Politalks.News/Bihar Election. बिहार की राजनीति हमेशा से दलीय राजनीति पर टिकी है. लालू यादव हो या राम विलास पासवान या फिर नीतीश कुमार, सभी की राजनीति हमेशा से दलीय राजनीति पर खेली गई है. लालू ने यादव-मुस्लिम समीकरण पर अपनी राजनीति खेली है तो नीतीश कुमार हमेशा से जीतनराम मांझी के साथ दलितों पर सियासी बिसात बिछाते आ रहे हैं. राम विलास पासवान और अब चिराग पासवान ने अतिपिछड़ा, दलित और मुस्लिमों पर अपना दांव खेला है. बसपा की राजनीति भी हमेशा से दलितों पर ही आधारित रही है,, इसके बावजूद बसपा यूपी से सटे बिहार में अपनी राजनीति कभी नहीं चमका सकी.
हालात ये हैं कि पिछले दो चुनावों में सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने के बावजूद पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल पाई. यूपी में चार बार सत्ता पर विराजमान हुई बिहार में कभी भी दो अंकों में सीटें नहीं जीत सकी जबकि बिहार की 16 फीसदी जनसंख्या दलित और महादलित श्रेणी में आती है. इस बार बसपा उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा के साथ तीसरे गठबंधन में है.
शुरुआत करें यूपी से तो बसपा संस्थापक कांशीराम ने उत्तर प्रदेश की सियासत को ऐसे मथा कि सारे राजनीतिक समीकरण उलट-पुलट हो गए. कांशीराम ने सूबे के दलितों के अंदर ऐसी सियासी चेतना जगाई कि बसपा चार बार सत्ता पर विराजमान हुई, लेकिन यूपी से सटे बिहार में वो अपनी जड़ें जमाने में कामयाब नहीं रहे. 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में दलित जातियों की 16 प्रतिशत भागीदारी है. 2005 में नीतीश कुमार की सरकार ने 22 में से 21 दलित जातियों को महादलित घोषित कर दिया था और 2018 में पासवान भी महादलित वर्ग में शामिल हो गए. इस हिसाब से बिहार में अब दलित के बदले महादलित जातियां ही रह गयी हैं.
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सूबे में 16 फीसदी दलित समुदाय में अधिक मुसहर, रविदास और पासवान समाज की जनसंख्या है. वर्तमान में साढ़े पांच फीसदी से अधिक मुसहर, चार फीसदी रविदास और साढ़े तीन फीसदी से अधिक पासवान जाति के लोग हैं. धोबी, पासी, गोड़ आदि जातियों की भागीदारी अच्छी खासी है. इनके अलावा, 14 फीसदी यादव, 6.4 फीसदी कुशवाहा (कोयरी), 4 फीसदी कुर्मी, 26 फीसदी अतिपिछड़ा, 16 फीसदी दलित और महादलित, 1.3 फीसदी आदिवासी, 16.9 फीसदी मुस्लिम और 17 फीसदी ऊंची जातियां हैं.
इस तरह देखा जाए तो प्रदेश की 41 फीसदी से अधिक जनसंख्या दलित और महादलित श्रेणी में आती हैं. इन जातियों के नेतृत्वकर्ता के तौर पर जीतनराम मांझी और चिराग पासवान सबसे आगे हैं लेकिन इन दोनों की पार्टियों का पिछले चुनाव का हाल देखा जाए तो मांझी की हम पार्टी में मांझी खुद अपनी ही सीट बचा पाए थे, वहीं चिराग की पार्टी लोजपा एनडीए में होने के बावजूद दो सीटें जीतने में सफल रही. बसपा के हाथ 2015 और 2010 के वि.स.चुनावों में खाली रहे.
बिहार में मायावती की बसपा ने साल 2000 के विधानसभा चुनाव में 249 सीटों पर चुनाव लड़ा था (तब झारखंड बिहार में शामिल था), और महज 5 सीटों पर जीत मिली थी. इसके बाद 2005 के चुनाव में मायावती ने चुनावी मैदान में 212 प्रत्याशी उतारे, जिनमें से केवल चार जीतकर विधानसभा पहुंचे. पार्टी को 4.17 फीसदी वोट मिले. साल 2010 में बसपा अपना खाता भी नहीं खोल सकी. 2015 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा को कोई सफलता हाथ नहीं लगी जबकि मायावती ने 228 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे. अबकी बार भी बसपा 150 के करीब सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारेगी, अन्य गठबंधन में साथ रहेंगे. इस बार भी बसपा की स्थिति प्रदेश में खराब है.
बसपा के बिहार में सफल न होने की वजहों पर एक नजर डालें तो पता चलेगा कि बिहार में दलित राजनीति की अपनी कोई वैचारिक पृष्ठभूमि नहीं है. बिहार में दलित राजनीति दूसरे राज्यों से अलग है और दलित समुदाय हर चुनाव में अपना मसीहा तलाशता है. यूपी में कांशीराम ने जिस तरह से दलित समुदाय में राजनीतिक चेतना के लिए संघर्ष किया है, वैसा कोई आंदोलन बिहार में नहीं हुआ है. यही वजह है कि बिहार में दलितों के हालात कभी सुधर ही नहीं पाए और न ही कभी दलित राजनीति स्थापित हो सकी.
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कांग्रेस के बाबू जगजीवन राम बिहार में दलितों के बड़े नेता रहे हैं. उनके बाद उनकी बेटी मीरा कुमार ने उनकी विरासत संभाली है जो उतने बड़े जनाधार वाली नेता नहीं बन सकीं. रामविलास पासवान महज अपनी बिरादरी के नेता बनकर रहे गए हैं इसीलिए हर चुनाव में दलित समुदाय का वोटिंग पैटर्न बदलता रहा. जीतनराम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री रहे लेकिन जदयू से निकलने के बाद पिछले चुनाव में उन्होंने नई पार्टी हिंदूस्तान आवाम मोर्चा बनाई और खुद दो सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन जीत एक पर ही दर्ज कर सके. बढ़ती उम्र के चलते उनका जनाधार घटने लगा.
बात करें बसपा की तो पार्टी बिहार में सिर्फ चुनाव लड़ने का काम करती है. मायावती को चुनाव के दौरान ही बिहार की याद आती है और पांच साल तक कोई चिंता नहीं सतात़ी यहां उसका न तो कोई जमीनी संगठन है और न ही कोई राजनीति प्लान. बिहार में जो भी दलित नेता हैं, वो अपनी-अपनी जातियों के नेता भले ही बन गए हों, लेकिन पूरे दलित समुदाय के नेता के तौर पर स्थापित नहीं हो सके. यही वजह है कि आज उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं मिल रही है.
यूपी से लगे हुए बिहार के कुछ इलाके में बसपा का अपना जनाधार जरूर है, लेकिन पूरे बिहार में न तो पार्टी खड़ी हो सकी, न ही सक्रिय भूमिका में दिखी. बिहार को कभी काशीराम या फिर मायावती जैसा कोई नेता नहीं मिला, जो उनके मिशन को लेकर राज्य में आगे बढ़ सके. बिहार में दलित नेताओं का भी दायरा सीमित रहा है. यही वजह है कि बिहार में दलित समुदाय की राजनीतिक पहचान यूपी और दूसरे राज्यों की तरह स्थापित नही हो सकी.
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इस बार मायावती की बहुजन समाज पार्टी उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. रालोसपा पिछले चुनावों में जदयू, राजद व कांग्रेस के साथ महागठबंधन में शामिल थी और दो सीटें जीत पाई थी. गठबंधन ने नए बिहार के निर्माण की सोच रखते हुए कुशवाहा को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया है लेकिन इस तीसरे मोर्चे का अस्तित्व बिहार में नजर नहीं आता. गठबंधन के 10 सीटें जीतने की उम्मीद भी काफी कम है.