एक कहावत बड़ी मशहूर है ‘तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर’. ऐसा ही कुछ कांग्रेस पार्टी में हो रहा है. सोनिया गांधी ने 16 दिसम्बर, 2017 को जब गांधी परिवार के युवराज राहुल गांधी की ताजपोशी की थी यानि उनको पार्टी की कमान संभलायी थी तब ये निश्चित था कि कांग्रेस केवल वंशवाद आगे बढ़ा रही है. ऐसे में तय था कि कांग्रेस की सियासत की बागड़ौर केवल गांधी परिवार के हाथों में रहेगी. लोकसभा चुनाव-2019 में मिली करारी हार के बाद नैतिकता के आधार पर जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.
राहुल गांधी ने ये इस्तीफा यूपीए चैयरपर्सन सोनिया गांधी को सौंपा. यानि एक गांधी को. उसके बाद शुरू हुई नए अध्यक्ष की तलाश. राहुल गांधी ने साफ तौर पर कहा कि अब पार्टी की बागड़ौर किसी गैर गांधी को सौंपी जाए लेकिन अब हुआ पहले से भी बड़ा झोल और एक बार फिर अध्यक्ष बन गयी सोनिया गांधी. यानि गांधी के बाद फिर गांधी. ऐसे में सीधे तौर पर कहा जाए तो इस्तीफा लेने वाला भी गांधी, देने वाला भी गांधी और नया अध्यक्ष भी गांधी.
इससे पहले जिस व्यक्ति का नाम अध्यक्ष पद पर सबकी पसंद था और उसे सभी का समर्थन भी मिल रहा था, वो भी था एक गांधी यानि प्रियंका गांधी. वहीं जिस नाम का सबसे ज्यादा समर्थन किया जा रहा है, वो भी गांधी. सीधे तौर पर कहा जाए तो कांग्रेस में फिर से गांधियों का वंशवाद शुरू हो गया जो बड़ी मुश्किल से लाइन पर आने वाला था. राहुल गांधी के इस्तीफे और पार्टी कमान संभालने को प्रियंका के इनकार के बाद लगने लगा था कि अब कांग्रेस को जो नया अध्यक्ष मिलेगा, निश्चित तौर पर कोई गैर गांधी ही होगा. इस लिस्ट में अशोक गहलोत सबसे आगे रहे लेकिन उन्होंने साफ तौर पर मना कर दिया.
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वजह रही कि राजनीति के जादूगर गहलोत को साफ तौर पर पता था कि वे कांग्रेस अध्यक्ष भले ही बन जाएं लेकिन पर्दे के पीछे और महत्वपूर्ण फैसलों में कलम केवल राहुल-सोनिया-प्रियंका यानि गांधी परिवार की ही चलेगी. ऐसे में उन्होंने बड़ा पद लेने की जगह राजस्थान की राजनीति में ही ध्यान देना उचित समझा. पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह का भी यही सोचना है. अपनी बेबाकी के लिए जाने जाने वाले अमरिन्दर के हितों का टकराव सीधे गांधी परिवार से होगा, इसलिए उन्होंने अपना नाम कभी आगे ही नहीं आने दिया. इसके दूसरी ओर, उन्होंने प्रियंका गांधी को अध्यक्ष बनाने का विकल्प भी सुझा दिया.
कांग्रेस अध्यक्ष के नए नाम की इस लिस्ट में मुकुल वासनिक, सुशील शिंदे और मलिकार्जुन खडगे का नाम भी शामिल था लेकिन 5 ग्रुप की बैठक के बावजूद इनमें से किसी का नाम तय न हो सका. वहीं इस लिस्ट में युवाओं के तौर पर राजस्थान के डिप्टी सीएम सचिन पायलट और पूर्व सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम भी था लेकिन सीनियर्स के अनुभव के सामने न तो युवाओं की रणनीति काम आयी और न ही उनकी युवा सोच.
अगर सीड्ब्ल्यूसी की एक ही दिन में दो बैठकों के बाद भी अगर कोई निष्कर्ष न निकलता तो पार्टी फिर से विपक्ष के निशाने पर आ जाती. शायद इसी डर से सोनिया गांधी को नए अध्यक्ष के चुनाव होने तक अंतरिम अध्यक्ष का दायित्व सौंप दिया. अब गौर करने वाली बात ये है कि चाहे कांग्रेस के नेता ये सोचकर खुश हो रहे हो कि चलो अब कुछ समय के लिए पार्टी के नए कप्तान की चिंता खत्म हुई लेकिन यह समस्या केवल टली है और वो भी कुछ समय के लिए. ज्यादा से ज्यादा चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने तक सोनिया अंतरिम अध्यक्ष का पद संभाल सकती हैं. उसके बाद से कांग्रेस की ये नोटंकी फिर से शुरू होगी और फिर से शुरू होगा गांधी बनाम गांधी का खेल.
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अब ये खेल कितना लंबा चलेगा, ये तो समय भी बताएगा लेकिन जो भी हुआ या जो होने वाला है, उससे एक बात तो एकदम साफ है कि गांधी परिवार के लोगों से पार्टी की बागड़ौर इतनी आसानी से नहीं फिसलने वाली. अगर जरा सी फिसल भी गयी जैसे कि राहुल गांधी के साथ हुआ है तो कांग्रेस के सिपेसालार फिर से इसे किसी न किसी गांधी के हाथों में थमा देंगे, फिर चाहें वो प्रियंका गांधी हो या सोनिया गांधी या फिर से राहुल गांधी.