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पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी ओम बिरला ने जीत के सूत्र जहां छोड़े थे, 2019 के चुनावों की दौड़ में उन्हें फिर से थामने की जुगत में हैं. लेकिन अबकी बार उनके मंसूबों को निगलने के लिए बजबजाता सियासी अवसरवाद निकल आए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए. यह नौबत दलबदल कर कांग्रेस से भाजपा में आए कोटा के पूर्व राजवंश के उत्तराधिकारी इज्यराज सिंह के उभरते राजनीतिक प्रभुत्व की वजह से आ सकती है.

इज्यराज सिंह में अजातशत्रु बनने की लालसा वसुंधरा राजे की पेरोकारी की वजह से पैदा हुई है. इज्यराज सिंह वसुंधरा राजे के वादे की तुरूप हाथ में लेकर कोटा-बूंदी संसदीय क्षेत्र पर उम्मीद की टकटकी लगाए हुए हैं. सूत्रों की मानें तो विधानसभा चुनाव के दौरान लाडपुरा विधानसभा क्षेत्र से भवानी सिंह राजावत को दरकिनार कर कल्पना सिंह को उम्मीदवार बनाने की सौदेबाजी में वसुंधरा राजे ने इज्यराज सिंह के साथ सवांद की एक नई भाषा गढ़ी. उन्होंने कहा कि यह क्षत्राणी का वादा है, लोकसभा में आप ही भाजपा के प्रत्याशी होंगे.

जब तक वसुंधरा राजे पार्टी नेतृत्व के निशाने पर रहीं, यह संभावना अटकलों के अंधेरों में ही भटकती रही. लेकिन 6 मार्च को राजे के जलजले के आगे पार्टी नेतृत्व को घुटने टिकाने के बाद लोकसभा चुनावों के मुसाहिबी मुकाबलें में अजेय योद्धा ओम बिरला के खारिज किए जाने की संभावनाओं पर मुंहर लग गई. इस फैसले में भाजपा हाईकमान ने वसुंधरा राजे का राजनीतिक पुर्नवास करते हुए लोकसभा चुनावों के लिए प्रदेश में मुख्य प्रचारक के रूप में प्रस्तुत करने का निर्णय लिया.

यह भी तय हुआ कि टिकट वितरण की कवायद में राजे की रजामंदी ही चलेगी. विश्लेषकों का कहना है कि ओम बिरला के साथ तल्ख रिश्तों को देखते हुए राजे को ऐसे ही किसी मौके की तलाश भी थी. यह मौका उन्हें अनायास ही मिला है, जिसे भुनाने में राजे शायद ही कोई कसर छोड़ें. विश्लेषकों के कहे पर यकीन करें तो अब जब सब कुछ राजे को करना है तो बिरला की सांसदी तो गई.

सूत्र कहते हैं कि बिरला का एक नकारात्मक पहलू भी राजे अपनी मुट्ठी में दबोचे हुए हैं. बताया जाता है कि बिरला भाजपा के कद्दावर नेता प्रमोद महाजन के अंतरंग सखा रहे हैं. कोई अबूझ आर्थिक साझेदारी की खिचड़ी भी उनके बीच पकी थी. कहा जाता है कि समृद्धता के हिंडोले पर बैठे बिरला ने फिल्म ‘मणिकर्णिका’ में अच्छा-खासा निवेश किया.

चर्चा है कि प्रमोद महाजन के पारिवारिक सूत्रों ने ‘मणिकर्णिका’ में निवेश को शिकवा-शिकायत की तर्ज में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह तक पहुंचा दिया. नतीजतन बिरला पर शाह का गुस्सा जमकर बरसा और उनके बीच के सौम्य रिश्ते तीन-तेरह हो गए. इस मुद्दे पर ठंडी कूटनीति ने रोमांच की राह तो नहीं खोली अलबत्ता बिरला केंद्रीय नेतृत्व की विश्वसनीयता के फलक पर जरूर डगमगा गए.

लेकिन बिरला कोई पानी का बुलबुला नहीं कि कोई उन्हें फूंक से उड़ा दे. सियासी उपेक्षा की स्थिति में तटस्थ रहना बिरला के स्वभाव में नहीं है. बिरला के बारे में कहा जाता है कि पार्टी दिग्गजों को चुनावी प्रबंधन की बारीकियों का पाठ पढ़ाकर प्रमोद महाजन की पांत में पहुंचे ओम बिरला मतदाताओं के साथ विजय संपर्क की वजह से एक शक्ति के रूप में उभरे हैं.

चुनाव प्रबंधन की भाषा में कहें तो बिरला ‘क्राउड मैनेजमेंट’ और ‘इलेक्शन मैनेजमेंट’ के मास्टर हैं. उनका अंदाज सधा हुआ है. आवाज में एक खास गूंज है और शब्दों में सोची समझी बुनावट है, जो भीड़ को बखूबी रिझाती है. उम्मीदवारी में फच्चर डालने को लेकर बिरला अगर महाभारत रचते हैं तो उन्हें भवानी सिंह राजावत के रूप में अप्रत्यक्ष सारथी भी हासिल हो सकता है, जो चुनावी दौड़ से बाहर किए जाने के कारण पहले ही जले-भुने बैठे हैं.

राजावत पहले ही राजे से भिन्नाए हुए बैठे हैं. क्या वो इस मौके को गंवाने की चूक करेंगे? बिरला और राजावत दोनों ही चुनावी घोड़ों की रास खींचने में माहिर हैं. विश्लेषक कहते है कि बिरला को अगर उम्मीदवारी नहीं मिलती है तो इज्यराज सिंह को भी कौन जीत का रथ पकड़ने देगा. बहरहाल, यह मोका कांग्रेस के चाणक्य शांति धारीवाल बखूबी निभाएंगे और जीत के सिकंदर भी वही होंगे. उनके पास चुनावी तुरूप का कौनसा पत्ता है, इससे लोग बेखबर नहीं हैं.

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