Politalks.News/Uttarpradesh. देश की राजनीति में फिलहाल नेहरु-गांधी परिवार के दो चिराग हैं और दोनों के रास्ते अभी तक तो अलग-अलग ही हैं लेकिन छोटे चिराग ने जिस तरह से अपनी ही पार्टी में बगावती तेवर अपना रखे हैं, उसे देखकर राजनीति के पंडित भी ये ही कयास लगा रहे हैं कि दोराहा जहां खत्म होता है, वहीं से नए सफर की शुरुआत होती है. तो सवाल उठ रहा है कि उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से बीजेपी के फायर ब्रांड सांसद वरुण गांधी क्या अपने पुरखों की पार्टी यानी कांग्रेस का हाथ थामने का मन बना चुके हैं? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर वे यूपी से लेकर केंद्र में काबिज़ अपनी ही सरकार के ख़िलाफ इतने जहरीले बोल क्यों बोल रहे हैं? यूपी के विधानसभा चुनाव से पहले वे दबाव की सियासत खेल रहे हैं या फिर वे चाहते हैं कि पार्टी नेतृत्व को इतना मजबूर कर दिया जाए कि वो खुद ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दे? इस तरह के सवालों ने लखनऊ से लेकर दिल्ली के सियासी गलियारों को गरमा तो रखा है लेकिन इसका माकूल जवाब सिवाय वरुण गांधी के बीजेपी के किसी भी नेता के पास नहीं है. लेकिन हैरानी की बात ये है कि बगावत के तमाम सुरों को सुनने के बाद भी पार्टी आलाकमान ने कुछ वैसी ही खामोशी ओढ़ रखी है, जो समंदर में तूफान आने से पहले होती है.
भाजपा से बढ़ रही है दूरी, किए जा रहे नजरअंदाज !
भाजपा सांसद वरुण गांधी और पार्टी के के बीच दूरी बढ़ने लगी है. पूर्व में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहे वरुण बीते काफी समय से पार्टी में नजरअंदाज किए जा रहे थे. उनको न तो संगठन में ही महत्वपूर्ण जगह मिल पा रही थी, न ही केंद्र सरकार में कोई जगह मिली थी. अब लखीमपुर खीरी की घटना के साथ भाजपा की नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी का गठन वरुण की नाराजगी क्या बड़ा कारण बनी है. नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में वरुण गांधी और मेनका गांधी दोनों को नहीं रखा गया है. इसके पहले दोनों ही नेता इसमें शामिल थे.
आखिर कब तक इंतजार करें वरुण ..!
दरअसल वरुण गांधी भाजपा में लंबी पारी खेल चुके हैं इसके बाद भी उनके हाथ खाली हैं. वरुण ने 27 साल की उम्र में लोकसभा सांसद का चुनाव जीत लिया था. वरुण जब 33 साल के थे, तब भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव थे और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य के प्रभारी थे. उस समय उत्तर प्रदेश की 80 में से सिर्फ 10 सीटों पर भाजपा जीती थी. तब यह माना जा रहा था कि भाजपा में वे बहुत ऊंचाई पर जाएंगे. तब से वरुण तीन बार लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं लेकिन उनको मंत्री नहीं बनाया गया और 2019 में उनकी मां को भी मंत्रिमंडल से हटा दिया गया. पार्टी में भी उनके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है और अब राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी उनको हटा दिया गया है.
भाजपा से हैं मुखर, लेकिन आसान नहीं होगा साथ छोड़ना….!
देश में किसान आंदोलन को शुरू हुए तकरीबन 10 महीने हो चुके हैं और इस दौरान अनेकों बार वरुण गांधी ने अपनी पार्टी लाइन से अलग हटकर किसानों का साथ दिया है. उनके हक में अपनी आवाज उठाई है और आज भी वे इससे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. हालांकि इसके लिए उन्होंने मुख्य मीडिया की बजाय सोशल मीडिया को ही अपना प्लेटफार्म बना रखा है. शायद इसलिए कि वहां कम वक़्त में ही बेहद आसानी से अपनी बात को बहुत दूर तक पहुंचाया जा सकता है. जाहिर है कि जितना मुखर होकर वे अपनी बात कह रहे हैं, उससे पार्टी का शायद ही कोई नेता सहमत हो और वे भी इस सच्चाई को बखूबी जानते ही होंगे. फिर भी बेख़ौफ होकर इतना जिगरा दिखाने के आखिर क्या सियासी मायने हैं. ये उन सियासी हकीमों की समझ से भी बाहर है, जो सियासत की नब्ज देखकर ही मर्ज का इलाज बताने में माहिर समझे जाते हैं. इसकी वजह भी है क्योंकि उनकी सांसदी में अभी ढाई साल से ज्यादा वक्त बचा है. लिहाजा, यदि वो बीजेपी से इस्तीफा देकर कांग्रेस का दामन थामें और विधायक बनने के लिए यूपी में चुनाव लड़ें, तो यह तो खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही होगा. उनकी बगावत का पानी नाक तक आते-आते अगर पार्टी ही उन्हें बर्खास्त कर देती है, तब भी वरुण अभी तक तो इतने ताकतवर नेता नहीं बन सके हैं कि वे अपने बूते पर यूपी में बीजेपी की नैया डुबो सकें.
यह भी पढ़ें- चुनाव से पहले वरुण के बागी तेवर, ट्वीटर बायो से हटाया भाजपा, योगी को पत्र लिख की CBI जांच की मांग
भाजपा का गांधी परिवार को पहले ही मिल रहे थे संकेत!
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि पहला संकेत मिलते ही अगर मां-बेटे ने अलग रास्ता चुना होता तो सफलता की ज्यादा संभावना थी. भाजपा की ओर से पहला संकेत महामंत्री पद से हटाना था. दूसरा संकेत मेनका गांधी को मंत्रिमंडल से हटाना था. तीसरा संकेत वरुण को मंत्री नहीं बनाना था और अब चौथा संकेत राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाना है. असल में मेनका और वरुण गांधी उस गांधी-नेहरू परिवार की विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसको विलेन बना कर भाजपा को राजनीति करनी है. इस बात को समझ कर वरुण को आगे का रास्ता तय करना है. कहा जा रहा है कि वे अकेले यात्रा पर निकलेंगे, किसानों की बात करेंगे, लेकिन पार्टी नहीं छोड़ेंगे क्योंकि पार्टी छोड़ने पर लोकसभा सीट छोड़नी होगी. बिना पार्टी छोड़े और उपचुनाव जीते उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं बचेगी. एक तरह से वरुण गांधी को वीपी सिंह या हेमवती नंदन बहुगुणा जैसी मिसाल कायम करनी होगी.
वरुण के अगले कदम पर सभी की नजरें!
अब भाजपा सांसद वरुण गांधी की आगे की राजनीति पर सबकी नजर है. वरुण और उनकी मां मेनका गांधी को तय करना है कि वे भाजपा में हाशिए में रह कर राजनीति करेंगे या अलग रास्ता बनाएंगे! भाजपा के ‘गांधी परिवार’ के करीबी लोग इन्हें अलग रास्ता बनाने की सलाह दे रहे हैं. लेकिन वे भी कंफ्यूज हैं कि अलग रास्ता क्या हो? मेनका और वरुण अपनी पार्टी बनाएं या बिना पार्टी के राजनीति करें या कांग्रेस पार्टी में शामिल हों? ये तीन विकल्प बताए जा रहे हैं. इन दोनों ने जिस तरह की राजनीति की है उसमें किसी प्रादेशिक पार्टी से जुड़ना उनके लिए आसान नहीं होगा. लेकिन मुश्किल यह है कि वे पहल करने के कई मौके गंवा चुके हैं. अब अगर वे अलग रास्ता पकड़ते हैं तो सीधा संदेश यह होगा कि भाजपा ने या नरेंद्र मोदी ने कुछ नहीं दिया इसलिए उन्होंने रास्ता बदला है. राजनीति में सफलता तब मिलती है, जब पहल आपके हाथ में हो. आप प्रतिक्रिया न दें, बल्कि एजेंडा तय करें.
यह भी पढ़ें- गांधी जयंती पर ट्रेंड हुआ गोडसे जिंदाबाद तो भड़के वरुण गांधी ने लताड़ा- गैरजिम्मेदार कर रहे शर्मसार
सोनिया-राहुल की वजह से घटा कद!
यह सवाल जो सियासी गलियारों में गूंज रहा है. आपको जरूर हैरान कर सकता है कि सोनिया-राहुल की वजह से मेनका-वरुण को क्या नुकसान पहुंच सकता है. लेकिन राजनीति के जानकार भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मां-बेटे को जगह नहीं मिलने का यही मतलब निकाल रहे हैं कि जैसे-जैसे सोनिया-राहुल कमजोर पड़ रहे हैं भाजपा में मेनका-वरुण की अहमियत भी कम हो गई है. सियासी जानकारों का एक मत ये भी है.
क्या वरुण गांधी कांग्रेस में जाने की तैयारी कर रहे हैं ?
इधर भाजपा सूत्र वरुण गांधी के अगले कदम को लेकर कई तरह की बातें कर रहे हैं. बीजेपी में इन सूत्रों का कहना है कि, ‘लगता है कि मां-बेटे कांग्रेस में जाने की तैयारी कर रहे हैं’. इस सूत्र ने तो भारी मन से यहां तक संभावना जताई कि, ‘हो सकता है कि उन्हें कांग्रेस से मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश करने की बात हो रही हो‘.
प्रियंका करवाएंगी कांग्रेस में एंट्री ?
कांग्रेस ‘परिवार’ के तीनों प्रमुख सदस्यों में वरुण गांधी को प्रियंका गांधी का सबसे करीबी माना जाता है. उनका रवैया उनके प्रति पहले से नरम बताया जाता है. लेकिन, सवाल है कि अकेले प्रियंका के प्रभाव से उनकी उस घर में वापसी हो सकती है, जिससे कभी उनकी मां को वंचित रखा गया था. अगर ऐसा होता है तो यह भारतीय राजनीति का एक दिलचस्प मोड़ हो सकता है. लेकिन, इसमें कई सवाल हैं. क्या प्रियंका और वरुण मिलकर भी सोनिया और मेनका की दशकों पुरानी अदावत दूर कर सकते हैं? यही नहीं, जिस सोनिया पर राहुल गांधी को चेहरा प्रोजेक्ट करने के लिए कांग्रेस को कमजोर करने के आरोप पार्टी के भीतर के लोग ही लगाते रहे हैं, वह घर में ही एक तेज-तर्रार राजनेता को स्वीकार करने के लिए तैयार होंगी? कहा जाता है कि राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं है! लेकिन, क्या इतना बड़ा बदलाव भी हो सकता है, यह बहुत बड़ा सवाल है?