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केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के कश्मीर दौरे का आज दूसरा और आखिरी दिन है. वे राजनीतिक दलों के नेताओं, नागरिक समाज के प्रतिनिधियों और पंचायत के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर रहे हैं. गृहमंत्री की घाटी यात्रा के दौरान इस तरह की मुलाकातें हर बार होती हैं, लेकिन एक बात है जो पहली बार हो रही है. गृहमंत्री कश्मीर के दौरे पर हैं और यहां का जनजीवन पूरी तरह से सामान्य है. न तो सैयद अली शाह गिलानी और मिरवाइज अमर फारूक के नेतृत्व वाली हुर्रियत कांफ्रेस की ओर से बंद का आह्वान किया गया है और न ही किसी दूसरे अलगाववादी संगठन की ओर से.

तीन दशक में पहली बार ऐसा हुआ है जब अलगाववादियों ने घाटी में गृहमंत्री की यात्रा के दौरान बंद नहीं बुलाया. बंद तो दूर किसी अलगाववादी नेता ने अमित शाह के दौरे के खिलाफ कोई बयान तक नहीं दिया. अलगाववादियों के रुख में आए इस बदलाव को राजनीति के जानकार अमित शाह के गृहमंत्री बनने का असर मान रहे हैं. कहा जा रहा है कि शाह की जिस तरह की सख्त छवि है, उसे देखते हुए अलगाववादी उनसे कोई अदावत मोल लेना नहीं चाहते. यदि वाकई में ऐसा है तो घाटी के हालात पर इसका दूरगामी असर देखने को मिल सकता है.

जिस समय मोदी के मंत्रिमंडल में अमित शाह को गृह मंत्रालय का जिम्मा दिया गया, उस समय ही यह कयास लगाया गया था कि कुछ महत्वपूर्ण ‘लक्ष्यों’ को भेदने के लिए उन्हें यह जिम्मेदारी दी गई है. इन लक्ष्यों में धारा-370 और 35-ए शीर्ष पर हैं. अमित शाह चुनाव प्रचार के दौरान स्वयं भी कहते रहे हैं कि बीजेपी सरकार दोबारा आई तो कश्मीर में धारा-370 और 35-ए को खत्म करेगी. हालांकि गृहमंत्री बनने के बाद अभी तक शाह ने इन दोनों मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है, लेकिन सूत्रों के अनुसार इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक्शन प्लान तैयार किया जा रहा है.

सूत्रों के मुताबिक अमित शाह का पहला टारगेट 35-ए है. आपको बता दें कि 35-ए की वैधता के बारे में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. 35-ए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा तय कर सके. दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 35-ए को 14 मई, 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में जगह मिली थी. संविधान सभा से लेकर संसद की किसी भी कार्यवाही में, कभी अनुच्छेद 35-ए को संविधान का हिस्सा बनाने के संदर्भ में किसी संविधान संशोधन या बिल लाने का जिक्र नहीं मिलता है. इसे लागू करने के लिए तत्कालीन सरकार ने धारा-370 के अंतर्गत प्राप्त शक्ति का इस्तेमाल किया था.

1956 में जम्मू-कश्मीर का संविधान बनाया गया, जिसमें स्थायी नागरिकता को परिभाषित किया गया है. इसके अनुसार स्थायी नागरिक वो व्यक्ति है जो 14 मई, 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो या फिर उससे पहले के 10 वर्षों से राज्य में रह रहा हो. साथ ही उसने वहां संपत्ति हासिल की हो. 35-ए को हटाने के लिए बीजेपी पहली दलील यह देती है कि इसे संसद के जरिए लागू नहीं किया गया. पार्टी की दूसरी दलील यह है कि देश के विभाजन के वक्त बड़ी तादाद में पाकिस्तान से शरणार्थी भारत आए. इनमें लाखों की तादाद में शरणार्थी जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं. 35-ए की वजह से ये लोग स्थायी निवासी के लाभ से वंचित हैं.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने वालों ने यह तर्क दिया है कि 35-ए की वजह से संविधान प्रदत्त उनके मूल अधिकार जम्मू-कश्मीर राज्य में छीन लिए गए हैं. लिहाजा राष्ट्रपति के आदेश से लागू इस धारा को केंद्र सरकार फौरन रद्द करे. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के अब तक के रुख को देखकर यह लग रहा है ​कि वह 35-ए के प्रावधानों से सहमत नहीं है. यदि कोर्ट इसे खारिज कर देता है तो अमित शाह की राह आसान हो जाएगी. फिर चाहे घाटी के राजनीतिक दल और अलगाववादी संगठन कितना भी विरोध करें, गृह मंत्रालय इसे किसी भी सूरत में लागू करने से पीछे नहीं हटेगा. वहीं, सुप्रीम कोर्ट 35-ए को जायज ठहरा देता है तो केंद्र सरकार इसे अध्यादेश के जरिए निरस्त कर सकती है.

वैसे यह इतना आसान नहीं है क्योंकि स्थानीय राजनीतिक दलों और अलगाववादियों की पूरी राजनीति इसी पर टिकी हुई है. नेशनल कांफ्रेंस अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला यहां तक कह चुके हैं कि 35-ए को रद्द किए जाने पर ‘जनविद्रोह’ की स्थिति पैदा हो जाएगी, वहीं पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ऐसा होने पर कश्मीर के भारत से अलग होने की बात कह चुकी हैं. यह देखना रोचक होगा कि इस स्थिति से अमित शाह कैसे निपटते हैं. यदि उन्होंने 35-ए को शांति से दफन कर दिया तो उनके लिए धारा-370 की ओर कदम बढ़ाना आसान हो जाएगा.

अमित शाह के एजेंडे में सिर्फ जम्मू-कश्मीर ही नहीं है, नक्सलवाद, आंतरिक सुरक्षा, समान नागरिक संहिता, एनआरसी, कुछ राज्यों की अस्थिरता जैसे मुद्दे भी उनके निशाने पर हैं. ये सभी वे मुद्दे हैं जो शुरू से बीजेपी की हिट​ लिस्ट में रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में इन्हें खास तवज्जो नहीं मिली. अगर वाकई में अमित शाह इन विवादास्पद मुद्दों पर आगे बढ़कर इन्हें अंजाम तक पहुंचाने में कामयाब हुए तो बीजेपी के लिए 2024 का चुनाव भी आसान हो जाएगा.

हालांकि अमित शाह के लिए यह सब करना आसान नहीं है. कश्मीर में सरकार की तमाम सख्ती के बावजूद युवाओं में आतंकवादी संगठनों का असर कम नहीं हो रहा है. पाकिस्तान की ओर से होने वाली घुसपैठ में भी कमी नहीं आई है. पूर्वोतर में भी आतंकवाद व्याप्त है. एनआरसी का मसला गहराने के बाद इसे लेकर और गंभीरता जताई जा रही है. हाल में एनएससीएन-आईएम कैडर और सुरक्षा बलों के बीच कई टकराव हुए हैं. पिछले दिनों आतंकियों ने नेशनल पीपुल्स पार्टी के एक विधायक की हत्या भी कर दी थी. एनआरसी के मसले पर विवाद की वजह से असम में तनाव बढ़ा है.

माओवाद की चुनौती तो है ही, नक्सलियों द्वारा सुरक्षा बलों पर हाल में हमलों की संख्या बढ़ी है. अमित शाह इस चुनौतियों से कैसे निपटेंगे, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन उनकी यह नई भूमिका बीजेपी के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोलते हुए दिख रही है. कश्मीर यात्रा से शाह के कार्यकाल की बोहनी तो जबरदस्त हुई है. हालांकि सिर्फ इसके आधार पर शाह के कार्यकाल के बारे में भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी.

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