केरल का ‘चुनावी चकल्लस’, चार दशक पुराने ट्रेंड को तोड़ सकता है इस बार का विधानसभा चुनाव

केरल की सत्ता में एक बार कांग्रेस, दूसरी बार वामपंथी, यह सिलसिला पिछले लंबे अर्से से है जारी, लेकिन इस बार रोचक हुआ मुकाबला, चुनावी अखाड़े में कौन दांव आजमा रहा है? राज्य में इस बार सियासी हवा का रुख किस तरफ दिख रहा है? इस चुनाव के क्या रहे बड़े मुद्दे?

केरल का 'चुनावी चकल्लस'
केरल का 'चुनावी चकल्लस'

Politalks.News/Kerala Election. केरल विधानसभा की 140 सीटों के लिए बीती 6 अप्रैल को मतदान हो चुका है. बता दें, केरल की सत्ता में एक बार कांग्रेस, दूसरी बार वामपंथी, यह सिलसिला पिछले लंबे अर्से से जारी है, लेकिन इस बार केरल की चुनावी लड़ाई रोचक हो गई है. भाजपा ने ऐसी टांग फंसाई है कि केरल की कई ऐसी सीटें जो सत्ताधारी एलडीएफ और विरोधी गठबंधन यूडीएफ की पक्की मानी जाती थीं, उनमें उलटफेर होने की संभावना तो है, लेकिन एक सर्वे में बताया गया है कि केरल में बीजेपी मात्र दो सीट जीत सकती है. वहीं 2-4 सीटों के अंतर से ही कम्युनिस्ट नेतृत्व वाला एलडीएफ, कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ से आगे रहेगा.

इस सर्वे ने कांग्रेस की चिंता बढ़ा दी है, इसलिए नहीं कि एलडीएफ उससे 2-4 सीटों से आगे है, बल्कि इसलिए क्योंकि बीजेपी दो सीट जीत रही है. कांग्रेस की चिंता राहुल गांधी के इस बयान से जाहिर होती है जिसमें उन्होंने कहा था कि बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत की बात तो करती है, लेकिन लेफ्ट मुक्त भारत की बात नहीं करती. सियासी गलियारों में चर्चा है कांग्रेस के लोग यह भी कहते हैं कि चिंता की बात यह भी है कि मणिपुर में दो सीट जीतने के बावजूद बीजेपी ने सरकार बना ली थी और केरल में भी दो सीट जीतने की बात आ रही है. तो कहीं केरल अगला मणिपुर न बन जाए. सियासी पंडित कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी संभव है लेकिन ना तो कांग्रेस और ना ही वामदलों के साथ बीजेपी का किसी भी तरह का गठबंधन हो सकता है. तो बीजेपी के लिए केरल फिलहाल दूर की कौड़ी है.

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केरल का सियासी गणित-
केरल की राजनीति लंबे वक्त से कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन- यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) – और सीपीएम के नेतृत्व वाले- लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ)- के इर्द-गिर्द ही रही है. इस बार भी चुनावी मुकाबला मुख्य तौर पर इन दोनों के बीच ही है. बीजेपी भी इस बार थोड़ा जोर लगाती दिख रही है, लेकिन चुनावी सर्वे बीजेपी को एक से दो सीटे दे रहे हैं. वहीं सत्तारूढ़ एलडीएफ इस चुनाव में 4 दशक पुराने ट्रेंड को तोड़कर लगातार दूसरी बार सत्ता में आने की कोशिश में है.

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आपको बता दें, इससे पहले केरल में पिछली बार साल 1977 में किसी पार्टी/गठबंधन ने लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी की थी, जब कांग्रेस की अगुवाई वाले फ्रंट ने चुनाव जीता था. इसके बाद 1980 के विधानसभा चुनाव से सत्ता बदलने का जो ट्रेंड शुरू हुआ, वो अभी तक नहीं टूटा है. इस बार के चुनाव के जरिए बीजेपी भी केरल में अपना कद बढ़ाने की पूरी कोशिश कर रही है. केरल के पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी राज्य की कुल 140 में से 98 सीटों पर उतरी थी और उसे महज 1 सीट पर ही जीत मिली थी.

केरल में गठबंधन का गणित
सीट बंटवारे की बात करें तो यूडीएफ में कांग्रेस 92 सीटों पर चुनाव लड़ी. इसके अलावा इस गठबंधन में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) 27 सीटों पर, केरल कांग्रेस (जोसेफ) 10 सीटों पर, मणि सी कप्पन की नेशनलिस्ट केरल कांग्रेस दो सीटों पर और कम्युनिस्ट मार्क्सिस्ट पार्टी एक सीट पर चुनाव लड़ा. एलडीएफ के सीट बंटवारे में सीपीएम के खाते में 85 सीटें आई हैं, जबकि बाकी 55 सीटों पर उसकी सहयोगी पार्टियां मैदान में उतरी.

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आपको बता दें, केरल में बीजेपी ने 115 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. जबकि बाकी 25 सीटों पर उसके सहयोगी पार्टियों के उम्मीदवार भाग्य आजमा रहे हैं. दक्षिण भारत के इस राज्य में बीजेपी ने भारत धर्म जन सेना (बीजेडीएस) और जनाथीपथ्य राष्ट्रीय सभा (जेआरएस) के साथ गठबंधन किया है. इस मुकाबले का एक दिलचस्प पहलू यह है कि केरल में जिस कांग्रेस और लेफ्ट के बीच सीधा मुकाबला है, पश्चिम बंगाल में उनके बीच गठबंधन है.

चुनाव के बड़े मुद्दे क्या हैं?
सी-वोटर के एक हालिया सर्वे के मुताबिक, केरल में जनता के बीच इस बार का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बेरोजगारी का है, जिसे सर्वे का हिस्सा बने 41 फीसदी लोगों ने सबसे बड़ा मुद्दा माना. इसके बाद बिजली, पानी, सड़क की स्थिति (14.5 फीसदी), सरकारी कामों में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण (11.5 फीसदी), कोरोना वायरस महामारी (7.6 फीसदी) बड़े मुद्दों के तौर पर सामने आए हैं.

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