पॉलिटॉक्स न्यूज/दिल्ली. देश की राजनीति के मौजूदा हालातों को देखते हुए यह लाख टके का सवाल है कि आखिर राहुल गांधी की टीम के सदस्य अब क्या करेंगे? राहुल के करीबी दूसरी पीढ़ी के ये नेता राज्यसभा न जाने का दंश मन में दबाए पूरे 5 साल क्या रह सकेंगे? वैसे तो इस टीम के कैप्टन और राहुल के सबसे निकट माने जाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अन्य सभी को राह दिखा दी है. बीते दिनों सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ कमल का हाथ थाम लिया है. सिंधिया के इस फैसले से हालांकि उन्हें तो कोई खास फायदा नहीं मिला लेकिन बीजेपी की सरकार जरूर मध्यप्रदेश में बनती नजर जा रही है. अब निगाहें केवल राहुल एंड टीम सदस्यों के अगले कदम पर टिकी हैं कि ये सिंधिया की राह चलेंगे या फिर कुछ समय इंतजार करेंगे क्योंकि इन सभी के सब्र का बांध टूटता जा रहा है.
वैसे तो राजनीति में भी ये कहा जाता है कि सब्र का फल मीठा होता है लेकिन फिलहाल कांग्रेस में मीठा फल तो कम से कम मिलता नहीं दिख रहा. आम चुनाव में करारी शिकस्त के बाद कुछ युवा नेताओं की नजरें राज्यसभा सीट पर थी, इनमें मुकुल वासनिक, शैलजा कुमारी, मल्लिकार्जुन खड़गे, राजीव शुक्ला, मिलिंद देवड़ा, रणदीप सिंह सुरजेवाला सहित लिस्ट में कई नाम हैं. इनमें से एक नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी था. उनकी भी कांग्रेस को लेकर पहली कुंठा यही थी कि मध्य प्रदेश से उनके राज्यसभा जाने की संभावना क्षणिक भर थी. जहां से पहले ही दिग्विजय सिंह का राज्यसभा जाना तय था. ऐसे में सिंधिया अगले पांच साल इंतजार नहीं करना चाहते थे, सो उन्होंने अपनी राह बदली और नाथ को छोड़ कमल के पास चले गए.
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यही स्थिति कमोबेश राहुल की बाकी बची टीम की है. मुकुल वासनिक का नाम इस बार महाराष्ट्र से करीब करीब तय माना जा रहा था लेकिन उनकी जगह राजीव सातव को राज्यसभा उम्मीदवार बना दिया गया. सावत पहली बार 2014 में मोदी लहर के बावजूद आम चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचे थे. उस समय लोगों की जुंबा पर उनका नाम आया और राहुल गांधी तो उन पर ऐसे मेहरबान हुए कि उन्हें गुजरात का प्रभारी तक बना दिया. राहुल गांधी से उनकी निकटता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी सातव राज्यसभा चले जाएंगे. छोटे से राजनीतिक करियर में सातव का राज्यसभा में जाना सिर्फ मुकुल वासनिक ही नहीं कई बड़े और दिग्गज नेताओं का दिल जलाने जैसा है. इनमें मल्लिकार्जुन खड़गे, राजीव शुक्ला, रजनी पाटिल और मिलिंद देवड़ा सबसे आगे हैं.
ये सभी महाराष्ट्र के दिग्गज नेताओं में शामिल हैं और सभी राज्यसभा जाने वाले मजबूत दावेदारों में शामिल थे. मलिकार्जुन खड़गे तो इन सभी में सीनियर हैं और कहा जा रहा है कि जून महीने में राज्यसभा की कर्नाटक से खाली हो रही चार सीटों में से एक से उनका उच्च सदन जाना पक्का है. लेकिन अन्य सभी के पास दो साल तक इंतजार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. दो साल बाद जब महाराष्ट्र से कुछ सीटें खाली होंगी तब इनका नंबर भी आएगा या इंतजार और लंबा होगा, ये कह पाना भी कन्फर्म नहीं है. वहीं मिलिंद देवड़ा के बारे में तो काफी गर्मागर्म चर्चा है कि वे निश्चित तौर पर सिंधिया का रास्ता अपनाएंगे, तभी उनके मौजूदा राजनीतिक करियर को रफ्तार मिलेगी, वरना फिलहाल तो कांग्रेस में कुछ हासिल होना है नहीं. फिलहाल उनकी ओर से इस संबंध में कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.
इसी तरह रणदीप सिंह सुरजेवाला का नाम भी राज्यसभा जाने वाले संभावितों में शामिल था. उन्हें या तो राजस्थान या फिर अन्य किसी सीट से उच्च सदन भेजा जाना पक्का था. हालांकि वे न तो हरियाणा विधानसभा और न ही अन्य किसी सदन के सदस्य हैं लेकिन केंद्र की बीजेपी सरकार के खिलाफ कांग्रेस के तीखे हमलों की कमान वे और उनकी टीम बखूबी संभाल रही है, लेकिन राज्यसभा का मौका तो उन्हें भी नहीं मिला. वजह रही कि हरियाणा में राज्यसभा की केवल एक ही सीट कांग्रेस के पास थी और यहां से पहले ही दो दावेदार मौजूद थे. जिसमें प्रमुख दावेदार मानी जा रही कुमारी शैलजा तक को भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की जिद या यूं कहें पॉलिटिकल ब्लैकमिंग के आगे पीछे हटाना पड़ा.
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अब बात करें उत्तरप्रदेश की, तो यहां से पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह भी कुछ न कुछ हासिल करने की फिराक में थे लेकिन हाथ उनके भी कुछ न लगा. हालांकि इस साल के अंत में यूपी से राज्यसभा की 10 सीटें खाली हो रही हैं लेकिन यहां से करीब 8 सीटें बीजेपी और एक सीट सपा के पास है. एक सीट पर लड़ाई है जिस पर कांग्रेस का दावा न के बराबर होगा.
बात करें बिहार की तो बीजेपी छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए एक्टर और पूर्व सांसद शत्रुध्न सिन्हा यहां से राज्यसभा में घुसने की फिराक में थे. गठबंधन के चलते राजद ने एक सीट कांग्रेस को छोड़ने का वायदा लोकसभा चुनाव में कर भी दिया था लेकिन ऐन वक्त पर राजद ने दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर शत्रुध्न को निराश कर दिया. बताया तो ये भी जा रहा है कि शत्रुध्न सिन्हा ने पश्चिम बंगाल में टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी की मदद से भी उच्च सदन में जाने का जुगाड़ लगाया था लेकिन बात बनी नहीं.
फिर एक बार नजर डालें हरियाणा की राजनीति पर तो यहां से सोनिया गांधी की करीबी और पिछली बार की राज्यसभा सांसद कुमारी शैलजा का राज्यसभा टिकट पक्का था. हरियाणा प्रदेशाध्यक्ष शैलजा की यहां मजबूत दावेदारी को देखते हुए ही सुरजेवाला ने अपना नाम आगे नहीं बढ़वाया. लेकिन पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने समर्थित विधायकों के दम पर अपने बेटे दीपेंद्र हुड्डा का टिकट फाइनल करा दिया और कुमारी शैलजा को सदन जाने से दूर कर दिया. पूर्व लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के चलते राज्यसभा का सफर तय नहीं कर सकी.
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देखा जाए तो कांग्रेस के असंतुष्ठ दिग्गजों की लिस्ट काफी लंबी है लेकिन सिंधिया के बीजेपी में जाने के बाद भी अभी तक इंतजार कर रहे हैं. उनके इंतजार की वजह मध्य प्रदेश का सियासी संकट भी है. इनमें से अधिकांश नेताओं ने लंबे समय तक पार्टी की भक्ति की है और कांग्रेसी विचारधारा में रचे बसे हैं, यही वजह है कि वे आगे का रास्ता तय करने में संकोच कर रहे हैं.
वहीं राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया का बीजेपी में जाने का फैसला अंगारों पर चलने जैसा है, ऐसे में राहुल एंड कंपनी के ये सदस्य केवल सिंधिया का बीजेपी में हश्र देख रहे हैं. अगर उनके साथ सब कुछ अच्छा हुआ तो ये एक एक कर ‘महाराज’ की राह पकड़ेंगे और अगर नहीं तो फिर आगामी कुछ साल इंतजार करने के अलावा इनके पास कोई विकल्प नहीं है.