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बिहार में बीजेपी, जेडीयू और एलजेपी यानी एनडीए ने बीते शनिवार को 40 में से 39 उम्मीदवारों की सूची जारी की. कुछ सीटों पर मौजूदा सांसदों पर भरोसा जताया गया है, तो कुछ पर पर नए उम्मीदवारों को मौका दिया गया है. इस बार बिहार एनडीए के लिए काफी अहम राज्य है, क्योंकि बीजेपी को उत्तर प्रदेश में एसपी, बीएसपी और आरएलडी के बीच महागठबंधन होने के बाद यह आशंका सताने लगी है कि पिछली बार जैसा प्रदर्शन नहीं कर पाएगी.

बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से बीजेपी ने 71 पर फतह हासिल की थी. बीजेपी को भी अंदरखाने यह लग रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश में लड़ाई कांटे की है. ऐसी सूरत में इस नुकसान की भरपाई बिहार से की जा सकती है. यही वजह भी थी कि 2014 में 22 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने जेडीयू को गठबंधन में रखने की खातिर अपनी जीती हुई पांच सीटें कुर्बान कर दीं. महज दो सीटें जीतने वाले जेडीयू को 17 और एलजेपी को छह सीटें देनी पड़ीं.

जैसे-तैसे गठबंधन बचाने में सफल हुए बीजेपी, जेडीयू और एलजेपी उम्मीदवारों की घोषणा में चूक गए हैं. आपसी खींचतान की वजह से कई अहम सीटों पर कमजोर प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं. दरअसल, बिहार में चुनावी जीत केवल पार्टी की लोकप्रियता और उसके चुनाव चिन्ह से तय नहीं होती है. उम्मीदवार की अपनी छवि और जातिगत समीकरण भी इसमें अहम किरदार निभाते हैं. राजनीति के जानकारों की मानें, तो एनडीए इस मोर्चे पर कहीं न कहीं चूक गया है और इसका खामियाजा उसे सीट खोकर चुकाना पड़ सकता है.

नीतीश कुमार ने दरभंगा सीट बीजेपी को सौंप कर अपने विश्वस्त सिपाहसालार संजय झा को दरकिनार कर दिया है, जबकि उनकी क्षेत्र अच्छी पकड़ी थी. वही, सीतामढ़ी से जेडीयू ने वरुण कुमार को उम्मीदवार बनाया है. इसको लेकर स्थानीय नेता विनोद बिहारी के समर्थकों ने नीतीश कुमार पर पैसे लेकर टिकट बांटने का आरोप लगाया है. विनोद बिहार के समर्थकों का कहना है कि वरुण कुमार बाहरी हैं जबकि विनोद बिहारी स्थानीय नेता हैं, मगर उन्हें टिकट नहीं दिया गया. इससे पार्टी को नुकसान होगा.

इसी तरह बांका लोकसभा सीट से जेडीयू ने गिरधारी यादव को टिकट दिया है, जिनके बारे में कहा जाता है कि जमीनी स्तर पर उनका पकड़ कमजोर है. सूत्र बताते हैं कि इस सीट से दिवंगत नेता दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल कुमारी निर्दलीय चुनाव लड़ सकती हैं. ऐसा होता है कि इस सीट पर जेडीयू की जीत मुश्किल होगी.

इसी तरह एलजेपी ने नवादा सीट से इस बार चंदन कुमार को टिकट दिया है. चंदन के बारे में तो ज्यादातर स्थानीय लोगों को पता ही नहीं था कि आखिरी वे हैं कौन. बाद में पता चला कि वे एलजेपी के बाहुबली नेता सुरजभान सिंह के भाई हैं. चंदन न तो नवादा के रहने वाले हैँ और न ही पहले यहां सक्रिय रहे हैं. बता दें कि नवादा सीट पर पिछले चुनाव में गिरिराज सिंह ने जीत दर्ज की थी, लेकिन इस बार उन्हें बेगूसराय से मैदान में उतारा गया है.

नवादा में इस बार जोरदार मुकाबला देखने को मिल सकता है, क्योंकि आरजेडी ने यहां से राजवल्लभ यादव की पत्नी विभा देवी को मैदान में उतारा है जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में जहानाबाद सीट से जीत दर्ज करने वाले अरुण कुमार ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है. यदि मुकाबला त्रिकोणीय होती हो तो सबसे ज्यादा दिक्कत एलजेपी के चंदन कुमार को ही होगी.

भागलपुर सीट जेडीयू के मिलने पर भी सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि यहां ज्यादा जनाधार बीजेपी का है. यहां से सैयद शाहनवाज हुसैन ने कई बार जीत दर्ज की है. हालांकि 2014 के चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले के चलते आरजेडी उम्मीदवार बुलू मंडल ने बाजी मार ली थी, लेकिन हार का अंतर बहुत कम था. इस बार मुकाबला आमने-सामने का है पर सवाल ये है कि बीजेपी के वोटर जेडीयू को वोट देंगे कि नहीं. यदि ऐसा नहीं हुआ तो जेडीयू उम्मीदवार अजय मंडल के लिए जीत आसान नहीं होगी, क्योंकि मल्लाहों का वोट आरजेडी और जेडीयू में बंटेगा जबकि यादव और मुस्लिमों का वोट आरजेडी की झोली जाएगा.

राम विलास पासवान की परंपरागत सीट हाजीपुर में भी समीकरण गड़बड़ा गए हैं. यह सीट एलजेपी को मिली है, लेकिन इस बार पासवान मैदान में नहीं हैं. उनकी जगह पार्टी के वरिष्ठ नेता पशुपति कुमार पारस को टिकट दिया गया है. पारस अलौली से कई बार विधायक रह चुके हैं, लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में उनकी हार हुई. बाद में जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन से नाता तोड़ कर एनडीए के साथ सरकार बनाई, तो पारस को एमएलसी बना पशुपालन विभाग दे दिया गया. हाजीपुर के जमीनी स्तर के नेताओं का कहना है कि राम विलास पासवान को लेकर यहां की पिछड़ी जातियों में जो क्रेज था, वह पशुपति कुमार पारस को लेकर नहीं है, इसलिए पार्टी को नुकसान भी हो सकता है.

ऐसे ही और भी कई सीटें हैं, जिनको लेकर राजनीतिक पंडित मान रहे हैं कि एनडीए ने गलत चाल चल दी है और इसकी कीमत हार के रूप में चुकानी पड़ सकती है. अब देखना ये है कि वोटर किस उम्मीदवार पर भरोसा जताते हैं और किसके बोरी-बिस्तर बांधते हैं.

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