कांग्रेस को लेकर जो घटनाक्रम चल रहा है, उससे लगता है कि सोनिया गांधी के अलावा कांग्रेस को और कोई नहीं संभाल सकता. अब कांग्रेस बिखरेगी, क्योंकि राजनीति में सोनिया गांधी की स्थिति पहले जैसी नहीं रही. अब सोनिया की मौजूदगी से कांग्रेस को फायदा कम, नुकसान ही ज्यादा होगा. सोनिया गांधी ने बड़े जतन से कांग्रेस अध्यक्ष संभाला था, यह सोचकर कि उनके बाद उनका बेटा राहुल कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएगा. देश पर परिवार का राज कायम रहेगा. राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन भी गए, लेकिन उसका कोई लाभ नहीं हुआ. कांग्रेस की हालत ‘ढाक के तीन पात’ जैसी हो गयी है. एक सोनिया गांधी, दूसरे राहुल गांधी और तीसरी प्रियंका गांधी वाड्रा. ये तीनों कांग्रेस की ढाक के तीन पात बाकी रह गए हैं.

राहुल गांधी ने मई के अंत में लोकसभा चुनाव एक बार फिर बुरी तरह हारने के बाद अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते हुए घोषणा की थी कि पार्टी अब किसी अन्य नेता को संभालनी चाहिए. चयन प्रक्रिया में वह, उनकी मां या उनकी बहन में से किसी का दखल नहीं रहेगा. उन्हें मनाने की बहुत कोशिशें हुईं, लेकिन नतीजा सिफर रहा. इतनी पुरानी और इतनी महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी में एक भी माई का लाल ऐसा नेता नहीं निकला जो इस डूबता जहाज बनी पार्टी को तिनके का सहारा दे सके. कोई पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष तक बनने के लिए तैयार नहीं है.

यह लोकतंत्र में एक राजनीतिक पार्टी के विकट केंद्रीकरण का दुष्परिणाम है. कांग्रेस ने भारतीय लोकतंत्र में परिवार आधारित पार्टी का चलन शुरू किया, जिससे अन्य पार्टियों ने भी प्रेरणा ली. आज ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों की बागडोर किसी प्रमुख व्यक्ति या उनके परिवार के पास है. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी, अजीत सिंह का लोकदल, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल, टी चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति, मायावती की बहुजन समाज पार्टी. इस तरह की कई पार्टियां अपने देश में है. इन सभी पार्टियों में लोकतंत्र का नाटक अवश्य होता है. चुनाव होते हैं, अध्यक्ष चुने जाते हैं. लेकिन अध्यक्ष वही बनता है, जो पार्टी चलाता है.

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देश की जनता लोकतंत्र चाहती है, लोकतंत्र का नाटक नहीं. वह देश के साथ ही पार्टियों में भी लोकतंत्र चाहती है. भाजपा के रूप में जनता को विकल्प मिला तो कांग्रेस सहित बाकी सभी पार्टियों की लोकसभा चुनाव में क्या हालत हुई, सबके सामने है. पिछली मोदी सरकार में हुई नोटबंदी से जनता को परेशानी अवश्य हुई, लेकिन फिर भी उन्होंने भाजपा को वोट देकर नरेन्द्र मोदी में भरोसा जताया क्योंकि जिस तरह सोनिया गांधी के इशारे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार दस साल चली, उसमें हुए आर्थिक घोटालों की खबरें लोगों की याद में अभी भी ताजा हैं. लोग यही समझते हैं कि मोदी सरकार में जनता को थोड़ी बहुत तकलीफ भले ही हो रही हो, लेकिन वह कम से कम इस स्तर पर भ्रष्टाचार तो नहीं करेगी. हो सकता है यह प्रचार माध्यमों के जरिए लोगों की यह धारणा बनी हो, लेकिन फिलहाल देश की बहुसंख्यक जनता को मोदी पर भरोसा है.

कांग्रेस लगातार दो बार लोकसभा चुनाव बुरी तरह हारने के बाद भी गांधी परिवार के दायरे से बाहर नहीं निकल पाई है. गांधी परिवार अपने हिसाब से राजनीति कर रहा है. वह अपने अलावा और किसी अन्य पार्टी को विपक्ष समझता ही नहीं है, इसी लिए प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने उतरी और वहां की प्रमुख विपक्षी पार्टियों समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की संभावनाओं में भी पलीता लगा गई. कांग्रेस को तो खैर जीतना ही नहीं था. अमेठी और रायबरेली की सीटें कांग्रेस के लिए सुरक्षित मानी जाती थी. अमेठी से राहुल गांधी भी हार गए.

इस तरह गांधी परिवार ने मोदी सरकार को भारी बहुमत से जिताने में कांग्रेस की तरफ से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इससे राहुल गांधी की मेहनत पर भी पानी फिरा, जो कि प्रमुख विपक्षी नेता के रूप में उभर रहे थे और कभी अखिलेश से तो कभी किसी अन्य विपक्षी पार्टी से संपर्क बढ़ा रहे थे. लेकिन जब कांग्रेसी कठपुतलियों की डोर पूरी तरह सोनिया गांधी के हाथ में है तो राहुल क्या कर सकते थे? इस तरह पार्टी नहीं चल सकती, इस बात को समझते हुए ही उन्होंने इस्तीफा देने का फैसला किया. राहुल गांधी अपनी मर्जी से पार्टी को चला ही नहीं सकते थे. जब राहुल गांधी ने तेवर दिखाने शुरू किए, तब प्रियंका को उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान में कूदने की जरूरत क्यों पड़ी? उन्होंने मोदी सरकार को नुकसान पहुंचाने की बजाय उलटे अपने भाई को ही हरवा दिया.

अब पतझड़ हो रही है. कांग्रेस के तमाम नेता भाजपा में शामिल होने के लिए कतार लगाए हुए हैं. भाजपा भी इस अवसर का राजनीतिक लाभ उठाने में जुट गई है. कांग्रेस के नेता समझ रहे थे कि राहुल गांधी मान जाएंगे और अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देंगे, लेकिन दो महीने में भी राहुल टस से मस नहीं हुए. उन्हें उनकी मां सोनिया गांधी ने भी समझाया होगा, लेकिन बात नहीं बनी. दो महीने बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई, जिसमें राहुल गांधी का इस्तीफा मंजूर किया गया. पहले तय हुआ कि राहुल और सोनिया अंतरिम अध्यक्ष के चयन की प्रक्रिया से अलग रहेंगे, लेकिन दिन ढलते-ढलते फैसला सोनिया गांधी पर आकर ही टिका. सोनिया गांधी से पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनने का अनुरोध किया गया और उन्होंने मान भी लिया. राहुल गांधी की यह बात गलत साबित हो गई कि अध्यक्ष के चयन की प्रक्रिया से वह, सोनिया और प्रियंका अलग रहेंगे. अब कांग्रेस में भी कौन राहुल गांधी की बात पर भरोसा करेगा?

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इस तरह सोनिया गांधी ने अपने बेटे राहुल गांधी के राजनीतिक करियर पर पूर्ण विराम लगाते हुए कांग्रेस को अपनी जायदाद घोषित कर दिया है. कांग्रेस के सभी बड़े-बड़े नेता सोनिया गांधी के साथ हैं. राहुल गांधी के साथ कौन बचा? अब पार्टी में राहुल गांधी के समर्थकों को भी परेशानी होगी, जो आगे बढ़कर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं. जैसे सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, रणदीप सिंह सुरजेवाला और अन्य. जो युवा नेता राहुल गांधी से टिकट लेकर कांग्रेस सांसद बन गए हैं, उनमें भी निराशा फैल जाएगी. समझ सकते हैं कि कांग्रेस का क्या होने वाला है?

अगर नरेन्द्र मोदी चुनावी भाषणों में संकल्प व्यक्त करते रहे हैं कि देश को कांग्रेस मुक्त बनाना है तो उनका संकल्प पूरा होने में अब ज्यादा समय बाकी नहीं बचा है. सोनिया गांधी ने इसके संकेत दे दिए हैं. सोनिया की अध्यक्षता में कांग्रेस अब अपने अस्तित्व के सबसे आखिरी पायदान पर है. जनता को अब एक नए विपक्ष की तलाश करनी पड़ेगी.

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