Politalks.News/Delhi. अगर गहराई से देखा जाए तो बात में गहराई नजर आती है कि अगर कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार में नहीं रहा तो पार्टी जीवित नहीं रहेगी. इसका एक ट्रेलर तो सोमवार को हुई सीड्ब्ल्यूसी की बैठक में दिख ही गया जहां नेतृत्व परिवर्तन करने की मांग पर आधी कांग्रेस पार्टी के नेता भड़क उठे. एक तरफ जहां सोनिया गांधी अंदर मिटिंग ले रही थीं, वहीं उनके निवास स्थान के बाद गांधी परिवार के समर्थन में ‘गांधी के अलावा कोई मंजूर नहीं’ जैसी नारेबाजी हो रही थी. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का एक धड़ा अभी भी यही मानता है कि केंद्रीय नेतृत्व की बागड़ौर अगर गांधी परिवार के पास नहीं रही तो पार्टी बिखर जाएगी, ऐसा पूर्व में भी तीन बार हो चुका है.
गांधी-नेहरू परिवार के सदस्य और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अनिल शास्त्री ने भी इस बात का समर्थन किया है. पूर्व प्रधानमंत्री स्व.लाल बहादुर शास्त्री के छोटे सुपुत्र अनिल शास्त्री ने कहा कि कांग्रेस का नेतृत्व अगर गांधी परिवार के हाथ में नहीं रहेगा तो पार्टी जीवित नहीं रहेगी. पार्टी को बचाये रखने के लिए अध्यक्ष गांधी परिवार में से ही होना चाहिए. अनिल शास्त्री ने ये भी कहा कि अगर सोनिया अध्यक्ष नहीं रहना चाहती है तो राहुल या प्रियंका गांधी को अध्यक्ष होना चाहिए.
अनिल शास्त्री ने केंद्रीय नेतृत्व में गांधी परिवार के होने का समर्थन करने के साथ ही पार्टी की कार्यशैली पर सवाल भी उठाया. पार्टी की आपसी कलह पर अनिल शास्त्री ने कहा कि पार्टी के वरिष्ठ नेता जैसे सोनिया गांधी और राहुल गांधी पार्टी नेताओं से मिलना शुरू कर दें तो आधी समस्याएं वैसे ही हल हो जाएंगी. पार्टी के वरिष्ठ सदस्य अनिल शास्त्री की बातों में पूर्णतय गहराई है. शास्त्री का ये कहना ‘कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में कुछ चीजों की कमी है. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पार्टी के नेताओं के बीच बैठकें नहीं होती हैं. अगर राज्यों के पार्टी नेता दिल्ली आते हैं तो उनके लिए वरिष्ठ नेताओं से मिलना आसान नहीं है.’ अपने आप में ही काफी कुछ कहता है. सीधे सीधे ये पार्टी की कार्यशैली पर कटाक्ष किया गया है.
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कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में इस बात को लेकर जमकर घमासान हुआ था कि 23 वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पार्टी में हर स्तर पर बदलाव की आवश्यकता लेकर पत्र लिखा. इस पर राहुल—प्रियंका से लेकर कुमारी शैलेजा, अमरिंदर सिंह और पूर्व पीएम डॉ.मनमोहन सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं ने आपत्ति जताई थी. पत्र लिखने वालों में कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद भी शामिल थे जिन्होंने 30 साल से अधिक समय पार्टी के नाम किया है. इस समय पार्टी में टूट की जबरदस्त आंधी चल रही है, इस बात में शक नहीं होना चाहिए. युवा नेतृत्व पार्टी के हाथों से खिसकता जा रहा है.
मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे राष्ट्रीय नेता कांग्रेस की कार्यशैली से दुखी होकर बीजेपी में चला गया और जाते जाते सरकार भी गिरा गया. एमपी में जीतू पटवारी, दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के खेमे पहले से बने हुए हैं. राज्यसभा चुनावों में भूपेंद्र सिंह हुड्डा पहले ही अपने तेवर दिखा चुके हैं. इधर, राजस्थान में सचिन पायलट ने हाल में जो तेवर दिखाए थे, उससे पार्टी की फूट पूरी तरह सामने आ चुकी है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राहुल गांधी इस्तीफा देने के बाद से इस तरह की गतिविधियों से पूरी तरह गायब रहे हैं और अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से समय नहीं दे पाती. इस मौके पर जो खेमा बिना नेतृत्व की पार्टी में अपनी रोटियां सेंक सकता था, सेंकता रहा.
बीजेपी ने भी इस मौके का बखूबी फायदा उठाया और कर्नाटक, गोवा के साथ मध्य प्रदेश में सरकार बदल अपना सिक्का फिर से जमा लिया. यहां तक की कांग्रेस को एक एक सीट के लिए तरसना पड़ा. ऐसे में गांधी नेतृत्व ही इस पार्टी को एकजुट रख सकता है.
हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है कि पार्टी में कलह, विरोध और टूट हुई है. इससे पहले 1969 में इंदिरा गांधी ने पार्टी में बगावत की थी. 1969 में इंदिरा ने राष्ट्रपति पद के निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरी को जिताने के लिए पार्टी के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हरवा दिया था. तब इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाला गया था. वो पार्टी की पहली टूट रही. 1977 में भी जब इमरजेंसी के बाद पार्टी हारी, तब के ब्रह्मानंद रेड्डी और वायबी चव्हाण ने इंदिरा के खिलाफ आक्रोश व्यक्त किया था. तब भी पार्टी टूटी और वजह इंदिरा ही बनी थी.
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1987 में राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री और बाद में रक्षा मंत्री रहे वीपी सिंह ने ही बगावत की झंडाबरदारी की. जन मोर्चा बनाया और अन्य पार्टियों के साथ मिलकर 1989 में सरकार भी बनाई. 1990 के दशक में एनडी तिवारी और अर्जुन सिंह ने बगावत की, लेकिन तब उनके निशाने पर प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव थे. उन्होंने अलग पार्टी बना ली और नुकसान कांग्रेस को हुआ. 1997 में भी पार्टी कई गुटों में बंट गई थी. उस समय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मरने के बाद गैर गांधी सीताराम केसरी को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया.
उस समय माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, ममता बनर्जी, जीके मूपनार, पी.चिदंबरम और जयंती नटराजन जैसे वरिष्ठ नेताओं ने केसरी के खिलाफ विद्रोह किया था. तब कहा जाने लगा था कि कोई गांधी परिवार का सदस्य ही इसे एकजुट रख सकता है. इसके लिए 1998 में सीताराम केसरी को उठाकर बाहर फेंका और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के कहने पर सोनिया गांधी को पहली बार पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया. लेकिन उस वक्त शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने विदेशी मूल की सोनिया को अध्यक्ष बनाए जाने का विरोध किया तो पार्टी से उन्हें निकाल दिया गया. तीनों नेताओं ने राष्ट्रवादी कांग्रेस बनाई और महाराष्ट्र की स्थानीय पार्टी बन गई. हालांकि शरद पवार जेसे नेता के जाने से नुकसान कांग्रेस को ही हुआ.
साल 2000 में जब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव हुए तो यूपी के दिग्गज नेता जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया को चुनौती दी. उन्हें गद्दार तक कहा गया लेकिन उन्हें 12,000 में से एक हजार वोट भी नहीं मिल सके. वजह फिर वही रही, वरिष्ठ नेताओं को लगता था कि अगर फिर कोई गैर गांधी पार्टी का सर्वेसर्वा बना तो लड़खड़ाती पार्टी बिखर जाएगी. इसके बाद का परिणाम सभी जानते हैं. सोनिया 1998 से 2017 तक लगातार 19 साल पार्टी की अध्यक्ष रहीं, जो पार्टी के इतिहास में अब तक का रिकॉर्ड है. इस दौरान पार्टी लगातार दो बार (2004-2014) तक केंद्र की सत्ता में रही. 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद से ही अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी के पास ही पार्टी की जिम्मेदारी है.
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अब पार्टी की जिम्मेदारी गांधी परिवार के सदस्य के तौर पर राहुल गांधी या प्रियंका गांधी को संभालनी है. अभी राहुल जिम्मेदारी निर्वाह करने से साफ मना कर रहे हैं और प्रियंका यूपी में बिजी हैं. ऐसे में अगले 6 महीनों तक सोनिया गांधी के पास ही पार्टी की बागड़ौर है. सोनिया का विश्वास हमेशा वरिष्ठ और पार्टी भक्त नेताओं पर रहा है फिर हरियाणा में कुमारी शैलेजा हो, मध्य प्रदेश में कमलनाथ, पंजाब में अमरिंदर सिंह या राजस्थान में अशोक गहलोत. राहुल गांधी की टीम में अधिकांश युवा नेता ही रहे लेकिन अब उनकी टीम या तो जा चुकी है या फिर पूरी तरह शांत हो चुकी है. उनकी टीम केवल राहुल गांधी के नेतृत्व संभालने का इंतजार कर रही है.
अगर राजनीतिक जानकारों की बात मानी जाए तो कांग्रेस कभी गांधीमुक्त हो पाएगी, इसके अवसर काफी कम हैं. राजनीतिक विशेषज्ञ तो यहां तक मानते हैं कि अगले 6 महीनों में अगर कांग्रेस अध्यक्ष के लिए वोटिंग भी हुई तो भी राहुल गांधी की ताजपोशी होना तय है. हालांकि चिट्ठी लिखने वाले नेताओं ने ‘फुल टाइम लीडरशिप’ की मांग की थी, जो ‘फील्ड में एक्टिव रहे और उसका असर भी दिखे’. मतलब साफ है कि कुछ नेताओं की पार्टी को कवरप करने की कोशिश है लेकिन उनकी ये कोशिश सफल नहीं हो पाएगी और अगर गलती से हो भी गई तो उनका हाल सीताराम केसरी जैसा ही होगा.