राहुल गांधी ने हाल में सोशल मीडिया पर अपना इस्तीफा शेयर कर उन अटकलों को समाप्त कर दिया है जिसमें यह माना जा रहा था कि वे अपने फैसले पर फिर से विचार कर सकते हैं. हालांकि उनके इस्तीफा देने से पार्टी नेतृत्व विहिन हो गई है. राहुल के इस्तीफा देने के बाद विपक्ष उन्हें युद्ध में हथियार डालने वाला सिपाही बता रहा है.
कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों ने राहुल गांधी के इस फैसले को सरासर गलत और जोखिम वाला बताया है. यह भी कहा जा रहा है कि ऐसा करके उन्होंने अपने राजनीतिक करियर के साथ एक बड़ा रिस्क लिया है. वहीं एक तबका वो भी है जिनका कहना है कि राहुल गांधी ने इस्तीफा देकर एक तीर से कई निशाने साध दिए हैं.
थोड़ा अटपटा जरूर है लेकिन एकदम सही है. हाल में हुए लोकसभा चुनावों में विपक्ष ने कांग्रेस पर सबसे बड़ा प्रहार वंशवाद को लेकर किया था. विपक्ष के इस हमले का तोड़ किसी भी कांग्रेसी नेता या यूं कहें कि खुद राहुल गांधी के पास भी नहीं था. चुनाव के नतीजों से यह साफ झलकता है. इस्तीफा देकर और साफ तौर पर किसी गैर गांधी सदस्य को अध्यक्ष पद सौंपकर राहुल गांधी ने विपक्ष पर एक जवाबी हमला कर दिया है.
यह बात सही है कि लंबे समय से पार्टी के शीर्ष पद पर गांधी परिवार का ही कोई सदस्य विराजमान है. लेकिन इसका गहरा असर अन्य नेताओं पर पड़ रहा है. ‘गांधी परिवार’ के सिवा पार्टी के बाकी नेता मेहनत नहीं करना चाहते जबकि दूसरी पार्टियों में नेता से लेकर कार्यकर्ता तक संघर्ष करते नजर आते हैं.
अब राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ साफ संकेत दे दिए हैं कि अगर पार्टी को जीत दर्ज करनी है तो सबको मेहनत करनी होगी. जिस प्रकार 1989 के बाद गांधी परिवार का कोई भी सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बना है, अब उसी तर्ज पर कांग्रेस संगठन को गांधी परिवार से मुक्त रखने का कदम उठाया जा रहा है ताकि सभी को बराबरी का मौका मिल सके.
देखा जाए तो यह बात भी काफी हद तक सही है की राहुल का डर भी कांग्रेस नेताओं के बीच उस तरह का नहीं है जिस तरह का भय केंद्रीय नेतृत्व का होना चाहिए. इसमें कोई संदेह नहीं कि राहुल गांधी बहुत ज्यादा लिबरल हैं. यही वजह है कि वह अपनी बातों को सख्ती से मनवा नहीं पाते. राजस्थान और मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री पद की लड़ाई इस बात को पुख्ता तौर पर बयां करती है.
अगर इतिहास पर गौर करें तो इंदिरा गांधी पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदल देती थी लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने दिल्ली में शीला दीक्षित और असम में तरुण गोगई को 15 साल तक मुख्यमंत्री बने रहने दिया. इसका खामियाजा क्या हुआ, वह सामने है.
2014 के लोकसभा चुनाव में राज्यों की आंतरिक राजनीति कांग्रेस को ले डूबी. हालांकि उस समय सोनिया गांधी कांग्रेस की सर्वेसर्वा थी लेकिन चला राहुल गांधी ही रहे थे. 2017 में ताजपोशी के बाद यह उनका पहला लोकसभा नेतृत्व था लेकिन हाल पहले से भी बुरा रहा. लेकिन अब राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष नहीं रहने के बाद भी मास लीडर के तौर पर उनकी अहमियत रहेगी.
राहुल गांधी इस बात को भलीभांति समझ रहे हैं कि आज कांग्रेस जिस हालत में है, चेहरा बदले बगैर नरेंद्र मोदी और अमित शाह से मुकाबला नहीं किया जा सकता. वहीं कांग्रेस में कई ऐसे मठाधीश नेता भी हैं जिनके चलते राहुल गांधी अपने फैसलों को पार्टी में लागू नहीं कर पा रहे थे. अब राहुल गांधी परदे के पीछे रहकर कांग्रेस में बने अलग-अलग पावर सेंटर की बेड़ियों को तोड़ने के साथ ही बीजेपी के नैरेटिव को भी तोड़ने का काम करेंगे.
नए कांग्रेस अध्यक्ष के बाद भी उनकी भूमिका में कोई खास फर्क नहीं आएगा लेकिन दोहरा दवाब पॉलिसी के चलते राहुल गांधी न केवल स्टेट पॉलिटिक्स को नियंत्रित कर पाएंगे, साथ ही कांग्रेस की आगामी रणनीति पर भी फोकस कर पाएंगे.