पाॅलिटाॅक्स ब्यूरो. महाराष्ट्र में शिवसेना से बिगड़ी गणित के चलते सत्ता गवां चुकी भारतीय जनता पार्टी ने अब अकाली दल से पंगा लेकर आने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव में अपने लिए नई चुनौती खड़ी कर ली है. बता दें, दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नाम से जूझ रही भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को एनडीए के प्रमुख घटक दल आकाली से बडा झटका लगा है. अकाली दल के दिल्ली विधानसभा चुनाव में तीन सीटों पर चुनाव लडने से इंकार कर देने के बाद पंजाब में भाजपा-अकाली गठबंधन पर पडना तय हो गया है.
बता दें, दिल्ली विधानसभा चुनाव में अकाली दल हमेशा से तीन सीटों पर चुनाव लडता आया है. यह अलग बात है कि अकाली के प्रत्याशी भाजपा के चुनाव चिन्ह कमल पर चुनाव लडते रहे हैं लेकिन इस बार अकाली दल की ओर से भाजपा नेताओं के सामने दो शर्तें रखी गईं. पहली कि वो तीन नहीं बल्कि पांच से सात सीटों पर चुनाव लडेंगे और दूसरी कि वो खुद के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लडेंगे. काफी लंबी कवायद के बाद भी बात नहीं बनी और भाजपा ने अकाली दल की दोनों शर्तों को दर किनार करते हुए 70 सीटों में से 67 पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी जबकी बिहार और उतरांचल क्षेत्र से जुडे वोटर्स को रिझाने के लिए जदयू और एलजेपी के लिए तीन सीटें छोड दीं.
अब दिल्ली में टूटे शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन का पंजाब की सियासत पर इसका सीधा असर पडना तय है. भाजपा नेताओं की ओर से अकाली दल की बात नहीं माने जाने के बाद अकाली दल ने दिल्ली में चुनाव नहीं लडने का निर्णय कर लिया तो उधर पंजाब में भाजपा नेताओं ने गठबंधन के खिलाफ बयान देने शुरू कर दिए हैं.
लम्बे समय से चल रही है शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी के बीच खींचतान
बात सिर्फ दिल्ली विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर खटास की नहीं है बल्कि दोनों के बीच खींचतान का यह सिलसिला पिछले लंबे समय से चल रहा है. शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन पंजाब में तीन बार सत्ता प्राप्त कर चुका है और अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल पांच बार सूबे के सीएम रह चुके हैं. लेकिन पंजाब में सत्ता जाने और कांग्रेस की सरकार आने के बाद से अकाली दल लगातार टूट रहा है. इसके साथ ही भाजपा के साथ उसके मतभेद लगातार बढ रहे हैं.
बता दें, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अश्विनी शर्मा के कार्यक्रम में तो भाजपा नेताओं ने मंच से आकली दल पर जमकर निशाने साधे और 2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर अपने बुते सरकार बनाने तक का दावा कर दिया. असल में मोदी लहर के बीच भी अकाली दल-भाजपा गठबंधन पंजाब में चुनाव हार गया. इसी बात से भाजपा के कार्यकर्ताओं में भारी नाराजगी है. पंजाब में अकाली दल सिख वोट बैंक की राजनीति कर पंजाब में सत्ता प्राप्त करता रहा है, वहीं भाजपा की शहरी क्षेत्रों में अच्छी पैठ के कारण सरकार में हिस्सेदारी होती आई है. लेकिन 2017 में अकाली दल-भारतीय जनता पार्टी को करारी हार का सामना करना पडा था.
अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल और उनकी पत्नी हरसिमरत कौर बादल ही अपनी सीट बचा पाए. उसके बाद से ही भाजपा नेता अपने शीर्ष नेताओं को समझाने में लग रहे हैं कि पंजाब में अकाली दल के साथ आगे बढ़ना नुकसानदेह होगा. पंजाब में अकाली दल के सुखदेव सिंह, परमिंदर सिंह ढींढसा जैसे नेता पार्टी से नाराज हैं.
रही सही कसर अकाली दल ने नागरिकता संशोधन कानून (CAA) को लेकर उल्टी सीधी बयानबाजी करके पूरी कर दी. नागरिक संशोधन कानून पर अकाली दल द्वारा भाजपा हाईकमान को कटघरे में खड़ा किया गया, जिससे भाजपा के कार्यकार्ताओं में खासी नाराजगी है. सीएए के अलावा श्री अकाल तख्त साहिब द्वारा आरएसएस के खिलाफ फतवा जारी करना और आरएसएस चीफ मोहन भागवत के बयान की निंदा करना भी अकाली दल और भाजपा के बीच खटास का बड़ा कारण है. उसके बाद से ही भाजपा ने पंजाब को लेकर अपनी रणनीति में बदलाव कर दिया.
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इसके बाद से जहां-जहां अकाली दल के विधानसभा क्षेत्र रहे हैं भाजपा उन सभी विधानसभा क्षेत्रों में बूथ स्तर की टीम को तैयार करने में जुट गई. इन सभी क्षेत्रों में टीम तैयार करने के लिए भाजपा के बडे नेताओं को जिम्मेदारियां दी गई है. पंजाब राजनीति से जुडे भाजपा के नेता अब कहने लग गए हैं कि भारतीय जनता पार्टी पंजाब में छोटे नहीं बल्कि बड़े भाई की भूमिका में है. अकाली दल को अब यह समझ लेना चाहिए कि वह अपनी मनमर्जी से सीट की बात नहीं कर सकता. अकाली दल को उतनी सीटों पर ही चुनाव लड़ना पड़ेगा जितनी भाजपा हाईकमान की तरफ से उनको दी जाएंगी.
दिल्ली चुनाव के लिए भी अकाली दल नेताओं और प्रकाश जावेडकर के बीच लंबे दौर की बातचीत चली थी लेकिन नतीजा सिफर रहा. भाजपा ने अकाली नेताओं की शर्तों को मानने से इंकार कर दिया.
इसके बाद माना जा रहा है कि इस गठबंधन टूटने का नुकसान भाजपा को दिल्ली के साथ-साथ पंजाब में बड़ा होगा. चुनावी विशेषज्ञों का मानना है कि शिरोमणि अकाली दल का दिल्ली के सिख वोटों पर अच्छा खासा प्रभाव है. जिसके चलते वोट बैंक का एक अच्छा खासा प्रतिशत भाजपा को मिल जाता था. लेकिन गठबंधन के टूटने के बाद अकाली दल के प्रभाव वाले वोट बैंक पर सेंध लगना तय है. इसी स्थिति को देखते हुए भाजपा ने कई सिख उम्मीदवारों को दिल्ली में अपना प्रत्याशी बनाया है.