लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बंपर जीत पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोर रही है. पार्टी ने 2014 से भी ज्यादा सीटें जीतकर इतिहास रचा है. बीजेपी के 303 उम्मीदवार चुनाव जीते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है अमेठी से स्मृति ईरानी की जीत की. उन्होंने गांधी परिवार का गढ़ मानी जाने वाली उत्तर प्रदेश की अमेठी सीट से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पटकनी देकर सबको चौंका दिया है. स्मृति ने राहुल गांधी को 55,122 वोटों के अंतर से शिकस्त दी.

यह दूसरा मौका है जब अमेठी से गांधी परिवार के किसी सदस्य को हार झेलनी पड़ी है. इससे पहले 1977 के लोकसभा चुनाव में संजय गांधी को हार का सामना करना पड़ा था. तब जनता पार्टी के रविंद्र प्रताप सिंह ने संजय गांधी को पटकनी दी थी. हालांकि राजनीतिक विश्लेषक 1977 के चुनाव में संजय गांधी की हार को राहुल गांधी के मुकाबले अप्रत्याशित नहीं मानते, क्योंकि उस समय आपातकाल लागू करने की वजह से पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा था. तब लोग संजय गांधी को ही आपातकाल का सूत्रधार मानते थे.

कई लोग अमेठी से स्मृति ईरानी की जीत की तुलना 1977 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली से इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण की जीत से कर रहे हैं. अलबत्ता राजनारायण की जीत में उनकी मेहनत से ज्यादा इंदिरा गांधी के खिलाफ आपातकाल लगाने का गुस्सा था. इस लिहाज से देखें तो स्मृति ईरानी की जीत राजनारायण और रविंद्र प्रताप सिंह से बड़ी है. इस बार के चुनाव में मोदी की आंधी तो थी, लेकिन राहुल गांधी या कांग्रेस के खिलाफ गुस्से जैसी कोई बात नहीं थी.

अमेठी से स्मृति ईरानी की जीत विशुद्ध रूप से पांच साल तक सक्रियता, कड़ी मेहनत और रणनीति का नतीजा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में हारने के बावजूद स्मृति ईरानी अमेठी से ठीक वैसे ही जुड़ी रहीं, जैसे वे ही वहां की सांसद हों. 2014 से 2019 के बीच उन्होंने करीब 60 बार अमेठी का दौरा किया जब​कि अमेठी से सांसद चुने गए राहुल गांधी इस दौरान 20 बार भी वहां नहीं गए.

केंद्र में मंत्री होने बावजूद स्मृति ईरानी ने अमेठी को पूरा समय दिया. इस दौरान उन्होंने बीजेपी के स्थानीय नेताओं और संघ के स्वयंसेवकों को साथ लेकर संगठन को मजबूत किया. खासकर कांग्रेस के दलित और पिछड़ी जातियों के वोट बैंक में सेंध लगाई. साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में स्मृति ईरानी ने जोर—शोर से प्रचार किया. उनकी मेहनत नतीजों में साफतौर पर दिखाई दी. अमेठी की पांच में चार सीटों पर बीजेपी ने फतह हासिल की.

विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद स्मृति ईरानी ने अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ ‘गुमशुदा सांसद’ का नारा दिया. वे जब भी अमेठी गईं, उन्होंने लोगों को यह समझाया कि कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के यहां से जीतने के बावजूद क्षेत्र विकास की दौड़ में पिछड़ा हुआ है. स्मृति की अगुवाई में बीजेपी अमेठी में इतना सब करती रही और इस दौरान कांग्रेस हाथ पर हाथ रखकर बैठी रही. दरअसल, कांग्रेस को यह भरोसा था कि अमेठी गांधी परिवार का गढ़ है और स्मृति ईरानी यहां कितने भी हाथ-पैर मार लें, चुनाव में जीत राहुल गांधी की ही होगी.

अमेठी से स्मृति ईरानी की जीत में उनके चुनाव प्रबंधन का बड़ा योगदान है. एक ओर कांग्रेस ने यह सोचकर चुनाव लड़ा कि यह सीट तो पार्टी का गढ़ है तो दूसरी ओर स्मृति ईरानी ने एक-एक बूथ के हिसाब से रणनीति तैयार की. सूत्रों के अनुसार उन्होंने कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए कई डमी प्रत्याशी भी खड़े किए. आपको बता दें कि अमेठी में स्मृति ईरानी और राहुल गांधी के अलावा 25 दूसरे उम्मीदवार भी मैदान में थे. इन्हें मिले वोटों का जोड़ स्मृति की जीत के अंतर के आसपास ही है.

स्मृति ईरानी की मेहनत और रणनीति के अलावा राहुल गांधी की हार में उन नेताओं की भी कम भूमिका नहीं है, जिनके भरोसे कांग्रेस आलाकमान ने अमेठी को छोड़ रखा था. इनमें सबसे बड़ा नाम चंद्रकांत दुबे का है, जो अमेठी में राहुल गांधी के अघोषित नुमाइंदे थे. कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं का आरोप है कि दुबे ने उनकी बात राहुल गांधी तक नहीं पहुंचाई. अपनी उपेक्षा से आहत इन कार्यकर्ताओं ने चुनाव में अनमने ढंग से काम किया. नतीजतन राहुल गांधी न सिर्फ चुनाव हारे, बल्कि उन्हें किसी भी विधानसभा सीट पर बढ़त नहीं मिली. वे वोटों की गिनती में एक बार भी स्मृति ईरानी से आगे नहीं निकले.

कारण चाहे जो भी रहे हों, फिलहाल हकीकत यह है कि गांधी परिवार का गढ़ कही जाने वाली अमेठी सीट कांग्रेस के हाथ से निकल चुकी है. गौरतलब है कि अमेठी के साथ कांग्रेस का सुनहरा अतीत जुड़ा रहा है. यह सिलसिला 1967 से शुरू हुआ था जब कांग्रेस के विद्याधर वाजपेयी ने अमेठी में पार्टी की जीत की नींव रखी थी. 1967 और 1971 के लोकसभा चुनाव में भी वाजपेयी यहां से चुनाव जीते. 1977 के चुनाव में जनता पार्टी के रविंद्र प्रताप सिंह ने संजय गांधी को हराकर इस सीट पर फ​तह हासिल की.

अमेठी की बागडोर असली रूप से गांधी परिवार के हाथ में 1980 के लोकसभा चुनाव में आई. संजय गांधी ने यहां से जीत दर्ज की, लेकिन उनकी विमान हादसे में मौत हो गई. 1981 में राजीव गांधी ने यहां से चुनाव लड़ा और 1991 तक यहां से सांसद रहे. बम धमाके में राजीव गांधी के निधन के बाद कांग्रेस ने यहां से सतीश शर्मा को मैदान में उतारा. वे 1991 से लेकर 1998 तक यहां से सांसद रहे. 1998 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के संजय सिन्हा ने सतीश शर्मा को शिकस्त दी.

1999 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी अमेठी से मैदान में उतरीं. उन्होंने बीजेपी के संजय सिन्हा को चुनाव में हराया और 2004 तक अमेठी की सांसद रहीं. 2004 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी यहां से मैदान में उतरे और लगातार तीन बार चुनाव जीते. 2019 के लोकसभा चुनाव में स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी हो हराकर अमेठी में गांधी परिवार के किले को ढहा दिया है.

इस बड़ी जीत के बाद स्मृति ईरानी का केंद्र की मोदी सरकार में कद बढ़ना तय माना जा रहा है. यह देखना रोचक होगा कि कद बढ़ने के बाद वे अमेठी पर कितना ध्यान देती हैं. यदि वे पिछले पांच साल की तरह ही यहां सक्रिय रहीं तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भी इस सीट पर कांग्रेस के लिए वापसी करना मुश्किल हो जाएगा. वहीं अमेठी के एक बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या के बाद जिस तरह से स्मृति वहां पहुंची और उनकी अर्थी को कंधा दिया, उसे देखकर यह कयास लगाए जा रहे हैं कि गांधी परिवार की तरह वे भी इस सीट को अपना स्थायी ठिकाना बनाना चाहती हैं.

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