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लोकसभा चुनाव में मोदी की आंधी में वैसे तो समूचा विपक्ष ही उड़ गया, लेकिन सबसे ज्यादा खराब प्रदर्शन लेफ्ट पार्टियों का रहा. 1952 के बाद से ये पहली बार हुआ है कि लेफ्ट दो अंकों तक भी नहीं पहुंच सका. इस बार महज 5 सीटें हासिल करने वाली वामपंथी पार्टियों के लिए यह सबसे शर्मनाक है कि किसी ज़माने में लेफ्ट का गढ़ माने जाने वाले पश्चिम बंगाल में उसका सूपड़ा साफ हो गया.

लगातार 34 सालों तक पश्चिम बंगाल पर राज करने वाले लेफ्ट को 2014 के लोकसभा चुनाव में केवल 2 सीटों से संतोष करना पड़ा था, लेकिन इस बार तो ये सीटें भी उसके हाथों से चली गईं. इससे भी शर्मनाक यह है कि सूबे की ज्यादातर सीटों पर लेफ्ट के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले लेफ्ट के वोटिंग प्रतिशत में भी जबरदस्त गिरावट आई है. 2014 के चुनाव में वामपंथी पार्टियों को 23 फीसदी वोट मिले थे जो इस बार घटकर 7 फीसदी रह गया है.

पश्चिम बंगाल में सत्ता से बेदखल होने के बाद लेफ्ट के पास केरल ही एकमात्र राज्य बचा है, जहां वह सत्ता में है. यहां लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी एलडीएफ की सरकार है. बावजूद इसके यहां वाम दलों का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. लेफ्ट को इस बार के लोकसभा चुनाव में महज एक सीट पर जीत नसीब हुई है. वाम दलों के लिए खुद के खराब प्रदर्शन के अलावा चिंता की एक बात यह भी है कि केरल में बीजेपी ने पांव जमाना शुरू दिया है.

गौरतलब है कि इस लोकसभा चुनाव से पहले केरल में मुख्य मुकाबला एलडीएफ और युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी यूडीएफ के बीच होता था, लेकिन इस बार तीसरी ताकत के तौर बीजेपी मजबूती से उभरी है. हैरानी की बात यह है कि बीजेपी ने यूडीएफ की बजाय एलडीएफ के वोट बैंक में सेंध लगाई है. यानी केरल में लेफ्ट की जमीन खिसक चुकी है. लेफ्ट की थोड़ी बहुत इज्जत तमिलनाडु में बची है. यहां सीपीआई और सीपीएम को दो-दो सीटें मिली हैं.

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लोकसभा चुनाव में लेफ्ट के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद यह कहा जाने लगा है कि देश से वामपंथ खत्म होने की ओर बढ़ रहा है. हालांकि वाम दलों के नेता यह मानने को तैयार नहीं हैं. लेफ्ट के नेता कह रहे हैं कि हम कभी भी सत्ता पाने के लिए चुनाव नहीं लड़ते. इस बार भी हमारी कोशिश बीजेपी को रोकना था और इसके लिए हमने कांग्रेस और तमाम विपक्षी ताकतों का समर्थन किया. लेफ्ट ने अपने महज सौ उम्मीदवार उतारे. इनमें से पांच को जीत मिली.

लेफ्ट के नेताओं का कहना है कि जब देश में सांप्रदायिक सोच और मानसिकता का इतने बड़े पैमाने पर विस्तार हुआ हो और सुनियोजित तरीके से मोदी की इस कथित आंधी की तैयारी की गई हो, तो ऐसे में हम 5 सीटें पा गए तो कम नहीं है. कम से कम संसद में अपनी बात रखने के लिए हमारा नुमाइंदा तो है. वरना बीजेपी का बस चले तो देश में एकदलीय व्यवस्था लागू हो जाए और निरंकुशता अपने चरम पर पहुंच जाए.

वाम नेताओं के उलट दक्षिणपंथी चिंतकों का कहना है कि भारत में वामपंथ पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुका है. इनका मानना है कि जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाने से लेकर रोहित वेमुला की मौत पर राजनीतिक रोटियां सेंकने, याकूब की फांसी पर अनर्गल विलाप करने, मालदा पर चुप्पी साधने, बीफ पार्टियां करने, कश्मीर की आजादी के नारों का समर्थन करने तक ऐसी तमाम हरकतें इस बात की बानगी हैं कि वामपंथ अब आत्मघाती राह पर है.

दक्षिणपंथी चिंतकों का मानना है कि वामपंथी संगठनों की ओर से अनर्गल मुद्दे उठाना यह साबित करता है कि उनके पास रचनात्मक मुद्दों की कमी हो गई है या वह कम मेहनत पर ज्यादा फसल काटना चाहते हैं. कई वामपंथी नेता इस बात को भी मानते हैं कि वाम दलों के भीतर आजकल ऐसे ​मुद्दों को तरजीह मिलने लगी है जो सुर्खियां बटोरती हों. यदि ऐसा नहीं होता तो वाम दल मोदी के पिछले कार्यकाल के दौरान कॉरपोरेट जगत को भारी सब्सिडी, किसानों की सब्सिडी में कटौती, बैंकों के लाखों करोड़ रुपये एनपीए और श्रम सुधार कानूनों पर नेता मौन नहीं साधते.

फिलहाल हकीकत यह है कि लोकसभा चुनाव के बाद देश की चुनावी राजनीति में वामपंथ के सिर्फ नामोनिशान ही बचे हैं. यदि वामदलों ने इस करारी हार पर मंथन नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब संसद में वाम दलों का एक भी नुमाइंदा नहीं बचेगा.

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