अपने 40 साल से ज्यादा के सार्वजनिक जीवन में राजस्थान ही नहीं, केंद्र की राजनीति में भी कई बार ‘जादूगरी’ दिखा चुके अशोक गहलोत की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा 2019 के लोकसभा चुनाव को कहा जाए तो गलत नहीं होगा. तीन बार राजस्थान में सत्ता के शिखर तक पहुंच चुके गहलोत ने राजनीति के कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन जीत आखिरकार उनकी ही हुई है. वे कभी पार्टी के भीतर चुनौतियों से निपटे हैं तो कभी विपक्ष पर बीस साबित हुए हैं.

चार महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव के समय राजनीति के जानकारों का एक तबका यह मानकर चल रहा था कि इस बार कांग्रेस के बहुमत हासिल करने की स्थिति में आलाकमान उनकी बजाय युवा सचिन पायलट को गद्दीनशीं करेगा, लेकिन कई दिन तक चली खींचतान के बाद अंतत: सेहरा उनके सिर ही सजा और पायलट को राहुल गांधी का वरदहस्त होने के बावजूद उप मुख्यमंत्री की कुर्सी से ही संतोष करना पड़ा.

जिस समय आलाकमान राजस्थान में मुख्यमंत्री के चयन को लेकर पसोपेश में था उस समय अशोक गहलोत के पक्ष में इस तर्क ने सबसे ज्यादा काम किया कि चार महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी को अच्छा प्रदर्शन करना है तो सू​बे की कमान अनुभवी हाथों में सौंपना जरूरी है. अब जब राजस्थान की कमान गहलोत के हाथों में है तो आलकमान उनसे कम से कम विधानसभा चुनाव में मिली सीटों के अनुपात में लोकसभा की सीटों की जिताने की अपेक्षा कर रहा है.

वैसे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामने 20 सीटों का लक्ष्य रखा है. जिस तरह से देश में मोदी का प्रभाव देखने को मिल रहा है और विपक्ष मोदी को हराने के नाम पर एक हो रहा है। उस घड़ी में खुद की पार्टी के शासन वाले राज्य राजस्थान से राहुल की अपेक्षा कुछ ज्यादा होना गलत नहीं है. इसके पीछे एक कारण यह भी है कि राजस्थान में पिछले कई चुनाव में यह ट्रेंड रहा है कि जिसकी सरकार होती है, उसकी लोकसभा में ज्यादा सीटें आती हैं. निश्चित रूप से आलाकमान की इस अपेक्षा का भार गहलोत के कंधों पर है.

‘मिशन-25’ के लक्ष्य के साथ चुनावी रण में उतरे अशोक गहलोत पर लोकसभा की ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज करने का दवाब तो है ही, जोधपुर सीट पर बेटे वैभव का चुनाव लड़ना उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है. पहली बार गहलोत के परिवार का कोई व्यक्ति चुनाव लड़ रहा है. वह भी तब जब वे मुख्यमंत्री हैं. गहलोत चाहते तो पिछले कार्यकाल के दौरान भी वैभव को चुनावी रण में उतार सकते थे, लेकिन तब उन्होंने ऐसा नहीं किया.

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इस बार जब वैभव गहलोत को जोधपुर से उम्मीदवार बनाया गया तो सीएम गहलोत ने कई बार यह बात दोहराई कि यह टिकट उनके कहने से नहीं दिया गया है. उन्होंने कहा कि वैभव इतने साल से राजनीति में ​सक्रिय है, पार्टी ने उनके कामकाज को देखते हुए उम्मीदवार बनाया है. गहलोत के इस बयान और सच्चाई के बीच कितना फासला है, इसे राजनीति की सामान्य समझ रखने वाला व्यक्ति भी जान सकता है. इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता कि गहलोत की रजामंदी से वैभव को टिकट मिला है.

जोधपुर से वैभव का टिकट तय होने के बाद उनकी जीत की जिम्मेदारी अशोक गहलोत के कंधों पर आनी ही थी. पहले तो यह चुनाव आसान माना जा रहा था, लेकिन बीजेपी ने यहां जोरदार चक्रव्यूह रचा. बीजेपी उम्मीदवार गजेंद्र सिंह शेखावत मोदी-शाह के चहेते हैं. वे उनमें राजस्थान की राजनीति का भविष्य तलाश रहे हैं. ऐसे में उनकी ​जीत बीजेपी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई. उनके समर्थन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ी सभा की और पार्टी अध्यक्ष अ​मित शाह ने रोड-शो किया.

इस चुनाव में गजेंद्र सिंह शेखावत बीजेपी के उन गिने-चुने उम्मीदवारों में शामिल हैं, जिनका प्रचार करने मोदी-शाह, दोनों आए. बीजेपी की इस रणनीति ने वैभव गहलोत की राह कठिन कर दी. इसे आसान बनाने के लिए अशोक गहलोत को जमकर पसीना बहाना पड़ा. उन्हें गली-गली में प्रचार के लिए उतरना पड़ा. बावजूद इसके जोधपुर में कांटे की टक्कर बताई जा रही है. वोटिंग ट्रेंड के आधार पर राजनीति के जानकार जीत-हार का अंतर 40 हजार के अंदर बता रहे हैं.

हालांकि अशोक गहलोत जीत के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हैं. उनकी नजदीकी नेता चार विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक बढ़त को जीत का आधार बता रहे हैं. वहीं, बीजेपी के नेता मोदी लहर के सामने अशोक गहलोत की रणनीति को बेअसर बताकर जीत का दावा कर रहे हैं. हालांकि गजेंद्र सिंह शेखावत के करीबी लोग यह मान रहे हैं कि मुकाबला कड़ा है और कुछ भी नतीजा आ सकता है.

जोधपुर में मतदान होने के बाद अशोक गहलोत दूसरे चरण की 12 सीटों पर धुंआधार प्रचार कर रहे हैं, लेकिन उनके चेहरे पर जोधपुर के परिणाम का दवाब देखा जा सकता है. उन्हें पता है कि कुल सीटें भले ही 7 से 8 रह जाएं, लेकिन जोधपुर में वैभव चुनाव हार गए तो यह उनकी सियासत के लिए कितनी हानिकारक होगी. विरोधी खेमा यह कहने में जरा भी देर नहीं लगाएगा कि जो अपने गृह क्षेत्र में बेटे को चुनाव नहीं जिता सके उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहने का क्या अधिकार है.

कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि राजस्थान में लोकसभा चुनाव का रण मुख्यमंत्री के साथ साथ पिता अशोक गहलोत की भी अग्निपरीक्षा ले रहा है. अब यह तो भविष्य के गर्त में है कि हर बार की तरह अशोक गहलोत की सियासी जादूगरी चलती है या इसकी धार कुंद होती है.

 

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