Politalks.News/Bharat. देश में पिछले दिनों लोकसभा और राज्यसभा में संशोधन बिलों की बाड़ सी आ गई. नया भारत, बदलते भारत और आत्मनिर्भर भारत के लिए रिफॉर्म जरूर भी था. केंद्र की मोदी सरकार एक से बढ़कर एक बिल लेकर आई. देश के किसानों से संबंधित तीन बिलों को तो प्रधानमंत्री मोदी ने ऐतिहासिक बता दिया. इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि प्रधामनमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भी कोई बड़े कदम उठाते हैं तो वो ऐतिहासिक ही साबित हुए हैं, मसलन नोटबंदी, जीएसटी या फिर पूरे देश में एक ही झटके में किया गया लाॅकडाउन.
कमियां निकालने वालों का क्या है. उनका काम तो कमियां ही निकालना होता है. सरकार को जनता के फायदों की जानकारी जनता से कई गुना ज्यादा होती है. अब देखिए ना, अन्नदाता यानि कि देश के किसान की आय को दोगुना करने और उन्हें बिचौलियों से मुक्त करने के लिए मोदी सरकार का संकल्प राज्यसभा में कितना मजबूत नजर आया, कि विपक्ष के लाख कहने पर भी इन बिलों पर मत विभाजन नहीं कराया गया. बिना विपक्ष बिना वोटिंग के ही बिलों को पारित भी करवा लिया गया. कोई बात नहीं, देश के लोकतंत्र में ऐसे नजारे दिखना, यह बताता है कि हमारा लोकतंत्र विकास की दिशा में जीडीपी की तरह तेजी से बढ़ रहा है.
अब आते हैं मुददे की बात पर, किसानों के हितों और कुठाराघात पर तीन बिल सरकार लाई, जिनके तहत-
1. अधिकतर ख़ा़द्य पदार्थों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाकर उनको स्टाॅक करने का अधिकार दे दिया गया.
2. मंडी सिस्टम से बिचैलियों को हटाने के लिए नया मंडी सिस्टम बना दिया गया. सरकार की ओर से कहा गया कि अब किसान अपना माल कहीं भी बेचने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है.
3. बड़ी कंपनियों को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की अनुमति दे दी गई.
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निश्चित तौर पर सरकार के नुमाइंदे और विशेषज्ञ इसमें किसान का सुनहरा भविष्य देख रहे हैं, लेकिन यह अलग बात है कि किसान को कुछ और ही नजर आ रहा है. देश के किसान ने यह सब तो सरकार से मांगा ही नहीं था. किसान सरकार से जो मांग रहा था, वो तो उसे आज तक मिला ही नहीं. फसल के समर्थन मूल्य को लीगल करने की मांग. यानि कि समर्थन मूल्य का कानूनी अधिकार.
अब इस बात को कैसे समझें की किसान की असल मांग क्या है. किसान का कहना है कि सरकार फसल का कोई भी समर्थन मूल्य निर्धारित कर दें, और उसे कानूनी अमली जामा पहना दे. इससे किसानों की सारी समस्या का समाधान हो जाएगा. इससे देश में किसान की उपज को कोई भी समर्थन मूल्य से कम नहीं खरीदी सकेगा.
अभी क्या हो रहा है
अभी हो यह रहा है कि सरकार उपज का समर्थन मूल्य घोषित कर देती है लेकिन बिचौलियों के खेल के चलते मंडियों में उसके माल का समर्थन मूल्य से बहुत कम पैसा ही मिल पाता है. सरकार भी 15 से 20 फीसदी किसानों की ही उपज खरीद करती है. ऐसे में 80 फीसदी किसान बाजार के कुचक्र में दब जाता है. इसलिए किसान चाहता है कि समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार मिल जाए. अब, किसान की इतनी सी बात, मोदी सरकार तक पहुंच नहीं पा रही, या फिर यूं कह लिजिए कि वहां बैठे विशेषज्ञों के समझ में नहीं आ रही.
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अब होगा क्या?
1 किसानों के हाथों में हमेशा की तरह बाबाजी का ठुल्लू रहेगा, मतलब की सरकार का समर्थन मूल्य.
2 मंडियों के छोटे आड़तिए मतलब बिचौलिए समाप्त हो जाएंगे, जैसा कि सरकार का दावा है लेकिन सरकार ने यह तो बताया नहीं कि फिर किसान अपनी फसल बेचेगा कैसे? और किसको?
3 इसका अर्थ यह हुआ कि छोटे बिचौलियों के साथ-साथ कृषि और किसान से प्रेम रखने वाले बडे़-बड़े उद्योगपतियों के पढ़े-लिखे बिचौलिए बाजारों में नजर आएंगे.
4 सरकार के हिसाब से मंडियां समाप्त नहीं होंगी लेकिन बडे़ बिजनेसमैनों की नई मंडियां खडी हो जाएंगी. यानि कि सरकार किसानों की समस्या से अपना पल्ला आसानी से झाड़ने की स्थिति में आ जाएगी.
5 किसान अपने ही खेत पर मजदूरी करके फसल उगाएगा लेकिन उस फसल की कीमत बडी कम्पनियां फसल उगने से पहले ही तय कर देंगी. यह अच्छी बात है, लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि जब फसल उग जाएगी और उसकी क्वालिटी को लेकर कंपनी उस फसल को नहीं खरीदे या पूरी नहीं लेगी तो ऐसे में गरीब किसान उस कॉन्ट्रैक्ट कागज को लेकर कौनसी अदालतों का चक्कर लगाएगा?
क्यों दबाव में है मोदी सरकार
इन बिलों को लाने के लिए केन्द्र की मोदी सरकार ने जिस तरह की हड़बड़ाहट और जल्दबाजी दिखाई उससे कई शंकाएं खड़ी हो गई हैं. इसके साथ ही सरकार अपने बहुमत के दम पर बिल तो ले आई लेकिन अब धीरे-धीरे देश में किसान आंदोलन खड़ा होता नजर आ रहा है.
- पहला झटका एनडीए के घटक दल अकाली दल से मिला. उनकी ओर से सरकार में शामिल एक मात्र मंत्री हरसिमरत कौर ने इस्तीफा थमा दिया.
- जिस तरह से सरकार बिना विस्तृत चर्चा के बिलों को लाई है, उसके तरीके को लेकर भी एनडीए के दूसरे घटक दलों में नाराजगी है.
- किसान आंदोलन की शुरूआत पूरी तरह हुई भी नहीं है कि मोदी सरकार पर उसको कुचलने का आरोप लगना शुरू हो गया है.
- सबसे महत्वपूर्ण यह है कि मजदूर, कर्मचारी और कंपनियों से जुडे़ बिलों को लेकर भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस की एक बड़ी विंग भारतीय मजदूर संघ ने मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.
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वैसे तो सदन में और भी कई बिल पास हुए हैं, जिन पर लंबी बहस हो सकती है. लेकिन सरकार के रवैये से साफ हो गया है कि वो किसी की नहीं सुनने वाली. कोई बात नहीं, सरकार की अपनी ताकत है लेकिन अब कई गांवों के बाहर बाहर लिखा जा रहा है कि जो किसान के साथ नहीं, उसके किसान साथ नहीं.