दरअसल, जाति जनगणना होगी तो समाज में किस जाति के कितने लोग हैं, पिछड़े कितने हैं, अति पिछड़ा वर्ग कितना है, उनके बारे में विस्तार से जानकारी मिल सकेगी. इससे आरक्षण का लाभ उन्हें दिया जा सकेगा. विपक्ष का कहना है कि कई राज्यों में पिछड़े वर्गों की संख्या ज्यादा है लेकिन उनकी भागीदारी उतनी नहीं है. राहुल गांधी भी अपनी हर जनसभा में कहते आ रहे हैं कि उनकी सरकार बनी तो जाति जनगणना कराएंगे और आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा को पार कर जाएंगे. ऐसे में पीएम मोदी ने जातिगत जनगणना वाला दांव खेलकर विपक्ष से यह मुद्दा भी छीन लिया है.
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चूंकि आगामी कुछ महीनों में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में यहां एनडीए सरकार के उक्त फैसले का असर पड़ना लाजमी है. बिहार, जहां जातीय राजनीति की गहरी पकड़ है, वहां पर यह फैसला निर्णायक साबित हो सकता है.
एनडीए को पिछड़े वर्गों में बढ़त मिल सकती है, खासकर उन वोटर्स में जो अब तक कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों के साथ रहे हैं. प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड भी हमेशा से जाति जनगणना की वकालत कर रही थी. ऐसे में बीजेपी और जदयू का तालमेल प्रदेश के ओबीसी और ईबीसी वोट बैंक को लुभाने में कारगर साबित हो सकता है. चूंकि राज्य की 63 फीसदी आबादी ओबीसी और अन्य पिछड़ा वर्ग की है.
वहीं कांग्रेस नेता राहुल गांधी ‘जाति बताओ अभियान’ के जरिए सामाजिक न्याय की राजनीति को धार देने की कोशिश कर रहे थे. अब मोदी सरकार के उक्त फैसले से उनकी यह रणनीति कमजोर होते दिख रही है. जहां कांग्रेस और राजद जातिगत जनगणना के मुद्दे को चुनावी मुद्दा बनाकर बिहार में सत्ता वापसी की राह तलाश रहे थे, अब उन्हें नए नैरेटिव और मुद्दों की तलाश करनी होगी. प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी राजद और कांग्रेस को भी अपनी चुनावी रणनीति बदलनी होगी, क्योंकि बीजेपी ने उनके मुख्य एजेंडे को खुद ही आगे बढ़ा दिया है. अब देखना होगा कि एक बार फिर अपने बड़े चुनावी मुद्दे को खोकर कांग्रेस एवं राजद किस तरह से बिहार विधानसभा चुनावों में एनडीए को टक्कर दे पाती है