PoliTalks.news/मध्यप्रदेश. बीजेपी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया से किया वादा पूरी तरह निभा दिया, इसीलिए सिंधिया गदगद हैं. लेकिन बीजेपी नेताओं की बैचेनी साफ तौर पर देखी जा सकती है, खास तौर से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की. कहने को तो शिवराजसिंह का मंत्रीमंडल है लेकिन उसके अंदर 20 फीसदी मंत्री भी शिवराज खेमे के नहीं हैं. मंत्रीमंडल पर सिंधिया की छाप और बाहर उसके चर्चे सुनाई दे रहे हैं. मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि कुछ दिनों पहले उनके द्वारा कहा गया फिल्मी डायलाॅग ‘टाइगर अभी जिंदा है’ को उन्हीं की पार्टी के अंदर आकर सिंधिया अपना बना लेंगे, जैसे मंत्रिमंडल पर उन्होंने अपना अधिकार जमाया. मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिरते समय शिवराज सिंह ने कहा था टाइगर अभी जिंदा है. लगभग उसी अंदाज में शिवराज केबिनेट में अपने 14 विधायकों को मंत्री बनाकर सिंधिया भी बोल बैठे कि टाइगर अभी जिंदा है.
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सिंधिया के चेहरे पर जीत का जश्न और शिवराजसिंह की खामोशी बहुत कुछ कह रही है. उनके माथे पर चिंता की लकीर बता रही है कि मंत्रीमंडल के विस्तार के बाद शिवराज और भाजपा के लिए चुनौतियां बढ़ चुकी हैं. हालांकि मंचों से कहा जा रहा है कि एक और एक मिलकर दो नहीं 11 टाइगर हो जाएंगे, लेकिन पर्दे के पीछे कुछ और ही तस्वीरें बन रही है. शिवराज को सबसे बड़ा झटका उस समय लगा जब बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने मंत्रीमंडल में उनके द्वारा सुझाए गए विधायकों के नाम को रिजेक्ट कर दिया जबकि सिंधिया के द्वारा दिए गए सभी नामों को हरी झंडी दे दी.
ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की 16 सीटों पर 9 मंत्री
सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए 22 विधायकों में से कमलनाथ सरकार के 4 मंत्री भी थे. लेकिन अब बने मंत्रीमंडल में इन 22 मे से 14 विधायक मंत्री हो चुके हैं. यानि मंत्रीमंडल भले ही टाइगर शिवराज का दिखता हो लेकिन दूसरे टाइगर सिंधिया इसमें 60 फीसदी दिखाई दे रहे हैं. यूं राजनीति में वो सब कुछ हो सकता है, जिसके बारे में राजनीतिज्ञ खुद भी न सोच सके. सत्ता के लिए ऐसे-ऐसे समीकरण बन जाते हैं कि हैरानी से देखा रही जनता कभी कभार खुद को ठगा सा महसूस करने लग जाती है. लेकिन लोकतंत्र में सवाल सिर्फ जनता का नहीं होता, लोकतंत्र में हमेशा पहला सवाल सत्ता का ही होता है.
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अब देखिए ना, ग्वालियर चंबल क्षेत्र के 16 विधायकों को जनता ने कांग्रेस से जितवाया था. हुआ क्या, सारे कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में जा बैठे. उनके पास बीजेपी में जाने के तर्क भी हैं लेकिन उस जनता का क्या, जिसने वोट हाथ को दिया और उनका वोट चला कमल को गया. हालांकि ये कोई वोटिंग मशीन की गड़बड़ी से नहीं हुआ, लेकिन वोट गिरने के 4 महीने बाद जनता को पता चला कि उन्होंने जो वोट कांग्रेस को दिए थे, वो तो बीजेपी को मिल गए.
शिवराज सिंह के आगे कुंआ और पीछे खाई
सीएम शिवराज भले ही अनोखे राजनीतिक समीकरण से मुख्यमंत्री बन गए हो लेकिन मंत्रीमंडल पर जो छाप एक मुख्यमंत्री की दिखाई देनी चाहिए, वो नदारद है. दूसरी और भाजपा में घमासान की खबरें आनी शुरू हो चुकी है. कई दिग्गज़ भाजपा विधायक जो मंत्री के दावेदार थे, विधायक ही रह गए. सो उनके समर्थकों की नाराजगी सामने आनी शुरू हो गई. मुख्यमंत्री शिवराज के सामने मुश्किल यह है कि आने वाले समय में कांग्रेस से भाजपा में आए इन विधायकों को जनता के बीच में जाना है. पहले ही यह विधायक जनता से कांग्रेस के नाम पर वोट लेकर उसे बीजेपी को दे चुके हैं. ऐसे में इन विधायकों की सर्वे रिपोर्ट नेगटिव आ रही है.
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समझौते के तहत जिस तरह मंत्री पद दिए गए, ठीक उसी तरह विधायक का टिकट देना भी तय है. ऐसे में जो भी नहीं जीता, उसकी हार का ठीकरा भी शिवराज पर पड़ सकता है, क्योंकि हारने वाला किसी ना किसी पर तो ठीकरा फोड़ेगा ही. ठीकरा हमेशा कमजोर पर ही फोड़ा जाता है. इस समय सिंधिया तो मजबूत टाइगर की श्रेणी में हैं. ऐसे में समझ सकते हैं कि ठीकरा कमजोर टाइगर पर ही फूटना तय है.
खाली सीटों पर भाजपा के बागी ठोक रहे ताल
जानकारियां सामने आ रही है कि 24 विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनाव में भाजपा के कई नेता बागी बनकर चुनावी ताल ठोक सकते हैं. उन्हें ऐसा करने से रोकने की जिम्मेदारी भी शिवराजसिंह पर होगी. आखिरकार सूबे के मुखिया जो हैं. रणनीति के तहत भाजपा के दोनों टाइगर ग्वालियर चंबल की 16 सीटों पर 9 मंत्रीयों के साथ पहुंचकर कांग्रेस की घेराबंदी करेंगे. इन दोनों टाइगर की घेराबंदी कितनी सफल होगी यह तो आाने वाला समय बताएगा. उधर दिग्गी राजा ने भी कह दिया कि वो टाइगर के पिताजी के साथ जंगल में शेरों का शिकार किया करते थे.
अगर आने वाले चुनाव को बीजेपी के कोण से देखें तो मध्यप्रदेश में बीजेपी इस समय के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है. जब उसे जनता के बीच जाकर कांग्रेस से चुनाव लड़ चुके विधायकों को बीजेपी के बैनर तले जिताकर लाना है. वो भी उस समय जब बीजेपी के सामने दो विपरीत परिस्थितियां हों.
पहली – कांग्रेस से बीजेपी में आए विधायकों की जीत की सर्वे रिपोर्ट नेगेटिव हो.
दूसरी – जब इन विधायकों के कारण भाजपा के कार्यकर्ताओं में ही असंतोष हो.
भाजपा को नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थान विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण ही भाजपा कार्यकर्ताओं में असंतोष का होना था. अधिकांश भाजपा कार्यकर्ताओं ने अपने नेताओं की मनमानी के खिलाफ पार्टी की ही कारसेवा करने से गुरेज नहीं किया था.