Politalks.News/Rajasthan. राजस्थान में चल रहे सियासी घमासान की शुरूआत कांग्रेस में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट खेमे के टकराव के साथ हुई, लेकिन घमासान के आखिरी चरण में अब यह टकराव भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और वसुंधरा राजे खेमे के बीच नजर आने लगी है. पिछले कुछ सालों में भाजपा केंद्रीय नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच कई ऐसे विषय हुए हैं, जो बड़े टकराव का कारण बने हैं. टकराव चाहे गजेन्द्र सिंह को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाने को लेकर हो, 2018 के विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण को लेकर हो या फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के समय हुआ हो. दो बार मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष रहीं वसुंधरा राजे का केंद्रीय नेतृत्व से कई मर्तबा सीधा-सीधा टकराव रहा है.
भाजपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं है लेकिन पाने को है बहुत कुछ
वर्तमान सियासी हालातों को देखते हुए राजनीतिक विशेषज्ञों के मानना है कि केंद्रीय नेतृत्व भी शायद वसुंधरा राजे के बगावती तेवर देखने के लिए तैयार बैठा है. भाजपा जानती है कि गहलोत सरकार को कोई ज्यादा बड़ा खतरा नहीं है और गहलोत सरकार के बचने से भाजपा को कोई नुकसान भी नहीं है. लेकिन किसी भी परिस्थितिवश अगर गहलोत सरकार गिर गई तो भाजपा के लिए वर्चस्व की लड़ाई को लेकर बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है. तेजी से चल रहे सारे सियासी घटनाक्रमों से ऐसा लग रहा है कि वसुंधरा राजे की नाराजगी को बढ़ाने का काम किया जा रहा है. जिससे वो अपनी सारी शक्ति लगाकर वो संभावित सबसे बड़ा कदम उठा लें, जिसके होने से फिलहाल प्रदेश भाजपा को कोई खतरा नहीं है. फिर अपने हिसाब से वापस राजस्थान भाजपा को व्यवस्थित किया जा सके, जिसके लिए पूरे सवा तीन साल का समय इनको मिलेगा.
नया नहीं है टकराव
भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी की लाडली के रूप में पहचान रखने वाली वसुंधरा राजे सिंधिया की राजनीति पर भी उसी समय से ग्रहण लगना शुरू हो गया था, जब से लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के मार्ग दर्शक मंडल में भेज दिए गए हैं. बात चल रही है राजस्थान की, विधानसभा चुनाव में बहुमत से काफी दूर रहने के बाद एक के बाद एक ऐसे कई निर्णय हुए, जिससे वसुंधरा राजे की सियासी प्रभाव को ही खतरा पैदा होता चला गया.
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विधानसभा में सबसे बड़े विपक्ष दल की सबसे बड़ी नेता होने के बाद भी वसुंधरा राजे को प्रतिपक्ष का नेता ना बनाकर गुलाचंद कटारिया को बनाया गया. वहीं उपनेता प्रतिपक्ष के तौर पर राजेंद्र राठौड़ बनाए गए. दोनों के वसुंधरा राजे के साथ विवाद के चर्चे किसी से छुपे नहीं हैं, सार्वजनिक हैं.
इसके साथ ही बीजेपी का वसुंधरा राजे के घुर विरोधी माने जाने वाले हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी से हाथ मिलाना. वहीं वसुंधरा राजे के दूसरे घुर विरोधी डॉ किरोड़ी मीणा से नजदीकियां बनाना. कदम दर कदम केंद्रीय नेतृत्व की ओर से वसुंधरा राजे के लिए स्पष्ट राजनीतिक संकेत थे.
बता दें, वसुंधरा राजे और केंद्रीय नेतृत्व के बीच सबसे बड़ा और खुला टकराव तो उस समय सामने आया था जब वसुंधरा की सहमति के बिना केंद्रीय मंत्री गजेंद्रसिंह शेखावत का नाम राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर फाइनल कर दिया गया, लेकिन वसुंधरा राजे ने ऐसा अड़ंगा लगाया कि केंद्रीय नेतृत्व को कदम पीछे करने पड़ गए. उस समय 100 दिनों तक भाजपा बिना प्रदेश अध्यक्ष के चली थी.
फिर आया सतीश पूनियां का नाम, पूनियां अध्यक्ष बन गए. अध्यक्ष बने काफी समय हो गया. लेकिन कार्यकारिणी की घोषणा ऐसे वक्त की, जब राजस्थान में सियासी संग्राम चल रहा है. जबकि सतीश पूनियां कार्यकारिणी की घोषणा 14 अगस्त से शुरू हो रहे विधानसभा सत्र के बाद भी कर सकते थे. लेकिन शायद भाजपा की रणनीति से यही समय उपयुक्त रहा होगा.
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बात करें घोषित कार्यकारिणी की तो, किसी भी ससंगठन में अध्यक्ष पद के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद महामंत्री का होता है. इन पदों पर सांसद दिया कुमारी और विधायक मदन दिलावर को बैठाया गया. सारी भाजपा जानती है कि इन दोनों के वसुंधरा राजे से कैसे रिश्ते हैं. कार्यकारिणी में जिन नेताओं को अन्य पद दिए गए हैं, उनमें भी कोई ऐसा प्रमुख चेहरा नहीं है, जो वसुंधरा खेमे से माना जाता हो. यहां तक कि सतीश पूनिया ने अपनी वरिष्ठ नेता वसुंधरा राजे से कार्यकारिणी बनाने के मामले में कोई सलाह तक नहीं की.
इससे पहले भाजपा की एलांइस पार्टी के मुखिया और नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल वसुंधरा राजे पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिली भगत का आरोप लगाते हैं, तो प्रदेश या राष्ट्रीय भाजपा का एक भी नेता उस बयान की आलोचना या खण्डन नहीं करता है. बताया गया कि केंद्रीय नेतृत्व ने बेनीवाल को समझाया है, लेकिन हनुमान बेनीवाल ने अपने ट्वीटर एकाउंट से उस बयान से नहीं हटाया है.
अब मैडम वसुंधरा राजे इन सब बातों को लेकर दिल्ली पहुंचती हैं. पार्टी के राष्ट्रियाध्यक्ष जेपी नड्डा से मिलती हैं, अपनी बात रखती हैं. चर्चा है कि वसुंधरा राजे के जेपी नड्डा से मिलकर नाराजगी जताने के कुछ देर बाद ही गजेंद्रसिंह शेखावत ने नड्डा से मुलाकात की. इस मुलाकात के क्या मायने हो सकते हैं, समय के साथ समाने आएगा. लेकिन इन दोनों नेताओं की नड्डा से मुलाकात के कुछ घंटों बाद ही भाजपा के विधायकों की बाड़ेबंदी की खबरें आ जाती हैं, बस यही इस समय की सबसे बड़ी खबर है.
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सारी तस्वीर क्या ईशारा कर रही है
भाजपा में बन रही राजनीतिक तस्वीर से अब बहुत कुछ साफ होना शुरू हो गया है. केंद्रीय नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच अब जो भी तय होगा, वो आर-पार का ही होगा. केंद्रीय नेतृत्व चाहता है कि वसुंधरा केंद्र में आकर राजनीति करें, राजस्थान से खुद को हटाए, तभी तो उन्हें राजस्थान में कोई अहम जिम्मेदारी नहीं देकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया. वहीं कई लोगों को जो वसुंधरा विरोधी चेहरे के रूप में जाने जाते हैं, उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गई.
जानकार सूत्रों के अनुसार यदि वसुंधरा राजे केंद्रीय नेतृत्व के अनुसार चलेंगी तो भाजपा में सबकुछ ठीक ठाक रहेगा. यदि ऐसा नहीं हुआ तो राजस्थान भाजपा में बगावत तय है. बगावत का रूप स्वरूप कैसा भी हो सकता है, लेकिन एक बात तो साफ हो गई कि केंद्रीय नेतृत्व और वसुंधरा के बीच अब जो भी तय होगा वो फाइनल ही होगा.