Politalks.News/Delhi. सोनिया गांधी को बतौर कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बने आज एक साल पूरा हो गया है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने पर सोनिया गांधी ने 10 अगस्त, 2019 को कांग्रेस के अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर पार्टी की बागड़ोर संभाली थी. राहुल गांधी ने 3 जुलाई को पद से इस्तीफा दिया था. अब सोनिया के कार्यकाल को जब एक साल पूरा हो चुका है तो पार्टी के वफादार सिपेहसालारों ने राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की आवाज फिर से तेज कर दी है. हालांकि हाल में हुई एआईसीसी की बैठक में राहुल गांधी ने फिर से सभी का अनुग्रह ठुकराते हुए अध्यक्ष पद लेने से मना कर दिया. प्रियंका को मुखिया बनाने से इनकार राहुल गांधी पहले ही कर चुके हैं. ऐसे में फिर से सवाल आ खड़ा हुआ है कि राहुल गांधी की ताजपोशी आखिर होगी कब?
जैसा कि हम पहले से कहते आ रहे हैं, अंत में राहुल गांधी ही फिर से कांग्रेस के सरताज बनेंगे, लेकिन कब…इसमें पहला पेंच यहां अडा हुआ है कि सोनिया के अंतरिम अध्यक्ष बनने के एक साल होने के बाद भी पार्टी अब तक न तो राहुल को दोबारा पदभार संभालने के लिए मना पाई है और न ही उनका कोई विकल्प तलाश पाई है. हालांकि ये जरूर है कि पिछले कुछ महीनों से राहुल अपनी छवि से इतर एक अलग छवि बनाने की कवायद करते जरूर दिखे हैं, जिसकी बात हम बार बार कहते आए हैं. इसके बावजूद वो फिर से अध्यक्ष बनने के अपने निर्णय से टस से मस नहीं हो रहे हैं. हालांकि माना यही जा रहा है कि राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वापस लौटना पक्का है तो ऐसे में फिर वो किस शुभ मुहूर्त का एंतजार कर रहे हैं?
बीते आम चुनावों में बतौर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने कांग्रेस को उसका खोया जनाधार वापस दिलाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया. इस दौरान दो महीने के सफर में राहुल गांधी ने 148 रैलियां कीं लेकिन कांग्रेस को दिला पाए महज 52 सीटें. कई राज्य तो रहे जहां पार्टी का खाता तक नहीं खुला. हालात ये हो गए कि प्रमुख विपक्षी पार्टी का दर्जा भी कांग्रेस पाने से दूर रह गई लेकिन सहयोगी पार्टियों के आने से नाक बच पाई. इसके बाद हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, जिसके बाद किसी अन्य के सामने न आने पर वरिष्ठ नेताओं की सलाह पर सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया.
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अब सोनिया गांधी 73 साल की हो चुकी हैं और अस्वस्थ होने के चलते पार्टी को भी उतना समय नहीं दे पातीं जितना डूबती पार्टी को उनसे अपेक्षित है. इसके बाद भी उनका राजनीतिक अनुभव राहुल गांधी के मुकाबले काफी अच्छा रहा है. सोनिया गांधी को पार्टी की कमान मिलने के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और झारखंड में विधानसभा चुनाव हुए जिनमें से महाराष्ट्र और झारखंड में सहयोगी दलों के साथ मिलकर कांग्रेस ने सरकार बनाई है. हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी. लेकिन कर्नाटक और मध्यप्रदेश में बीजेपी ने कांग्रेस की सरकार को हथिया लिया. वहीं गोवा में 10 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए. राजस्थान में भी सियासी संकट बढ़ रहा है जहां पार्टी को एक नई बूस्टर एनर्जी की जरूरत है.
कांग्रेस की ऐसी हालत क्यों हो रही है, इसका एक ही जवाब है पुराने दिग्गजों और युवा नेताओं के बीच भी कलह की बढ़ती खाई. इसी वजह से मध्य प्रदेश में चुनी हुई सरकार गिर गई. कांग्रेस के एक युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में शामिल हो गए, वहीं सचिन पायलट सरकार से नाराज होकर अपने 19 समर्थित विधायकों के साथ दिल्ली के कोप भवन में बैठे हैं. कांग्रेस की लगातार दयनीय स्थिति को देखते हुए वरिष्ठ नेताओं के साथ संदीप दीक्षित से लेकर शशि थरूर और मनीष तिवारी लगातार स्थायी कांग्रेस अध्यक्ष की मांग कर रहे हैं लेकिन राहुल गांधी के अटल निर्णय ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की परेशानी बढ़ा रखी है.
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दरअसल, कांग्रेस के साथ दुविधा की स्थिति इसलिए भी है कि अगर वो दोबारा राहुल को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर लाना भी चाहे तो उसके लिए कोई माकूल वजह उसके पास नहीं है. सवाल उठेंगे कि आखिर राहुल ने इस्तीफा दिया क्यों था? और अगर दिया था तो अब ऐसा क्या बदल गया कि वो दोबारा पार्टी अध्यक्ष बनने को राजी हो गए हैं? क्योंकि कांग्रेस कार्यकारिणी ने सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी दी तो एक प्रस्ताव भी पारित किया गया कि वे संगठन स्तर पर पार्टी में अहम बदलाव करें. इस बात को भी एक साल हो चुके हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी के अंदर किसी अहम बदलाव की झलक नहीं दिखी है. यही वजह है कि एक साल से लगातार राहुल से अध्यक्ष पद संभालने की अपील पार्टी नेताओं द्वारा अलग-अलग स्तर पर होती है लेकिन पार्टी और राहुल ने खुद इस पर चुप्पी ही साध रखी है.
राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वापस लौटना पक्का है. इसकी हल्की झलक यहीं से दिख जाती है कि सोनिया कांग्रेस की आंतरिम अध्यक्ष जरूर है, लेकिन पार्टी में सभी नियुक्तियां राहुल गांधी के जरिए ही होती हैं. सोनिया केवल प्रमुख रूप से संरक्षक की तरह ही हैं. सोनिया अमूमन यूपीए के सहयोगी दलों के साथ सामंजस्य बनाए रखने और वरिष्ठ नेताओं के मन से उनके भविष्य की चिंताओं को दूर करने या कभी-कभार बहुत जरूरत होने पर असंतुष्ट नेताओं को शांत करने में भूमिका निभाती हैं.
हालांकि कोरोना संकट और चीन सेना से हुई हिंसक झड़प ने राहुल गांधी को एक राजनीतिक अवसर दिया है, जिससे वह अपनी छवि संजीदा और संवेदनशील नेता की बना सकें और वापस विपक्ष की राजनीति में केंद्रीय भूमिका में आ सकें. कांग्रेस नेता भी इस बात को भली भांति समझते हैं और इसलिए पार्टी लगातार इस बात को प्रचारित कर रही है कि राहुल गांधी देश में कोरोना संक्रमण के संकट को समझने वाले और उससे सावधान करने वाले पहले नेता थे. अभी तक राहुल गांधी दुनिया के अर्थशास्त्री और विशेषज्ञों के साथ कोरोना और देश के अहम मुद्दों पर चर्चा कर मोदी सरकार को घेरते नजर आए हैं. चीन को लेकर उन्होंने जिस तरह से सवाल खड़े किए हैं, उससे भी उनकी गंभीरता और सत्ताधारी पार्टी की परेशानी बढ़ी है. ऐसे में राहुल गांधी के लिए बहुत ही बेहतर मौका है पार्टी की कमान अपने हाथों में लेने का.
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अभी चुनाव में चार साल शेष हैं लेकिन अभी भी राहुल गांधी को आदर्शवादी और व्यवहारिक राजनीति में फर्क समझना होगा. वैसे राहुल गांधी के हर बयान पर जिस तरह से बीजेपी हमलावर होती है, उससे भी उनकी की राजनीतिक अहमियत का पता चलता है. सोनिया गांधी कांग्रेस की भले ही आंतरिम अध्यक्ष हों, लेकिन सरकार को घेरने का काम राहुल गांधी कर रहे हैं. कांग्रेस के सामने अपनी विचारधारा को लेकर भी एक बड़ी चुनौती है. राहुल गांधी कांग्रेस की विचाराधारा को तय नहीं कर पा रहे हैं.
राहुल गांधी के सामने पहली चुनौती यही होगी कि पहले तो कांग्रेस नेताओं में यह आत्मविश्वास पैदा करें कि पार्टी अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल कर सकती है. इसके बाद उन्हें जमीनी स्तर पर कांग्रेस संगठन का काम करने वाले कार्यकर्ताओं में उत्साह का माहौल पैदा करने के लिए कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे, जिससे कार्यकर्ताओं में भविष्य को लेकर कोई उम्मीद जगे. हाल ही में राहुल गांधी जिस तरह से वापसी कर रहे हैं, उससे कांग्रेस को एक नई दिशा मिलती दिख रही है. विपक्ष की बात आती है तो कांग्रेस ही दिखती है.
दूसरी चुनौती होगी मिडिल क्लास पर फोकस कर अपना वोट बैंक मजबूत करना. साथ ही तुष्टिकरण की नीति से दूर हटना. मौजूदा समय में बीजेपी ने हिंदूत्व का झंडा उठाते हुए राम मंदिर खड़ा कर लोगों का दिमाग फिर से एक बार बदल दिया है. लेकिन अपने करीब करीब सारे फैसलों में मिडिल क्लास को अपने से दूर कर लिया है जो 2013 से पहले तक कांग्रेस का मजबूत वोटबैंक हुआ करता था. मोदी लहर में वो वोट बैंक टूट कर बीजेपी के पास चला गया. लेकिन बीजेपी सरकार के कोरोना काल में मिडिल क्लास से ध्यान हटाने और संबित पात्रा सहित कई नेताओं के वोट बैंक में मिडिल क्लास को इग्नौर करने जैसे बयानों से मिडिल क्लास का माइंड बदला है. ऐसे में कांग्रेस और राहुल गांधी के पास पूरा मौका है कि उस वोट बैंक को अपने पक्ष में किया जाए.
कोरोना पर अपनी प्रतिक्रियाओं को लेकर राहुल गांधी जितना सजग हैं, फिर चाहे उनका फरवरी में महामारी के लिए सरकार को जगाने की बात हो या फिर एक्सपर्ट से बात करना. राहुल गांधी भी भली भांति जानते हैं कि इस संकट के टल जाने के बाद ये एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनेगा. ऐसे में राहुल गांधी कांग्रेस की कमान दोबारा संभालने के लिए अच्छे मौके के इंतजार में है. हालांकि यह मौका कब आएगा, ये न तो पार्टी नेताओं को पता है और न ही राजनीतिक विश्लेषकों, लेकिन एक बात पक्की है कि कांग्रेस की कमान देर सबेर राहुल को ही मिलनी है.