Politalks.News/Uttarpradesh. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की दुविधा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. कांग्रेस पार्टी यह तय नहीं कर पा रही है कि उसे किस तरह से चुनाव लड़ना है. प्रियंका गांधी वाड्रा ने सक्रिय राजनीति की शुरुआत उत्तर प्रदेश की प्रभारी के तौर पर की तो है लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों ने प्रियंका के नेतृत्व और करिश्मा दोनों पर सवालिया निशान लगा दिया है. रायबरेली और अमेठी की जो दो सीटें कांग्रेस का किला मानी जाती थीं उनमें से भी वे राहुल गांधी की अमेठी सीट नहीं बचा पाईं. तभी कांग्रेस में यह विचार हो रहा है कि अगर इस बार विधानसभा चुनाव में भी इसी तरह का नतीजा आया तो प्रियंका के लिए राजनीति करना मुश्किल हो जाएगा. देश की सबसे पुरानी पार्टी का यह संघर्ष दोहरा है. पहला तो यूपी की राजनीति में अपना अस्तित्व बचाना और दूसरा फिलहाल प्रदेश की कमान संभाल रही प्रियंका की साख को बचाना. बहरहाल, प्रियंका गांधी वाड्रा का राजनीतिक करियर डूबने से बचाने के लिए जरूरी है कि कांग्रेस का किसी से तालमेल हो या वे फिर चुनाव से पहले प्रदेश की राजनीति से बाहर निकलें.
राहुल ने बनाई दूरी, प्रियंका का जलवा पड़ा गया फीका!
अमेठी से चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के सम्राट से फिर युवराज बन गए राहुल गांधी ने प्रत्यक्ष तौर पर यूपी से खूद को अलग कर लिया. क्योंकि राहुल गांधी अब केरल के वायनाड से सांसद हैं, लिहाजा केरल समेत दक्षिणी राज्यों की तरफ ही उन्होंने ज्यादा रुख किया. कांग्रेस की असली ताकत और गढ़ रहे उत्तर प्रदेश में पार्टी को पुर्नजीवित करने का बीड़ा फिलहाल उनकी बहन और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के कंधों पर है. प्रियंका गांधी का नाम जब यूपी के लिए आया था तो राजनतीक पंडितों से लेकर उनकी पार्टी तक को राज्य की सियासत में कुछ रोमांच बढ़ने की उम्मीद जगी थी. प्रियंका गांधी ने यूपी में गंगा यात्रा से जब इसकी शुरुआत की तो शुरुआत में मीडिया कवरेज से लेकर जनता का ध्यान भी गया. मगर राहुल गांधी की तरह ही प्रियंका भी लगातार यूपी को मथ नहीं सकी. लिहाजा, कांग्रेसी एकजुट तो हुए, लेकिन जनता के बीच वैसा प्रभाव नहीं दिखा, जिसकी अपेक्षा थी.
ट्विटर पर ज्यादा दिखीं सक्रिय
कोरोना, महंगाई, कानून-व्यवस्था या महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर प्रियंका गांधी वाड्रा ट्विटर पर ही ज्यादा सक्रिय दिखाई दीं. प्रदेश में मृत पड़ी दिख रही कांग्रेस को प्रियंका ने हलचल तो दी, लेकिन उसे अपने पैरों पर खड़ा करने में नाकाम दिख रही हैं. राज की बात ये है कि इस बात को प्रियंका और उनके प्रबंधक भलीभांति समझ रहे हैं. अकेले यदि कांग्रेस लड़ती है तो कांग्रेस का सूपड़ा तो साफ है ही, लेकिन प्रियंका की साख और भविष्य भी ताक पर आ सकता है. इसी बीच इमरान प्रतापगढ़ी या इमरान मसूद जैसे चेहरे को आगे कर प्रियंका ने मुसलिम राजनीति में दखल बनाकर एक तरह से सपा पर दबाव भी बनाने की कोशिश जरूर की है. जानकारों की मानें तो कांग्रेस चाहती है कि सपा से समझौता हो, लेकिन अखिलेश हाथ नहीं रखने दे रहे हैं.
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सूपड़ा साफ होता देख गठबंधन के लिए खोले विकल्प!
यही कारण है कि उत्तरप्रदेश में अकेले विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारी कर रहीं कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपनी पिछली यूपी यात्रा में गठबंधन का खुला संकेत दिया. प्रियंका गांधी ने कहा था कि, ‘पार्टी खुले विचार वाली है और तालमेल के लिए तैयार है’. लेकिन मुश्किल यह है कि जिस समय प्रियंका गांधी ने यह बात कही उस समय तक प्रदेश की कोई भी पार्टी कांग्रेस से तालमेल के लिए तैयार नहीं थी. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. बहुजन समाज पार्टी ने जिस आक्रामक अंदाज में ब्राह्मण समाज को अपने साथ जोड़ने की राजनीति शुरू की है, उससे कांग्रेस के लिए कुछ संभावना बनी है।
ब्राह्मण वोटों पर सभी पार्टियों की नजर
इधर, कुछ समय पहले तक समाजवादी पार्टी कांग्रेस को भाव नहीं दे रही थी लेकिन अब बदली परिस्थितियों में वह कांग्रेस को साथ ले सकती है. समाजवादी पार्टी को पता है कि ब्राह्मण भले भाजपा से नाराज है लेकिन उसका वोट आसानी से सपा को नहीं मिलने वाला है, क्योंकि सपा कभी भी ब्राह्मणों की पसंद वाली पार्टी नहीं रही है. इस बार भाजपा से नाराजगी के चलते सपा के ब्राह्मण उम्मीदवारों को जनरल वोट मिल सकता है पर एकमुश्त वोट के लिए उसे कुछ और करना होगा. कुछ और करने का मतलब है कि अगर वह कांग्रेस से तालमेल करे तो उसे फायदा संभव है. बिल्कुल यही स्थिति बसपा के साथ भी है. उसे 2007 की तरह इस बार ब्राह्मण वोट नहीं मिलने वाले हैं लेकिन कांग्रेस साथ आ जाए तो उसे ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम को एकजुट करने में आसानी हो जाएगी.
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प्रशांत किशोर जुटे हैं बात बनाने में!
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कुछ दिन पहले राहुल और प्रियंका गांधी से मुलाकात की तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत के बारे में बताया. पीके ने कहा था कि, कांग्रेस बहुत कमजोर स्थिति में है. उन्होंने संख्या नहीं बताई पर माना जा रहा है कि अकेले लड़ने पर कांग्रेस की स्थिति पश्चिम बंगाल वाली हो सकती है. यानी दो-तीन फीसदी वोट मिले और एकाध सीट मिल जाए तो वह संयोग की बात होगी. बताया जा रहा है कि प्रशांत किशोर ने समाजवादी पार्टी से तालमेल करा देने का प्रस्ताव रखा है पर इसके लिए कांग्रेस को 30 से 40 सीटों पर लड़ने के लिए राजी होना होगा. बसपा से तालमेल टेढ़ा काम है लेकिन कांग्रेस प्रयास कर सकती है.
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सूत्रों की मानें तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल की जीत के बाद तमाम मोदी विरोधी राजनीतिक दलों के चहेते और राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में विख्यात प्रशांत किशोर को प्रियंका की तरफ से सपा से समझौता करने की जिम्मेदारी दी गई है. प्रशांत किशोर यानी पीके यूपी में भी बीजेपी के खिलाफ घेरेबंदी में राष्ट्रीय विकास मंच यानी शरद पवार और ममता बनर्जी के अलावा अन्य छोटे दलों को सपा के साथ एक छतरी के नीचे लाने में लगे हैं. आम आदमी पार्टी भी अखिलेश के साथ चुनाव लड़ने को उत्सुक है. राज की बात ये कि पीके का फार्मूला बीजेपी विरोधी वोटों को नहीं बंटने का है, उसमें वो कांग्रेस को भी शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ जाने को तैयार नहीं है.