‘फ्री रेवड़ी पॉलिटिक्स’ पर छिड़ी सियासी बहस, केंद्र करे तो सशक्तिकरण और विपक्ष करे तो बात गलत

'सशक्तिकरण’ और ‘रेवड़ी कल्चर’ में सचमुच बहुत बारीक फर्क है और इसे राजनीति के नजरिए से देख कर परिभाषित करना हमेशा जोखिम भरा काम होगा, जिसमें गलती की गुंजाइश रहेगी, 'अतार्किक और रेवड़ी' दोनों को परिभाषित करना कठिन है, कोई चुनावी वादा किसी के लिए रेवड़ी हो सकता है, लेकिन वह किसी को जरूरी राजनीतिक मुद्दा भी महसूस हो सकता है

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Politalks.News/Bharat. देश में इन दिनों चुनावों के दौरान मुफ्त की चीजें बांटने और फ्री सुविधाओं के वादों को लेकर होने वाली ‘ फ्री रेवड़ी पॉलिटिक्स’ को लेकर सियासी बहस छिड़ी हुई है. सियासत में ‘आम आदमी पार्टी’ के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा छेड़ी गई इस बहस कई राजनीतिक दलों के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग भी शामिल हो गए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों इस पर रोक लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का सुझाव दिया था, जिसमें सर्वोच्च अदालत का कहना था कि इसमें केंद्र सरकार के साथ साथ विपक्षी पार्टियों, चुनाव आयोग, नीति आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक और अन्य संस्थाओं के साथ साथ सभी हितधारकों को शामिल किया जाए. हालांकि चुनाव आयोग ने एक हलफनामा देकर अपने को इससे अलग करने को कहा क्योंकि वह एक संवैधानिक निकाय है और वह पार्टियों व दूसरी सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं के साथ किसी समिति में नहीं रह सकती है. यहां निर्वाचन आयोग के सामने सबसे बड़ी समस्या है वो यह कि ‘अतार्किक और रेवड़ी’ दोनों को परिभाषित करना कठिन है. कोई चुनावी वादा किसी के लिए रेवड़ी हो सकता है, लेकिन वह किसी को जरूरी राजनीतिक मुद्दा भी महसूस हो सकता है.

अब चुनाव आयोग इस बात से चिंतित है कि सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई और उसके मीडिया रिपोर्टिंग से यह धारणा बन रही है कि वह इस मामले को रोकने के लिए गंभीर नहीं है. परंतु सवाल है कि चुनाव आयोग गंभीर होकर भी क्या कर सकता है, जबकि इस बात की कोई परिभाषा ही तय नहीं है कि किस चीज को ‘मुफ्त की चीज बांटना’ या ‘रेवड़ी कल्चर’ कहेंगे? भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है इसलिए यहां नागरिकों के हितों की रक्षा करना और उनको बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकारों की जिम्मेदारी होती है. सो, सबसे पहले तो यह तय करना होगा कि बुनियादी सुविधाएं क्या हैं, जिन्हें उपलब्ध कराना है और मुफ्त की सुविधाएं क्या हैं, जिन्हें नहीं उपलब्ध कराना है. केंद्र सरकार के एक मंत्री ने कहा कि ‘सशक्तिकरण’ और ‘रेवड़ी कल्चर’ में बहुत बारीक फर्क है. उनके कहने का मतलब है कि केंद्र सरकार जो सुविधाएं दे रही है वह नागरिकों का ‘सशक्तिकरण’ करना है लेकिन विपक्ष जो सुविधाएं दे रहा है या देने की घोषणा कर रहा है वह ‘रेवड़ी कल्चर’ है.

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इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘सशक्तिकरण’ और ‘रेवड़ी कल्चर’ में सचमुच बहुत बारीक फर्क है और इसे राजनीति के नजरिए से देख कर परिभाषित करना हमेशा जोखिम भरा काम होगा, जिसमें गलती की गुंजाइश रहेगी. मिसाल के तौर पर केंद्र सरकार देश के किसानों को हर महीने पांच सौ रुपए ‘सम्मान निधि’ देती है. इसे साल में तीन किश्तों में दो-दो हजार रुपए के हिसाब से दिया जाता है. यह किसानों को उनके सशक्तिकरण के लिए दिया जाता है. इसी तरह आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में हर वयस्क महिला को एक हजार रुपए महीना देने का वादा किया था, जिसे उनकी राज्य सरकार पूरा कर रही है. अब आप ने यही वादा गुजरात में किया है. अरविंद केजरीवाल यह काम महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए कर रहे हैं. जिस तरह से किसान मुश्किल झेल रहे हैं और हाशिए में हैं वैसे ही महिलाएं भी तमाम बातों के बावजूद वंचित समूह में आती हैं. उनको अगर सशक्त बनाने के लिए नकद दिया जाता है तो वह किसानों को दिए जाने वाले सम्मान निधि से अलग नहीं हो सकता है. दोनों या तो सशक्तिकरण हैं या दोनों रेवड़ी कल्चर का हिस्सा हैं.

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दरअसल, भारत में आजादी के बाद से निःशुल्क या सस्ती कीमत पर राशन उपलब्ध कराने की व्यवस्था रही है. पीने का साफ पानी निःशुल्क उपलब्ध कराना सरकारों की जिम्मेदारी रही है. दशकों से सरकारें सस्ते आवास देती रही हैं. उसी में दिल्ली की आप सरकार ने सात-आठ साल पहले सस्ती या मुफ्त बिजली जोड़ दी. जिसके बाद लगी सियायी होड़ में अब कई राज्य सरकारें एक सौ से लेकर तीन सौ यूनिट तक बिजली फ्री दे रही हैं. आजादी के बाद से ही केंद्र में चाहे जिसकी सरकार रही वह देश के नागरिकों का निःशुल्क टीकाकरण कराती रही है. भारत चेचक से लेकर मलेरिया, हैजा या पोलियो जैसी बीमारियों से मुक्त हुआ है तो उसका कारण निःशुल्क टीकाकरण है. लेकिन केंद्र की मौजूदा सरकार ने कोरोना की वैक्सीन निःशुल्क लगवाई तो उसने मुफ्त में टीका लगवाने का ऐसा प्रचार किया, जिसकी मिसाल नहीं है. इसके लिए पूरे देश से धन्यवाद भी आमंत्रित किया गया, जैसे भाजपा के एक सांसद ने लोकसभा में कहा कि प्रधानमंत्री करोड़ों लोगों को ‘फ्री फंड’ में खाना दे रहे हैं तो उनका धन्यवाद दिया जाना चाहिए. सो, पिछले आठ साल में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद सम्मान निधि, फ्री फंड के खाने या फ्री फंड की वैक्सीन का ज्यादा प्रचार हुआ है. अब खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस ‘फ्री फंड‘ मतलब ‘फ्री रेवड़ी कल्चर‘ के खिलाफ निर्णायक जंग छेड़ी है.

दूसरी तरफ रेवड़ी संस्कृति पर केंद्र सरकार की तरफ से छेड़ी गई बहस पर भारत के निर्वाचन आयोग ने विवेक और संविधान-सम्मत रुख अपनाया है. सुप्रीम कोर्ट से भी ऐसे ही रुख की अपेक्षा थी, लेकिन उसने स्पष्टतः राजनीतिक मकसद से दायर की गई एक याचिका को आधार बना कर इस चर्चा को एक प्रकार की वैधता प्रदान करने की कोशिश की. बहस खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू की और वे इसे लगातार आगे बढ़ा रहे हैं. उनके विदेश मंत्री ने तो इस बहस को श्रीलंका के संकट से जोड़ दिया. एस जयशंकर ने कहा कि श्रीलंका के संकट का यही सबक है कि रेवड़ियां नहीं बांटी जानी चाहिए. बुधवार को प्रधानमंत्री ने राजनीतिक दलों की तरफ से मुफ्त सेवाएं देने का वादा करने की संस्कृति को राष्ट्र हित के खिलाफ बताया. प्रधानमंत्री को ऐसी राय रखने का पूरा हक है, जिसे उन्हें राजनीतिक मुद्दा बनाना चाहिए. उन्हें अपनी पार्टी और उसके नेताओं को प्रेरित करना चाहिए कि वे चुनावों के समय ऐसे कोई वादे ना करें. लेकिन कोई दूसरी पार्टी ऐसा वादा करती है, तो उसे राष्ट्र हित का विरोधी बताना लोकतांत्रिक भावना के विरुद्ध होगा.

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