नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री और अमित शाह के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद यह माना जाता है कि इन दोनों की मर्जी के बिना पार्टी में पत्ता भी नहीं हिलता. इस जोड़ी का कहा पार्टी के भीतर पत्थर की लकीर की तरह है, जिससे दाएं-बाएं होने की हिम्मत करना करना तो दूर भाजपा का कोई नेता इस बारे में सोचता तक नहीं. भाजपा में मोदी-शाह के इस वर्चस्व को यदि किसी ने तोड़ा है तो वे वसुंधरा राजे हैं. उन्होंने न केवल इस जोड़ी को चुनौती दी, बल्कि तीन बार घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया.
प्रदेश अध्यक्ष और विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण के मसलों पर मोदी-शाह से सरेंडर करवा चुकीं वसुंधरा लोकसभा चुनाव में भी ऐसा करती हुई दिखाई दे रही हैं. पार्टी चाहती है कि राजे बारां-झालावाड़ सीट से बेटे दुष्यंत सिंह की जगह चुनाव लड़ें, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया है. राजे से जुड़े सूत्र पहले से यह दावा कर रहे थे कि वे किसी भी सूरत में लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगी, लेकिन मंगलवार देर रात तक चली केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक के बाद इस मामले में कयासों का दौर थम गया.
समिति बैठक खत्म होने के बाद मीडिया से बातचीत में राजे से साफ कर दिया कि वे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रहीं. सूत्रों के अनुसार पार्टी नेतृत्व ने उन्हें चुनाव लड़ने को राजी करने के लिए खूब मशक्कत की, लेकिन वे टस से मस नहीं हुईं. असल में मोदी-शाह चाहते हैं कि वसुंधरा की कार्यशैली राजस्थान में पार्टी के प्रदर्शन को प्रभावित करती है इसलिए उन्हें दिल्ली बुलाकर प्रदेश में नया नेतृत्व तैयार किया जाए.
दूसरी ओर राजे दिल्ली की बजाय प्रदेश की राजनीति में ही सक्रिय रहना चाहती हैं. उन्हें यह भरोसा है कि 2023 के विधानसभा चुनाव में भी सत्ता की अदला-बदली का क्रम जारी रहेगा और भाजपा की सरकार बनेगी. उस समय राजे राज्य की राजनीति में सक्रिय नहीं रहीं तो उनका मुख्यमंत्री बनना आसान नहीं होगा. यही नहीं, उनके बारां-झालावाड़ सीट से चुनाव लड़ने की स्थिति में पुत्र दुष्यंत सिंह का सियासी भविष्य भी अधरझूल में फंस जाएगा. गौरतलब है कि दुष्यंत इस सीट से लगातार तीन बार चुनाव जीत चुके हैं.
सूत्रों की मानें तो पार्टी नेतृत्व ने वसुंधरा को किसी दूसरी सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव भी दिया था, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया. दरअसल, दुष्यंत सिंह तीन बार सांसद तो रह चुके हैं पर उनका चुनावी प्रबंधन अभी भी राजे ही संभालती हैं. इलाके की राजनीति के जानकारों के अनुसार दुष्यंत सिंह लोकप्रियता के मामले में राजनीति की सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं. क्षेत्र में उनसे नाराजगी का स्तर जीत के समीकरण खराब करने के स्तर तक पहुंच चुका है. इस स्थिति में वसुंधरा अपने बेटे को चुनावी रण में अकेला छोड़ने का खतरा मोल नहीं लेना चाहेंगी.
राजे के इस बयान के बाद कि वे लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगी, यह साफ हो गया है कि पूरी मशक्कत करने के बाद भी मोदी-शाह पूर्व मुख्यमंत्री के हठ का तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे. यह लगातार तीसरा मौका है जब अमित शाह को वसुंधरा राजे की जिद के सामने सरेंडर करना पड़ा है. इससे पहले प्रदेशाध्यक्ष के मामले में उन्हें उनके आगे झुकना पड़ा था. गौरतलब है कि पिछले साल फरवरी में दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद केंद्रीय नेतृत्व ने वसुंधरा के ‘यस मैन’ माने जाने वाले अशोक परनामी को रवाना कर दिया था.
अमित शाह राजस्थान में पार्टी की कमान केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के हाथों में सौंपना चाहते थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन वुसंधरा राजे ने इस पर सहमति व्यक्त नहीं की. पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने राजे को राजी करने के लिए सभी जतन किए, लेकिन वे टस से मस नहीं हुईं.
आखिरकार मोदी-शाह की पसंद पर वसुंधरा का वीटो भारी पड़ा और मदन लाल सैनी प्रदेशाध्यक्ष बने. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री और अमित शाह के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला मौका था जब इन दोनों को पार्टी के किसी क्षेत्रीय क्षत्रप ने न केवल सीधी चुनौती दी, बल्कि घुटने टेकने पर भी मजबूर कर दिया.
वसुंधरा और केंद्रीय नेतृत्व के बीच दूसरी सियासी भिडंत पिछले साल नवंबर में हुई. उस समय राजे विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की सूची लेकर अमित शाह के पास गई थीं. इसमें ज्यादातर मौजूदा विधायकों के नाम थे, जिन्हें देखकर अमित शाह खफा हो गए. उन्होंने सत्ता विरोधी माहौल से निपटने के लिए आधे से ज्यादा विधायकों की जगह नए चेहरों को मौका देने के कहा, लेकिन आखिर में उम्मीदवारों के जो नाम सामने वे वसुंधरा की पसंद के ही निकले. कुछ नामों को छोड़कर उन्हें ही टिकट मिला, जिन्हें वसुंधरा खेमे का माना जाता है. टिकट काटने में भी राजे की ही मर्जी चली.