इस बात में कोई शक नहीं है कि कांग्रेस पार्टी अपने कप्तान के बिना नेतृत्वविहीन होकर बिखरने लगी है. कर्नाटक और गोवा में जो होगा, इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं. राहुल गांधी के अपने इस्तीफे को सार्वजनिक करने के बाद उनकी फिर से पार्टी की कमान संभालने की संभावनाएं एकदम क्षीण हो चुकी हैं.
कांग्रेस आलाकमान लाख कोशिशों के बाद भी संगठन को नया अध्यक्ष नहीं दिला पाया. अब कांग्रेस के सियासी गलियारों से यह खबर आ रही है कि अगले 6 माह तक कांग्रेस को नया अध्यक्ष नहीं मिलेगा. अगले साल ही इस बारे में कोई फैसला लिया जाएगा. सीड्ब्ल्यूसी की बैठक का आहूत न होना इस बात का साफ संकेत देता है.
सभी की उम्मीदों और सभी तरह की संभावनों को पीछे छोड़ अब कांग्रेस को टीम का नया कप्तान दिल्ली विधानसभा चुनाव या फिर अगले साल के केंद्रीय बजट के बाद ही मिलेगा, यह पक्का है. पता चला है की मौजूदा समय में कांग्रेस आलाकमान अध्यक्ष पद पर नहीं बल्कि कांग्रेस शासित प्रदेशों में अपनी सरकारें बचाने में लगा है. आगामी 6 महीनों में हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं. इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर लोकसभा हार को भुलाने की रणनीति पर भी काम हो रहा है.
सियासी झरोखों से खबर तो यह भी आ रही है कि एकदम से कर्नाटक और गोवा में दल बदल के बाद कांग्रेस को राजस्थान और मध्यप्रदेश में गठबंधन के पायों पर टिकी सत्ता की कुर्सी खिसकने का भय लग रहा है. ऐसे में दोनों राज्यों में चल रही गुटबाजी को समाप्त करने के प्रयासों में पार्टी जुटी हुई है. यही वजह है कि 51 दिन बाद भी पार्टी नेतृत्वविहीन है फिर भी आलाकमान चुप्पी साधे बैठा है.
दरअसल हुआ कुछ यूं कि सभी पार्टी नेताओं ने सबसे पहले राहुल गांधी को ही मनाने की जिद पकड़ी थी लेकिन इस बाद राहुल गांधी अपना फैसला नहीं बदला. इसके बाद वरिष्ठ नेताओं ने एक अन्य विकल्प सुझाया है. इसके अनुसार, संगठन के महासचिवों को विशेष अधिकार दे दिए जाएं ताकि जिन राज्यों में चुनाव हैं, वहां के फैसले वे आसानी से ले सकें. इसी बीच पार्टी के चुनाव की प्रक्रिया को भी शुरू कर दिया जाए. 4 राज्यों में जब चुनाव समाप्त हो जाएंगे, तब तक महासचिव अपने-अपने राज्यों का कार्यभार संभालते रहेंगे. उसके बाद पार्टी के नए अध्यक्ष का चुनाव भी कर लिया जाएगा.
हालांकि यह तीसरा रास्ता यूं ही नहीं निकाला गया है. इससे पहले ऐके एंटनी, सुशील कुमार शिंदे, अशोक गहलोत सहित कई नाम अध्यक्ष के तौर पर सामने आए थे लेकिन सभी ने इस जिम्मेदारी को लेने से साफ तौर पर इनकार कर दिया. इसकी वजह शायद यह रही कि सभी नेताओं को यही लगा कि पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद भी असली कंट्रोल तो सोनिया-राहुल-प्रियंका की तिगड़ी के हाथ में ही रहेगी और शायद यह सच भी है.
हालांकि यह तो तय है कि 21 साल बाद कांग्रेस की कमान फिर से एक बार नेहरू-गांधी परिवार से बाहर किसी और नेता के हाथ में होगी. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बाद ‘गांधी परिवार’ से सोनिया गांधी 1998 में पार्टी अध्यक्ष बनीं और 2017 तक इस पद पर रहीं.
इस दौरान कांग्रेस 10 साल तक केंद्र की सत्ता पर काबिज रही और डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. इसके बाद राहुल गांधी की ताजपोशी हुई. अब इस पार्टी की लगाम किसी गैर गांधी नेता के हाथों में संभलाई जाएगी. इन सभी बातों पर गौर करते हुए माना यही जा रहा है कि कांग्रेस को नेतृत्वकर्ता के लिए कुछ महीने और इंतजार करना पड़ेगा.