PoliTalks.News/MP. मध्यप्रदेश में 28 सीटों पर होने वाले विधानसभा उपचुनाव की तैयारियां जोरों शोरों पर है. जहां बीजेपी की मंशा सत्ता बचाने की है तो वहीं कांग्रेस सत्ता वापसी के लिए दमखम लगा रही है. 15 सालों बाद सत्ता के सिंहासन पर बैठे कमलनाथ और कांग्रेस को यह राज केवल 15 महीनों के लिए ही मिल पाया, उसके बाद सब कुछ पलक झपकते ही सपना सा बनकर रह गया. ऐसे में कांग्रेस सत्ता वापसी के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही है. वैसे तो उपचुनाव में हर सीट महत्वपूर्ण है लेकिन बुरहानपुर ज़िले की नेपानगर सीट अपने आप में काफी अहम है.
औद्योगिक क्षेत्र माने जाने इस विधानसभा क्षेत्र में भी कांग्रेस को 15 साल बाद जीत मिली लेकिन सरकार के गिरने के साथ ही यहां समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं. कांग्रेस की विजेता उम्मीदवार इस बार बीजेपी खेमें से चुनावी मैदान में है, वहीं कांग्रेस ने अपने हारे हुए प्रत्याशी को उपचुनाव में उतारा है जिससे कई स्थानीय नेताओं में नाराजगी है. ऐसे में यहां बीजेपी और कांग्रेस दोनों की राह ही मुश्किल दिख रही है.
दरअसल 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जीती सुमित्रा देवी कास्डेकर ने अब कांग्रेस और विधायकी दोनों छोड़ दी. सुमित्रा देवी ने भाजपा का दामन थाम लिया. सिंधिया गुट की सुमित्रा देवी अब बीजेपी के टिकट पर चुनावी मैदान में है. हालांकि इन्होंने तब कांग्रेस का हाथ नहीं छोड़ा जब सिंधिया के जाने के बाद कांग्रेस में भगदड़ मची थी. सुमित्रा देवी कास्डेकर ने कुछ समय बाद त्यागपत्र देकर भाजपा का दामन थामा था. अब कास्डेकर भाजपा के टिकट पर मैदान में हैं तो कांग्रेस ने रामकिशन पटेल को मैदान में उतारा है. रामकिशन पर कांग्रेस पहले भी दांव लगा चुकी है लेकिन उनके साथ कभी सफलता नहीं लगी.
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वैसे अगर नेपानगर विधानसभा पर एक नजर डालें तो यहां भाजपा की स्थिति काफी मजबूत रही है. 1998 से लेकर अब तक 5 आम चुनाव और एक उपचुनाव हो चुके हैं जिसमें 4 में भाजपा को जीत मिली है जबकि कांग्रेस ने के हिस्से दो बार विजयश्री आई है. 1998 और 2003 में ये सामान्य सीट रही जिसमें एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस को जीत मिली. 2008 में यह विधानसभा अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षित कर दी गई थी, तब से यह सीट भाजपा के राजेंद्र दादू और उनकी पुत्री मंजू दादू के ही कब्जे में थी.
इसके पहले लगातार भाजपा के राजेंद्र श्यामलाल दादू और उनकी पुत्री इस सीट से चुनाव जीतती रहीं हैं. राजेंद्र दादू का सड़क हादसे में निधन के बाद मंजू राजेंद्र दादू ने उपचुनाव लड़ा था और भारी बहुमत से जीत हासिल की थी. इस दौरान उन्हें पिता के निधन की सहानुभूति का लाभ मिला था. 15 साल बाद 20018 में कांग्रेस ने इस सीट को भाजपा से छीन लिया. उस समय कांग्रेस की सुमित्रा देवी कास्डेकर ने मंजू दादू को 1264 वोटों के नजदीकी अंतर से शिकस्त दे दी.
2018 में कांग्रेस की सुमित्रा देवी कास्डेकर ने मंजू दादू को 1264 वोटों के नजदीकी अंतर से शिकस्त दे दी. इसके पहले राजेंद्र दादू के हादसे में निधन के बाद हुए उपचुनाव में मंजू दादू ने भारी बहुमत से जीती थी लेकिन आम चुनाव में मंजू दादू हार गईं. अब कास्डेकर और मंजू दादू दोनों भाजपा में हैं. ऐसे में समीकरण भी बदल गए हैं. कास्डेकर और भाजपा के लिए यह महत्वपूर्ण होगा कि मंजू दादू यहां पार्टी प्रत्याशी के लिए कितने मन से प्रचार में जुटती हैं. मंजू आदिवासी कोरकू समाज की हैं और इस क्षेत्र में 70 हजार आदिवासी वोटर हैं.
हालांकि मंजू दादू ने ही कास्डेकर के भाजपा में आने का स्वागत किया था लेकिन ये वही मंजू दादू हैं जिन्होंने कास्डेकर के विधायक रहते हुए उनके पीए पर नकली नोटों के रैकेट में शामिल होने का आरोप लगाया था. मामला अभी भी उज्जैन हाईकोर्ट में चल रहा है. वहीं कांग्रेस प्रत्याशी रामकिशन पटेल तीसरी बार यहां से दांव आजमा रहे हैं लेकिन वो कभी यहां से जीत हासिल नहीं कर सके हैं. टिकट मिलने के बाद उन्हें कांग्रेस में टिकट के दावेदारों के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है. रामकिशन पटेल के लिए पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री अरुण यादव भी जुटेंगे क्योंकि ये अरुण यादव के पूर्व संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है.
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जैसाकि पहले भी बताया गया है, नेपानगर औद्योगिक क्षेत्र के रूप में अपनी पहचान रखता रहा है. एशिया की पहली और सबसे बड़ी पेपर मिल यही हैं लेकिन फिलहाल बंद है जिसके चलते यहां के लोग कमाने के लिए बाहर का रुख कर रहे हैं. ऐसे में प्रत्याशियों को रोजगार और पलायन के मुद्दे पर जनता के सवालों का सामना करना पड़ेगा. रामकिशन पटेल यहां से दो बार के हारे हुए उम्मीदवार हैं जिनसे कांग्रेस को उम्मीदें तो काफी हैं लेकिन दो हार के बाद उनके चेहरे पर वो आत्मविश्वास नहीं है. इधर, कांग्रेस के जीते हुए विधायक जो अब बीजेपी के घुंघरू बांध चुनावों में उतरे हैं, उनके प्रति जनता में नाराजगी जग जाहिर है. कई उम्मीदवार तो डर के मारे अपने विधानसभा क्षेत्रों में तक नहीं गए हैं.
इसके दूसरी ओर, बीजेपी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को सभी कांग्रेस के बागी विधायकों को टिकट देने का वायदा किया था, जो निभाया भी है लेकिन पिछले सर्वे की कुछ रिपोर्ट्स् ने बीजेपी की नींदें उड़ा रखी हैं. बसपा के भी मैदान में होने से मुकाबला त्रिकोणीय बन रहा है जिससे बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस को मुश्किलें हो रही हैं. ऐसे में किसी भी उम्मीदवार के लिए फिर वो चाहें बीजेपी या कांग्रेस या बसपा का हो, इस औद्योगिक सीट से जीत दर्ज कर पाना नाकों चने चबाने जैसा साबित होने वाला है.