पॉलिटॉक्स न्यूज/बिहार. प्रदेश विधायकों के द्वारा चुनी जाने वाली विधान परिषद (MLC) के चुनाव यूं तो बिहार विधानसभा चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है. लेकिन यहां कांग्रेस के सामने सबसे विकट परिस्थितियां हैं. वजह है संख्या बल के लिहाज से कांग्रेस के पेटे से इकलौती सीट का आना. अब एक सीट है तो क्या समस्या लेकिन सच ये है कि इस सिंगल सीट पर कांग्रेस की स्थिति एक अनार और सौ बीमार वाली हो चली है. विधान परिषद की 9 सीटों के लिए 6 जुलाई को चुनाव होना है जबकि 25 जून नामांकन की अंतिम तिथि है.
वैसे तो बिहार में 27 विधान परिषद की सीटें खाली हो रही हैं लेकिन फिलहाल चुनाव केवल 9 सीटों पर हैं. 10 सीटें राज्यपाल विशेषाधिकार कोटे से जबकि 4-4 सीटें शिक्षक और स्नातक कोटे से भरी जानी हैं. उक्त सभी सीटें विधानसभा कोटे की हैं जिन पर विधानसभा में मौजूद विधायक ही वोट कर सकते हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों की संख्या बल के हिसाब से सीटें भरी जाएंगे. जैसा कि पहले से तय है, विधान परिषद में तीन आरजेडी और एक कांग्रेस का सदस्य चुना जाना तय है. अन्य तीन सीटें जेडीयू और दो सीटें बीजेपी के खाते में जाएंगे. अभी तक ये सभी 9 सीटें बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के पास थी.
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अब कांग्रेस के लिए परेशानी ये है कि इस एक सीट पर कई नेता अपनी दावेदारी जता चुके हैं. कई नेता प्रदेश की चुनावी राजनीति से किनारा कर पिछले दरवाजे से सदन में प्रवेश पाना चाहते हैं. पिछले एक महीने से सीट पर दावेदारी का सिलसिला जोर पकड़ चुका है. एक रिपोर्ट की मानें तो कांग्रेस के पास एक सीट के लिए तीन हजार से भी अधिक एप्लिकेशन आई हैं. आलम यह है कि पार्टी का हर छोटा-बड़ा नेता बायोडाटा बगल में दबाए हैं. सबके अपने दावे हैं. कुछ जातिगत गणित समझा रहे हैं तो कुछ राजनीतिक. कुछ ये भी बता रहे हैं कि उन्हें चुने जाने से आगामी विधानसभा चुनाव में कैसे पार्टी का अच्छा संदेश जाएगा. बिहार कांग्रेस प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल का भी पूरा ध्यान विधान परिषद चुनाव पर टिका हुआ है.
दावेदारों की फेहरिस्त के कुछ नामों पर नजर डालें तो इसमें प्रदेश अध्यक्ष डॉ. मदन मोहन झा का शिक्षक विधायक कोटे से कार्यकाल खत्म हो चुका है तो फिलहाल वो खाली हैं. विधान मंडल दल के नेता सदानंद सिंह चुनाव मैदान की राजनीति के लिहाज से उम्रदराज हो चुके हैं, सो उनका नाम भी इस सूची में है. चार में से तीन कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष भी एमएलसी की दौड़ में शामिल हैं. कांग्रेस के प्रभारी प्रदेश अध्यक्ष रह चुके कौकब कादरी, वरिष्ठ नेता श्याम सुंदर सिंह धीरज, चंदन यादव, राजन यादव, ललन यादव और अजय सिंह भी अपने लिए टिकट की मांग कर रहे हैं. इनके अलावा कई स्थानीय नेता भी अपने अपने ढंग से दावेदारी जता रहे हैं. यही वजह है कि कांग्रेस का स्थानीय और केंद्रीय नेतृत्व भी इस बारे में फैसला नहीं कर पा रहा.
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कांग्रेस ने अब तक अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है. इसके उलट अन्य तीनों दलों ने अपने अपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिए हैं. राजद उम्मीदवारों ने अपने नामांकन दाखिल कर दिए हैं जबकि जेडीयू और बीजेपी प्रत्याशी कल नामांकन दाखिल करेंगे.
बिहार विधान परिषद चुनाव की दो सीटों के लिए बीजेपी ने सम्राट चौधरी और संजय प्रकाश को पार्टी उम्मीदवार बनाया है. वहीं नीतीश कुमार की जदयू ने गुलाम गौस, कुमुद वर्मा और भीष्म साहनी को टिकट थमाया है. राजद ने भी उम्मीदवारों का चयन कर लिया है और अति पिछड़ा प्रकोष्ठ के अध्यक्ष प्रो. रामबली सिंह, बिस्कोमान अध्यक्ष सुनील सिंह और शिवहर के मो.फारूक को विधान परिषद पहुंचाने का मन बनाया है. तीनों ने अपना अपना नामांकन भर दिया है.
राजद में पहले की चर्चा थी कि MLC की एक सीट पर लालू के सुपुत्र और तेजस्वी के बड़े भाई तेजप्रताप को चुना जाएगा लेकिन परिवार के किसी सदस्य को नहीं भेजने का फैसला पार्टी ने लिया और तीसरे उम्मीदवार के तौर पर मो.फारूक का चयन किया गया. फारूक एक कारोबारी हैं और शरद यादव के करीबी हैं.
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अब बात करें बिहार विधानसभा में मौजूद पार्टी विधायकों की तो राजद पिछले विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनता दल प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. राजद के पास 80 विधायक हैं. वहीं जदूय के पास 70 तो बीजेपी के पास 54 विधायक हैं. कांग्रेस के पास 26 विधायक हैं. 5 निर्दलीय, 2 सीपीआई और तीन अन्य पार्टियों से हैं.
कांग्रेस के पास चूंकि एक ही सीट है, सो जातियों को साधने के बहुत विकल्प नहीं हैं. हालांकि मुस्लिम, पिछड़ा, दलित, राजपूत, भूमिहार सहित सभी नेताओं के अपने अपने तर्क हैं. दलित यह कहकर दावेदारी कर रहे हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव में दलितों को पार्टी की ओर मोड़ने में इससे मदद मिलेगी तो राजपूतों का तर्क है कि बीते कई दशकों से किसी राजपूत को पार्टी ने राज्यसभा या विधान परिषद नहीं भेजा. पूर्व राज्यपाल निखिल कुमार का लोकसभा टिकट कटने से भी बिरादरी में खासी नाराजगी देखी गई. भूमिहार-ब्राह्मणों के अगड़ों से पार्टी को जोड़ने के अपने तर्क हैं. ऐसे में उम्मीदवार का चयन कांग्रेस के लिए कचरे में से सुई खोजने के बराबर है.