तटकरे ने इस बात का स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि पारंपरिक रूप से पश्चिमी महाराष्ट्र एनसीपी का गढ़ रहा है, लेकिन हमने यहां आठ सीटों पर चुनाव लड़ा और सात पर जीत हासिल की. हमारी स्ट्राइक रेट 90 फीसदी रही, यह साबित करता है कि विदर्भ में हमारी मजबूत पकड़ है.
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अब महाराष्ट्र के सियासी गलियारों में राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अजित पवार और सुनील तटकरे का संदेश साफ है कि एनसीपी सिर्फ पश्चिमी महाराष्ट्र की पार्टी नहीं, बल्कि विदर्भ में भी अपने विस्तार का दावा कर रही है. यह रुख एनसीपी को महायुति में सीट बंटवारे की बातचीत में अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद कर सकता है. एक ओर, एनसीपी खुद को उभरती ताकत के रूप में पेश कर रही है, वहीं बीजेपी अपने गढ़ को बचाने के लिए जोर लगाएगी, तो शिवसेना भी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में अधिक प्रतिनिधित्व पाने की कोशिश करेगी.
यह गतिरोध इस बात का संकेत है कि एनसीपी अब क्षेत्रीय राजनीतिक धारणाओं को तोड़ने और अपने लिए बड़ी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की रणनीति पर काम कर रही है. अब सबकी नजरें इस पर टिकी होंगी कि क्या अजित पवार का यह दांव भारतीय जनता पार्टी की बढ़त को चुनौती दे पाएगा या एनसीपी विदर्भ में अपने पांव जमा पाएगी.



























