पॉलिटॉक्स ब्यूरो. कहते हैं किस्मत एक मौका सबको देती है लेकिन ये सामने वाले पर निर्भर करता है कि कोई तो उसे बाहें फैलाकर स्वीकार करता है और कोई उस मौके को गवां देता है. ऐसा ही कुछ देखने को मिला आदित्य ठाकरे और राहुल गांधी के राजनीतिक करियर में. महाराष्ट्र की उद्दव सरकार में नए नवेले केबिनेट मंत्री बने आदित्य ठाकरे और राहुल गांधी के राजनीति करियर में एक बात काफी समान है. दोनों के पास एक समान मौके आए जब वे राजनीति में और आगे बढ़ सकते थे लेकिन राहुल गांधी ने वो मौका गवां दिया जबकि आदित्य ठाकरे ने इस मौके को अपने हाथ से नहीं जाने दिया. हालांकि आदित्य को ये मौका प्रदेश की राजनीति में मिला वहीं राहुल गांधी को राष्ट्रीय राजनीति में. दरअसल राहुल गांधी को ये मौका मिला 2009 में, जब राहुल गांधी अमेठी सीट से आम चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे, उस वक्त उनके पास प्रधानमंत्री बनने का स्वर्णिम मौका था लेकिन पार्टी ने डॉ.मनमोहन सिंह को लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री पद के लिए चुना.
हालांकि माना यही जाता है कि राहुल गांधी तो प्रधानमंत्री बनना चाहते थे लेकिन उस समय कांग्रेस अध्यक्ष और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी नहीं चाहती थी कि ऐसा हो. लेकिन शायद यहां सोनिया और राहुल दोनों से एक बड़ी गलती हो गई, राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री बनने का मौका तो खोया ही, मंत्री बनने तक की जेहमत नहीं उठाई. अगर वे ऐसा करते या सिर्फ मंत्री भी बन जाते तो 2013-14 में जब देशभर में मोदी लहर छाई तो उनकी छवि केवल एक सांसद के तौर पर अपरिपक्व नेता की ही नहीं बनी रहती. विपक्ष ने भी उनकी कमजोर और नासमझ समझे जाने वाले नेता वाली छवि को जमकर भुनाया. यहां तक की विपक्ष ने उन्हें ‘पप्पू’ के नाम तक से संबोधित किया.
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चूंकि राहुल गांधी चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुए थे तो ये मानना जायज है कि सोनिया गांधी के बाद पार्टी की बागड़ोर और कांग्रेस की विरासत राहुल गांधी के हाथ में ही आनी है. शायद इसलिए राहुल गांधी को मंत्री पद अपने लिए छोटा लग रहा हो, लेकिन कांग्रेस ने राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद 2019 में हुआ लोकसभा चुनाव उनके चेहरे पर ही लड़ा या यूं कहा जाए कि अगर कांग्रेस इस आम चुनाव में अगर बहुमत ला पाती तो शायद राहुल ही प्रधानमंत्री पद के प्रमुख दावेदार होते. लेकिन कहते हैं ना, ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत.’
ऐसी ही कुछ परिस्थितियां आदित्य ठाकरे के सामने भी रहीं. उद्दव ठाकरे के बाद पर्दे के पीछे की राजनीति और शिवसेना की बागड़ोर सीधे-सीधे आदित्य ठाकरे के हाथ में आना स्वभाविक है. लेकिन शायद उद्धव ठाकरे ने समय रहते कांग्रेस और राहुल गांधी से सबक लेते हुए ना सिर्फ सक्रिय राजनीति में उतारा बल्कि पहले चुनाव में ही आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री का दावेदार भी घोषित कर दिया. लेकिन, चूंकि अब तक आदित्य राजनीति में बिलकुल नए हैं और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में वर्ली सीट से उतरकर सक्रिय राजनीति में उतरने वाले ठाकरे परिवार के पहले सदस्य हैं. उनके पास सक्रिय राजनीति के न के बराबर अनुभव को देखते हुए गठबंधन में शामिल एनसीपी और कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री मानने से साफ इंकार कर दिया और ना चाहते हुए भी उनके पिता उद्दव ठाकरे को सत्ता की कुर्सी संभालनी पड़ी.
लेकिन उद्धव ठाकरे जो कि शायद अपने बेटे के राजनीतिक करियर को लेकर चिंतित थे, ने कोई मौका ना गंवाते हुए आदित्य को पहले मंत्रिमंडल विस्तार में ही केबिनेट मंत्री बनाया आउट इस तरह महाराष्ट्र में एक नया राजनीतिक इतिहास रच गया कि महाराष्ट्र की राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी भी सरकार में पिता मुख्यमंत्री और बेटा केबिनेट मंत्री रहा हो. इस तरह उद्धव ने समय रहते अपने बेटे आदित्य ठाकरे के राजनीतिक भविष्य को सेट कर दिया. आदित्य अभी युवा हैं और मंत्री बनने के बाद उन्हें जो भी जिम्मेदारी दी जाएगी, वे निभाते-निभाते एक पूर्ण राजनीतिज्ञ बनने की ओर अग्रसर होंगे. यानि अगले चुनावों में जब वे मैदान में उतरेंगे तो उनके पास सक्रिय राजनीति का पूरे 5 साल का अनुभव होगा. वहीं राहुल गांधी ने केवल पार्टी की जिम्मेदारियां निभाई हैं जो सक्रिय राजनीति से पूरी तरह उलट है. दोनों में जमीन और आसमान का फर्क है.
यहां एक बात का जिक्र करना बेहद जरूरी है कि महाराष्ट्र चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक कवरेज के दौरान हिंदी चैनल की एक एंकर ने आदित्य ठाकरे को ‘शिवसेना का राहुल गांधी‘ कहकर संबोधित किया था. एंकर ने ऐसा क्यों कहा, ये उपर दी गई परिस्थितियों को देखकर समझा जा सकता है और इसमें कोई दोराय भी नहीं है. पर शायद ये बात उद्दव ठाकरे और उनकी पत्नी रश्मि ठाकरे के दिमाग में बैठ गई और उन्होंने तय किया कि कुछ भी हो जाए, आदित्य को देश का नया राहुल गांधी नहीं बनने देंगे. यानि विपक्ष को कहने का कोई मौका नहीं देंगे. यही वजह रही कि उन्होंने आदित्य को एक राजनीतिज्ञ के तौर पर तराशने का काम शुरु कर दिया और चुनाव से पहले मुख्यमंत्री के दावेदार रहे आदित्य चुनाव के बाद अपने पिता की सरकार में मंत्री बन गए. अब महाराष्ट्र में जब तक उद्दव सरकार टिकी रहेगी, आदित्य को मजबूत और समझदार नेता के तौर पर उनकी पकड़ मजबूत होती रहेगी.