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लोकसभा चुनाव के रण में भाजपा ने राजस्थान के 16 योद्धाओं को मैदान में उतार दिया है. पार्टी जिन नौ सीटों पर जिताऊ चेहरों की तलाश कर रही है, उनमें डूंगरपुर-बांसवाड़ा भी शामिल है. पार्टी के दिग्गज इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि इस सीट से मौजूदा सांसद मानशंकर निनामा को फिर से मैदान में उतारा जाए या और किसी को मौका दिया जाए. निनामा के अलावा मुकेश रावत, कनकमल कटारा, जीतमल खांट और धर्मेंद्र राठौड़ भी दौड़ मे शामिल हैं.

डूंगरपुर-बांसवाड़ा सीट पर भाजपा ही नहीं, कांग्रेस के भीतर भी मंथन जारी है. पार्टी इस सीट पर एक बार डूंगरपुर और एक बार बांसवाड़ा के नेता को मैदान में उतारती रही है. इस लिहाज से इस बार डूंगरपुर से ताल्लुक रखने वाले ताराचंद भगोरा और महेंद्र बरजोड़ में से किसी एक का नंबर आ सकता है. दोनों दावेदारों के पक्ष में अपने-अपने गुट के नेता लॉबिंग करने में जुटे हैं. पार्टी यह तय नहीं कर पा रही कि इन दोनों में से किसे मैदान में उतारा जाए.

उम्मीदवार तय करने से पहले राजनीतिक दलों में मंथन होना नई बात नहीं है, लेकिन दक्षिणी राजस्थान की डूंगरपुर-बांसवाड़ा सीट पर कांग्रेस और भाजपा में इतनी माथापच्ची पहली बार देखने को मिल रही है. इसकी वजह है बीटीपी यानी भारतीय ट्राइबल पार्टी. विधानसभा चुनाव से पहले अस्तित्व में आई यह पार्टी कांग्रेस और भाजपा के लिए सिरदर्द बन गई है.

गौरतलब है कि बीटीपी का गठन आदिवासी नेता छोटूभाई वसावा ने 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले किया था. चुनाव में कांग्रेस ने बीटीपी के साथ गठबंधन किया और इसे पांच सीटें दीं. बीटीपी ने इनमें से दो पर जीत दर्ज की. कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में तो बीटीपी के साथ गठजोड़ किया, लेकिन राजस्थान विधानसभा के चुनाव में उसे कोई तवज्जो नहीं दी. जबकि बीटीपी ने चुनाव से डेढ़ महीने पहले ही मैदान में उतरने का एलान कर दिया था.

चुनाव से पहले न तो कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व ने बीटीपी को अहमियम दी और न ही स्थानीय नेताओं ने. भाजपा का भी यही रुख रहा. असल में दोनों दल बीटीपी को एकाध प्रतिशत वोट मिलने लायक पार्टी मान रहे थे. भाजपा ने यह सोचकर इस नवोदित राजनीतिक दल को नजरअंदाज किया कि यह कांग्रेस के वोट काटेगी जबकि कांग्रेस यह मानकर बैठी थी कि यह भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाएगी. दोनों दल इसी गलतफहमी में चुनावी रण में उतरे, जो उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ.

डूंगरपुर जिले में बीटीपी के दो उम्मीदवारों को विजयी बनाकर सबको चौंका दिया. चौरासी सीट पर बीटीपी के प्रत्याशी राजकुमार रोत ने वसुंधरा सरकार के मंत्री सुशील कटारा व कांग्रेस नेता मंजुला रोत को धूल चटाई जबकि सागवाड़ा सीट पर रामप्रसाद डेंडोर ने भाजपा के शंकर डेचा व कांग्रेस के सुरेंद्र बामणिया को शिकस्त दी. वहीं, आसपुर सीट पर बीटीपी की ओर से मैदान में उतरे उमेश डामोर भाजपा उम्मीदवार से नजदीकी मुकाबले में हारे. कांग्रेस इन तीनों सीटों पर तीसरे स्थान पर रही.

डूंगरपुर सीट पर जरूर कांग्रेस के उम्मीदवार गणेश घोगरा ने जीत हासिल की, लेकिन यहां भी बीटीपी के प्रत्याशी डॉ. वेलाराम घोघरा ने 8.17 फीसदी वोट प्राप्त किए. बीटीपी ने आदिवासी बहुल बांसवाड़ा, उदयपुर और प्रतापगढ़ में भी अपने प्रत्याशी खड़े किए थे. इनमें से किसी को जीतने में तो कामयाबी नहीं मिली, लेकिन गढ़ी में 11.42, खेरवाड़ा में 10.87, बागीदौड़ा में 4.94, धारियावाड़ में 2.33 और घाटोल में 2.18 फीसदी वोट हासिल किए.

बीटीपी के नेता लोगों को यह समझाने में कामयाब रहे कि इलाके की कांग्रेस और भाजपा ने बारी-बारी से उपेक्षा की है. अपने हक-हकूक के लिए खुद के बीच से लोगों को चुनकर भेजना जरूरी है. यह बात पिछले पांच साल से इलाके के लोगों को समझायी जा रही थी. भील आटोनोमस काउंसिल ने लगातार ‘आदिवासी परिवार चिंतन शिविर’ लगाकर भील जनजाति को संविधान की पांचवीं अनुसूचि में प्रदत्त अधिकारों के प्रति जागरुक किया. काउंसिल ने आदिवासी युवाओं के बीच अपने पैठ बढ़ाने के लिए यूथ विंग खड़ी की.

वहीं, भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा (बीपीवीएम) चार साल पहले छात्रसंघ चुनाव में उतरा और डूंगरपुर जिले की तीन कॉलेजों में एबीवीपी और एनएसयूआई को शिकस्त दी. चुनाव दर चुनाव बीपीवीएम ने अपनी ताकत को बढ़ाया. वसुंधरा सरकार में मंत्री रहे सुशील कटारा के गृह क्षेत्र चौरासी के संस्कृत कॉलेज में बीते दो साल से बीपीवीएम के प्रत्याशी छात्रसंघ के सभी पदों पर निर्विरोध निर्वाचित हो रहे हैं.

यानी विधानसभा चुनाव में बीपीटी ने उसी सियासी जमीन पर फसल काटी जिसे भील आटोनोमस काउंसिल और भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा ने पांच साल तक खाद-पानी दिया था. चौरासी सीट से चुनाव जीते राजकुमार रोत तो सीधे तौर पर छात्रसंघ की राजनीति से निकले युवा चेहरे हैं. वे 2014-15 में डूंगरपुर कॉलेज के अध्यक्ष चुने गए थे. रोत की उम्र महज 26 साल है और वे विधानसभा के सबसे कम उम्र के विधायक हैं.

विधानसभा चुनाव में दो सीट जीतने से उत्साहित बीटीपी ने लोकसभा चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है. इससे कांग्रेस और भाजपा, दोनों चिंतित हैं. एक ओर कांग्रेस को अपने परंपरागत वोट बैंक के हमेशा के लिए हाथ से निकलने का डर सता रहा है, वहीं दूसरी ओर भाजपा भील जनजाति के पार्टी से छिटकने का तोड़ नहीं निकलने से परेशान है. विधानसभा चुनाव में बीटीपी को हल्के में लेने की भूल कर चुके दोनों दल लोकसभा चुनाव में नई रणनीति के साथ मैदान में उतरने की योजना बना रहे हैं.

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