rahul gandhi
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Rahul Gandhi said on Bharat Jodo Yatra: कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बीते वर्ष कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक पैदल चलकर भारत जोड़ो यात्रा निकाली थी. गत वर्ष 7 सितंबर को कन्याकुमारी से शुरू हुई इस यात्रा ने लगभग 135 दिनों में कश्मीर तक का सफर तय किया था. इस यात्रा से जुड़ी कुछ यादों को आज राहुल गांधी ने “भारत माता हर भारतीय की आवाज” शीर्षक से अपने ट्वीटर एकाउंट पर शेयर किया है.

राहुल गांधी ने लिखा है “जो बात दिल से निकलती है वह दिल में उतरती है” पिछले साल अपने घर, यानि भारत माता के आँगन में, मैं एक सौ पैंतालीस दिनों तक पैदल चला. समुद्र तट से मैंने शुरुआत की और धूल, धूप, से होकर गुजरा. जंगलों, चरागाहों, शहरों, खेतों, गाँवों, नदियों और पहाड़ों से होते हुए मैं महबूब कश्मीर की नर्म बर्फ तक पहुँचा. रास्ते में अनेक लोगों ने मुझसे पूछा ये आप क्यों कर रहे हैं? आज भी कई लोग मुझसे यात्रा के लक्ष्य के बारे में पूछते हैं. आप क्या खोज रहे थे? आपको क्या मिला?

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राहुल गांधी ने लिखा असल में, मैं उस चीज को समझना चाहता था जो मेरे दिल के इतने करीब है, जिसने मुझे मृत्यु से आँख मिलाने और “चरैवेति” की प्रेरणा दी, जिसने मुझे दर्द और अपमान सहने की शक्ति दी और जिसके लिए मैं सब कुछ न्योछावर कर सकता हूँ. दरअसल मैं जानना चाहता था कि वह चीज आखिर है क्या, जिसे मैं इतना प्यार करता हूँ? यह धरती? ये पहाड़? यह सागर? ये लोग या कोई विचारधारा? शायद मैं अपने दिल को ही समझना चाहता था. वह क्या है, जिसने मेरे दिल को इस जतन से पकड़ रखा है?

वर्षों से रोजाना वर्जिश में लगभग हर शाम में 8-10 किलोमीटर दौड़ लगाता रहा हूँ. मैंने सोचा: बस पच्चीस ? मैं तो आराम से 25 किलोमीटर चल लूँगा, मैं आश्वस्त था कि यह एक आसान पदयात्रा होगी. लेकिन जल्द ही दर्द से मेरा सामना हुआ. मेरे घुटने की पुरानी चोट, जो लम्बे इलाज के बाद ठीक हो गई थी, फिर से उभर आई. अगली सुबह, लोहे के कंटेनर के एकांत में मेरी आँखों में आंसू थे, बाकी बचे 3800 किलोमीटर कैसे चलूँगा? मेरा अहंकार चूर-चूर हो चुका था.

भिनुसारे ही पदयात्रा शुरू हो जाती थी और ठीक इसके साथ ही दर्द भी, एक भूखे भेड़िए की तरह दर्द हर जगह मेरा पीछा करता और मेरे रुकने का इंतज़ार करता. कुछ दिनों बाद मेरे पुराने डॉक्टर मित्र आये, उन्होंने कुछ सुझाव भी दिये. मगर दर्द जस का तस था, लेकिन तभी कुछ अनोखा अनुभव हुआ. यह एक नई यात्रा की शुरुआत थी. जब भी मेरा दिल डूबने लगता, मैं सोचता कि अब और नहीं चल पाऊँगा, अचानक कोई आता और मुझे चलने की शक्ति दे जाता. कभी खूबसूरत लिखावट वाली आठ साल की एक प्यारी बच्ची, कभी केले के चिप्स के साथ एक उदास बुजुर्ग महिला, कभी एक आदमी जो भीड़ को चीरते हुए आये, मुझे गले लगाये और गायब हो जाये. जैसे कोई ख़ामोश और अदृश्य शक्ति मेरी मदद कर रही हो, घने जंगलों में जुगनुओं की तरह, वह हर जगह मौजूद थी. जब मुझे वाक़ई इसकी जरूरत थी. यह शक्ति मेरी राह रौशन करने और मदद करने वहाँ पहले से थी.

भारत जोड़ो यात्रा आगे बढ़ती गई, लोग अपनी समस्याएँ लेकर आते रहे. शुरुआत में मैंने सबको अपनी बात बतानी चाही. मैंने उन्हें भरसक समझने की कोशिश की. मैंने लोगों की परेशानियों और उनके उपायों पर बातें की. जल्द ही लोगों की संख्या बहुत ज्यादा हो गई और मेरे घुटने का दर्द बदस्तूर ऐसे में, मैंने लोगों को महज देखना और सुनना शुरू कर दिया. यात्रा में शोर बहुत होता था. लोग नारे लगाते, तस्वीरें खींचते, बतियाते और धकियाते चलते थे, रोज का यही क्रम था. प्रतिदिन 8-10 घंटे मैं सिर्फ लोगों की बातें सुनता और घुटने के दर्द को नजरंदाज करने की कोशिश करता.

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एक दिन, मैंने एकदम अनजाने और अप्रत्याशित मौन का अनुभव किया. सिवाय उस व्यक्ति की आवाज के जो मेरा हाथ पकड़े मुझसे बात कर रहा था मुझे और कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था. मेरे भीतर की आवाज, जो बचपन से मुझसे कुछ कहती- सुनती आ रही थी, ख़ामोश होने लगी. ऐसा लगा जैसे कोई चीज हमेशा के लिए छूट रही हो. वह एक किसान था और मुझे अपनी फसल के बारे में बता रहा था. उसने रोते हुए कपास की सड़ी हुई लड़ियाँ दिखाई, मुझे उसके हाथों में बरसों की पीड़ा दिखाई पड़ी. अपने बच्चों के भविष्य को लेकर उसका डर मैंने महसूस किया. उसकी आँखों के कटोरे तमाम भूखी रातों का हाल बताते थे, उसने कहा कि अपने मरणासन्न पिता के लिए वह कुछ भी नहीं कर पाया, उसने कहा कि कभी-कभी अपनी पत्नी को देने के लिए उसके हाथ में एक कौड़ी भी नहीं होती. शर्मिंदगी और विपत्ति के वे लम्हें जो उसने अपनी जीवनसाथी के सामने महसूस किए, मानों मेरे दिल में कौंध गए. मैं कुछ बोल नहीं पाया. बेबस होकर मैं रुका और उस किसान को बाहों में भर लिया.

राहुल गांधी ने आगे लिखा कि अब बार-बार यही होने लगा. उजली हंसी वाले बच्चे आये, माताएँ आयीं, छात्र आये, सबसे मिलकर यही भाव बार-बार मुझ तक आया. ऐसा ही अनुभव दुकानदारों, बढ़इयों, मोचियों, नाइयों, कारीगरों और मजदूरों के साथ भी हुआ. फौजियों के साथ यही महसूस हुआ. अब मैं भीड़ को शोर को और खुद को सुन ही नहीं पा रहा था. मेरा ध्यान उस व्यक्ति से हटता ही नहीं था जो मेरे कान में कुछ कह रहा होता था. आसपास का शोरगुल और मेरे भीतर छिपा हुआ अहर्निश मुझ पर फैसले देने वाला आदमी न जाने कहाँ गायब हो चुका था. जब कोई छात्र कहता कि उसे फेल होने का डर सता रहा है, मुझे उसका डर महसूस होता था. चलते-चलते एक दिन, सड़क पर भीख माँगने को मजबूर बच्चों का एक झुंड मेरे सामने आ गया. वे बच्चे ठंड से काँप रहे थे. उन्हें देखकर मैंने तय किया जब तक ठंड सह सकूँगा, यही टीशर्ट पहनूंगा.

मेरी श्रद्धा का कारण अचानक खुद-ब-खुद मुझ पर प्रकट हो रहा था. मेरी भारत माता जमीन का टुकड़ा-भर नहीं, कुछ धारणाओं का गुच्छा-भर भी नहीं है, न ही किसी एक धर्म, संस्कृति या इतिहास विशेष का व्याख्यान, न ही कोई खास जाति-भर, बल्कि हर एक भारतीय की पारा-पारा आवाज है, भारत माता चाहे वह कमजोर हो या मजबूत. उन आवाजों में गहरे बैठी जो ख़ुशी है, जो भय और जो दर्द है, वही है भारत माता. भारत माता की यह आवाज सब जगह है. भारत माता की इस आवाज को सुनने के लिए आपकी अपनी आवाज को, आपकी इच्छाओं को, आपकी आकांक्षाओं को चुप होना पड़ेगा. भारत माता हर समय बोल रही हैं. भारत माता किसी अपने के कान में कुछ न कुछ बुदबुदाती है, मगर तभी जब उस अपने का आत्म पूरी तरह से शांत हो, जैसे एक ध्यानमग्न मनुष्य का मौन सब कुछ कितना सरल था. भारत माता की आत्मा का वह मोती जिसे मैं अपने भीतर की नदी में खोज रहा था, सिर्फ भारत माता की सभी संतानों के हराते हुए अनंत समुद्र में ही पाया जा सकता है.

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